आपातकाल बनाम क़ानून का शासन



(बिलासपुर में आयोजित क्षेत्रीय न्यायिक सम्मेलन के समापन समारोह में 'क़ानून का शासन बनाए रखने में न्यायालयों की भूमिका' विषय पर 30 मार्च, 2014 को छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति यतींद्र सिंह द्वारा दिए गए भाषण के कुछ अंश) 

पिछले ढाई दिनों में हमने चर्चा की है कि ‘कानून का शासन क्या है और उसे चलाने में न्यायालय की भूमिका’ क्या है । इसका सबसे अच्छा उदाहरण है आंतरिक आपातकाल (26, जून 1975 से 21 मार्च 1977)। 

मैंने, न केवल इसे देखा है, बल्कि इसे अनुभव भी किया है । इलाहाबाद के वरिष्ठ अधिवक्ता मेरे पिता को शुरूआत में डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स (डीआईआर) के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया, किन्तु जब उन्हें डीआईआर के तहत जमानत मिल गई, तो उन्हें मीसा के तहत निरुद्ध कर दिया गया, जो आज के राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA) के समान था। 

आंतरिक आपातकाल के दौरान, कानून के शासन पर पूर्ण विराम लग गया। सम्मानित नागरिक, वरिष्ठ अधिवक्ता, शिक्षक, प्रोफेसर, व्यापारी, पत्रकार, राजनीतिक विचारक आदि को झूठे दस्तावेज और झूठी एफआईआर के माध्यम से बिजली के तारों को चुराने या डाकघरों, अदालतों, कलेक्ट्रेट, बैंकों और अन्य सार्वजनिक संस्थान को जलाने की कोशिश करने वाला बताया गया । 

हमारे देश के इतिहास में नातो पुलिस और नाही नौकरशाही जितनी पतित तब हुई थी, उतनी कभी नहीं हुई, यहाँ तक कि ब्रिटिश काल में भी नहीं | इसे कुछ भी कहा जा सकता है किन्तु 'कानून का शासन नहीं' कहा जा सकता। यह अच्छी बात यह है कि उनमें से कुछ को यह एहसास हुआ कि वे कितने अधिक गिर गए हैं, और उन्होंने उस दबाब से निकलने की कोशिश की, लेकिन नतीजतन उन्हें लगातार कभी स्थानान्तरण और कभी निलंबन भोगना पड़ा । 

उस समय, डीआईआर के नियम 194 (बी) में जमानत का अधिकार था। किन्तु उसमें भी तब तक जमानत नहीं दी जा सकती थी, जब तक कि अदालत के पास यह मानने के लिए उचित आधार न हों कि अभियुक्त किसी तरह के नियम उल्लंघन का दोषी नहीं था। 

उस अवधि के दौरान, सभी जमानत आवेदनों का कड़ा विरोध किया गया था। सभी एफआईआर समान थीं, और हर कोई जानता था कि ये मामले झूठे हैं। फिर भी, जमानत की अर्जीयां खारिज हुईं। यही उदाहरण है कि कानून के नियम को लागू करने में अपनी भूमिका के साथ अदालतों ने न्याय नहीं किया । 

किन्तु उच्च न्यायालय के कुछ न्यायाधीशों ने इस छल कपट से पर्दा उठाने का साहस जुटाया (इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति जेपी चतुर्वेदी और न्यायमूर्ति एम.पी. सक्सेना), तो दूसरों ने भी जमानत देनी शुरू कर दी; और अदालतों ने अपनी भूमिका को समझा। 

न्यायमूर्ति एम.पी. सक्सेना अक्सर कहते थे कि नियम 194 (बी) को दूसरे तरीके से समझना होगा । उनके अनुसार जब तक इसके विपरीत साबित नहीं होता, तब तक ये सभी एफआईआर झूठी हैं । 

किन्तु डीआईआर में जमानत पाने के बाद भी अगर कोई जेल से बाहर आया: तो उसे तुरंत मीसा में हिरासत में ले लिया गया। उस दौर को वही जानता है, जिसने वह नारकीय यंत्रणा भुगती हो | उस समय की आतंकपूर्ण स्थिति की कल्पना करना मुश्किल है । 

शाह आयोग की रिपोर्ट के अनुसार 'एक एकल वस्तु जिसने पूरे देश में लोगों को सबसे अधिक प्रभावित किया था, वह थी संशोधित मीसा के तहत प्राप्त शक्ति का विभिन्न स्तरों पर हुआ दुरुपयोग ।' एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की वजह से यह संभव हुआ। (AIR 1976 एस.सी. 1207 हैबियस कॉर्पस केस)। 

हैबियस कॉर्पस अपील को स्वतंत्रता का द्वार खोलने वाली एक कुंजी माना जाता है । उक्त हैबियस कॉर्पस प्रकरण में, यह विचारणीय प्रश्न था कि क्या संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 21 और 22 के निलंबन के आलोक में, हैबियस कॉर्पस की रिट को बनाए रखा जा सकता है या नहीं। स्मरणीय है कि अनुच्छेद 21 जीवन और स्वतंत्रता की गारंटी देता है। 

जब यह सवाल सामने आया तो सभी उच्च न्यायालयों ने माना कि राज्य कानून का पालन करने के लिए बाध्य है। लेकिन हैबियस कॉर्पस के उक्त प्रकरण में उच्च न्यायालयों के सर्वसम्मत विचार को सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत (4: 1) से खारिज कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना कि राज्य अगर कानून के विपरीत भी काम करता है तो भी अदालतें कुछ नहीं कर सकतीं; उन्हें असहाय दर्शक ही रहना चाहिए: 

इसका नतीजा यह हुआ कि गलत को मान्यता मिली - यहां तक ​​कि उन लोगों द्वारा, जिन पर इसे रोकने की जिम्मेदारी थी । आपातकाल के दौरान भारत के उच्च न्यायालयों ने श्रेष्ठतम भूमिका निभाई, और कई साहसिक निर्णय दिए ... किन्तु उच्च न्यायालयों ने जिन दरवाजों को खोला, उन्हें उच्चतम न्यायालय ने पुनः बंद कर दिया । ' उच्च न्यायालयों ने 'क़ानून के शासन' को लागू करने में 'अदालतों की भूमिका' को ठीक से समझा, लेकिन दुर्भाग्य से उच्चतम न्यायालय के बहुमत ने ऐसा नहीं किया। आखिर दुनिया का सबसे अच्छा लोकतंत्र; बेहतरीन नौकरशाही; मजबूत मीडिया; सबसे अधिक शिक्षित और सक्षम न्यायाधीशों ने हमें विफल क्यों कर दिया? 

कहा जा सकता है कि आंतरिक आपातकाल के दौरान कानून का शासन पूर्णतः विफल हुआ। केवल एक जज जस्टिस एचआर खन्ना ने हेबियस कॉर्पस के उक्त प्रकरण में अपनी असहमति दर्ज कराई । फली एस. नरीमन ने अपनी पुस्तक 'द स्टेट ऑफ नेशन' में न्यायमूर्ति खन्ना के यादगार और ऐतिहासिक असहमति को लेकर लिखा है कि अपने उस एक फैसले से न्यायमूर्ति खन्ना, बेंच में रहे अन्य न्यायाधीशों की तुलना में कहीं अधिक प्रसिद्ध और सम्माननीय हो गए । 

उस समय न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने मुखपृष्ठ पर संपादकीय टिप्पणी में लिखा - 'निश्चित रूप से किसी भारतीय महानगर में उनकी एक प्रतिमा लगाई जाएगी।' आप सभी को शुभकामनाएँ। हो सके तो आप भी 'कानून के शासन' का पालन करें और न्यायमूर्ति एचआर खन्ना जैसे न्यायाधीश बनें। जय भारती, जय हिंद। 



ध्यान देने योग्य तथ्य है कि 1976 के उक्त फैसले में जिन पांच जजों की बेंच थी, उसमें मुख्य न्यायाधीश जस्टिस ए.एन. राय, जस्टिस एम.एच बेग, जस्टिस चन्द्रचूड और जस्टिस पीएन भगवती ने शासन द्वारा जीवन का अधिकार छीने जाने के पक्ष में निर्णय दिया था, केवल जस्टिस खन्ना ने ही इसके विपरीत मत रखा था | किन्तु 24 अगस्त 2017 में नौ जजों की बेंच ने बहुमत के उस फैसले को गलतियों से भरा मानते हुए, जस्टिस खन्ना को बिलकुल सही बताया और यह माना कि -


119 एडीएम जबलपुर के प्रकरण में बहुमत से फैसला देने वाले सभी चार न्यायाधीशों द्वारा दिए गए निर्णय गंभीर रूप से त्रुटिपूर्ण हैं। जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता मानव अस्तित्व के लिए अपरिहार्य हैं। जैसे कि केशवानंद भारती प्रकरण में माना गया, ये अधिकार, आदिम काल से मान्यता प्राप्त अधिकार हैं। वे प्राकृतिक कानून के तहत प्राप्त अधिकार हैं। व्यक्ति के जीवन में मानवीय तत्व का समावेश, जीवन की पवित्रता पर आधारित है। गरिमा स्वतंत्रता और स्वाधीनता से जुड़ी है। कोई भी सभ्य राज्य, कानून के अधिकार के बिना, जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अतिक्रमण के विषय में सोच भी नहीं सकता । न तो जीवन और न ही स्वतंत्रता राज्य द्वारा प्रदत्त इनाम हैं और न ही संविधान इन अधिकारों का निर्माण करता है। जीवन का अधिकार संविधान के आगमन से पहले भी मौजूद था। अधिकार को मान्यता देने भर से, एकमात्र संविधान अधिकार का स्त्रोत नहीं बन जाता । यह सुझाव देना उचित होगा कि अधिकारों के प्रावधानों के बिना एक लोकतांत्रिक संविधान, राज्य द्वारा शासित व्यक्तियों को जीने के अधिकार रहित या अधिकार के प्रवर्तन के साधन बिना छोड़ देगा।208 Ibid, पृष्ठ 751 (पैरा 531) 209 Ibid, पृष्ठ 767 (पैरा 574) भाग I 119 । प्रत्येक व्यक्ति के लिए जीवन का अधिकार अपरिहार्य है, यह संविधान से पहले भी अस्तित्व में था और संविधान के अनुच्छेद 372 के तहत जारी रहा। जस्टिस खन्ना का यह मानना स्पष्ट रूप से सही था कि संविधान के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की मान्यता उस अधिकार के अस्तित्व को नकारती नहीं है, इसके साथ ही यह धारणा मूर्खतापूर्ण है कि संविधान को अपनाते समय भारत के लोगों ने मानव व्यक्तित्व के सबसे अनमोल पहलू, अर्थात जीवन, स्वतंत्रता और स्वाधीनता का राज्य के समक्ष समर्पण कर दिया था तथा अब उसकी दया पर ये अधिकार निर्भर होंगे। ऐसा मानना कानून के शासन के मूल आधार के विपरीत है जो आधुनिक अवस्था में निहित शक्तियों पर प्रतिबंध लगाता है जब यह व्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित होता है। हैबियस कॉर्पस की रिट जारी करने की न्यायालय की शक्ति कानून के शासन की एक अनमोल और निर्विवाद विशेषता है। 

119 The judgments rendered by all the four judges constituting the majority in ADM Jabalpur are seriously flawed. Life and personal liberty are inalienable to human existence. These rights are, as recognised in Kesavananda Bharati, primordial rights. They constitute rights under natural law. The human element in the life of the individual is integrally founded on the sanctity of life. Dignity is associated with liberty and freedom. No civilized state can contemplate an encroachment upon life and personal liberty without the authority of law. Neither life nor liberty are bounties conferred by the state nor does the Constitution create these rights. The right to life has existed even before the advent of the Constitution. In recognising the right, the Constitution does not become the sole repository of the right. It would be preposterous to suggest that a democratic Constitution without a Bill of Rights would leave individuals governed by the state without either the existence of the right to live 208 Ibid, at page 751 (para 531) 209 Ibid, page 767 (para 574) PART I 119 or the means of enforcement of the right. The right to life being inalienable to each individual, it existed prior to the Constitution and continued in force under Article 372 of the Constitution. Justice Khanna was clearly right in holding that the recognition of the right to life and personal liberty under the Constitution does not denude the existence of that right, apart from it nor can there be a fatuous assumption that in adopting the Constitution the people of India surrendered the most precious aspect of the human persona, namely, life, liberty and freedom to the state on whose mercy these rights would depend. Such a construct is contrary to the basic foundation of the rule of law which imposes restraints upon the powers vested in the modern state when it deals with the liberties of the individual. The power of the Court to issue a Writ of Habeas Corpus is a precious and undeniable feature of the rule of law. 

120 एक संवैधानिक लोकतंत्र तभी जीवित रह सकता है, जब नागरिकों को यह आश्वासन मिलता है कि कानून का शासन, राज्य द्वारा किये जाने वाले किसी भी आक्रमण के खिलाफ उनके अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा करेगा और इनसे वंचित होने पर एक नागरिक न्यायिक सहायता से सवाल पूछने और जवाब पाने की उम्मीद कर सकेगा। न्यायमूर्ति खन्ना के इस विचार को स्वीकार किया जाना चाहिए, और उनके विचारों की ताकत और उनकी हिम्मत के लिए श्रद्धा व्यक्त किया जाना चाहिए। 

120 A constitutional democracy can survive when citizens have an undiluted assurance that the rule of law will protect their rights and liberties against any invasion by the state and that judicial remedies would be available to ask searching questions and expect answers when a citizen has been deprived of these, most precious rights. The view taken by Justice Khanna must be accepted, and accepted in reverence for the strength of its thoughts and the courage of its convictions. 

121 जब राष्ट्रों के इतिहास लिखे जाते हैं और आलोचना की जाती है, तो स्वतंत्रता के मामले में सबसे आगे न्यायिक निर्णय होते हैं। 

121 When histories of nations are written and critiqued, there are judicial decisions at the forefront of liberty.
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