हेमू कालानी का अनूठा वलिदान !



आज हेमू कालानी वलिदान दिवस है | एक विशेष प्रसंग के कारण हेमू का बलिदान अनोखा और अद्वितीय है - 

हेमू कालानी को मृत्युदंड दिया गया | उसकी अंतिम इच्छा पूछी गई तो उसने कहा कि पचास मील के अन्दर जितने अंग्रेज हैं, वे चाहे अधिकारी हों या व्यापारी, उन सबको मेरे सम्मुख बुलाईये | 
फांसी के पूर्व उन अंग्रेजों से मैं कुछ कहूँगा और वे सब दोहराएंगे | 
सब अंग्रेज एकत्रित हो पंक्तिवद्ध खड़े हो गए | 
फांसी के तख्ते से हेमू ने कहा – 
अंग्रेज भाई लोग मेरी बात पर ध्यान दें | जब मैं कहूंगा इन्कलाब, तब आप लोग कहेंगे जिन्दावाद | जब मैं कहूंगा स्वतंत्रता का आन्दोलन तब आप लोग कहोगे अमर रहे | तीन बार इसकी पुनरुक्ति होगी | यही मेरी अंतिम इच्छा है | 

नियम से बंधे अंग्रेजों ने विवश हो दोहराया | संसार में शायद ही कोई और क्रांतिकारी ऐसा हुआ हो जिसने अंग्रेजों से इस प्रकार कहलाया हो | 

हेमू अपने अंतिम समय में भी इतना शांत और स्थिर इसलिए रह पाया क्योंकि उसने गीता के गीतों को अपने जीवन का संगीत बना लिया था | 

कौन थे ये हेमू कालानी ? 

हेमू कालाणी सिन्ध के सख्खर (Sukkur) में २३ मार्च सन् १९२३ को जन्मे थे। उनके पिताजी का नाम पेसूमल कालाणी एवं उनकी माँ का नाम जेठी बाई था। हेमू के दादा मंघाराम कालाणी गांधीवादी थे जबकि हेमू गरम दल के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में शामिल था जिनका उद्देश्य अंग्रेजी हुकुमत को उखाड़ फेंकना था | हेमू अपने मित्रो के साथ किताबो में गुप्त सूचनाये जो पंजाब के गरम दल क्रान्तिकारियो द्वारा सिंध और बलूचिस्तान भेजी जाती रही , को गन्तव्य पर पहुचाने का कार्य करते रहे |

छोटी उम्र में तिंरगा लेकर अपने साथियो के साथ अंग्रेजो की बस्ती में दौड़ दौड़ कर “भारत माता की जय” के नारे लगाना , रात में अंग्रेजो के घरो पर पत्थर फेंकना , सक्खर जिले की सिन्धु नदी में तैरना उन्हें पसंद था | हेमू कालाणी जब मात्र 7 वर्ष के थे तब वह तिरंगा लेकर अंग्रेजो की बस्ती में अपने दोस्तों के साथ क्रांतिकारी गतिविधियों का नेतृत्व करते थे |

8 अगस्त 1942 को गांधी जी ने अंग्रेजों के विरुध्द भारत छोडो आन्दोलन तथा करो या मरो का नारा दिया। इससे पूरे देश का वातावरण एकदम गर्म हो गया। अधिकांश कांग्रेसी नेता पकड पकड कर जेल में डाल दिए गए। फिर क्या था, छात्रों, किसानों, मजदूरों, आदमी, औरतों व अनेक कर्मचारियों ने आन्दोलन की कमान स्वयं सम्हाल ली। पुलिस स्टेशन,पोस्ट आफिस,रेलवे स्टेशन आदि पर आक्रमण प्रारंभ हो गए। जगह जगह आगजनी की घटनाएं होने लगी। गोली और गिरफ्तारी के दम पर आंदोलन को काबू में लाने की कोशिश होने लगी। सिंध प्रान्त में इस वीर युवा 19 वर्षीय हेमू कालानी ने भी आंदोलन में बढ चढकर हिस्सा लिया। 

अक्टूबर 1942 में हेमू को यह गुप्त जानकारी मिली कि अंग्रेजी सेना की हथियारों से भरी रेलगाड़ी रोहड़ी शहर से होकर गुजरेगी। हेमू ने अपने चार साथियो के साथ उस रेलगाड़ी को सक्खर जिले के बड़े पुल में गिराने की योजना बनाई और रेल पटरी की फिश प्लेट खोल दी | गाड़ी सक्खर स्टेशन के लिए रवाना हुयी | सक्खर स्टेशन और सक्खर नदी पुल के दूरी लगभग डेढ़ किमी रही होगी | किन्तु रेलवे कैबिन के कर्मचारी ने खुली हुयी फिश प्लेट देख ली और लाल झंडी दिखाकर रेलगाड़ी को रोक लिया | हेमू अपने साथियों के साथ पुल के नीचे एक छोर पर उत्साहित होकर अंग्रेजी हुकुमत के दस्ते को डूबता हुआ देखना चाहते थे | यह उत्साह भारी पड़ा और पुलिस कर्मियों ने हेमू कालाणी को गिरफ्तार कर लिया | उनके बाकी साथी फरार हो गए।

अंग्रेज सरकार ने जेल में इस नन्हे क्रांतिकारी पर अमानवीय अत्याचार किये | उससे रेलगाड़ी गिरानी की योजना में शामिल क्रान्तिकारियो के नाम पूछे लेकिन हेमू ने नाम नही बताये | हेमू कालानी को बर्फ की सिल्ली पर लेटाकर कोड़े बरसाए गये | जख्मो पर नमक लगा कर उसे पुन: कोड़े मारे लेकिन लोहे का बना वीर “इन्कलाब जिंदाबाद” कहता रहा | हेमू को सक्खर न्यायालय ने उम्र कैद की सजा सुनाई | 

उस समय के सिंध के गणमान्य लोगों ने एक पेटीशन दायर की, लेकिन हैदराबाद सिंध के मुख्य अंग्रेज न्यायाधीश कर्नल रिचर्डसन ने फैसले को बरकरार रखा | फाँसी से पूर्व हेमू की माँ जेठीबाई हेमू से जेल में मिलने आयी तो सभी बंदी भाई हैरान हो गये | हेमू की माँ बिल्कुल भी नही रोई | ममतामयी वीर माता ने हेमू से कहा “मुझे अपनी कोख पर गर्व है कि मेरा लाल भारत माता को आजाद कराने के लिए अपने प्राणों की आहुति देकर शरीर त्याग रहा है ” | 


हेमू को फांसी न देने की अपील वायसराय से भी की गई। वायसराय ने शर्त लगाई कि हेमू कालाणी अपने साथियों का नाम और पता बताये पर हेमू कालाणी ने यह शर्त अस्वीकार कर दी। २१ जनवरी १९४३ को उन्हें फांसी की सजा दी गई। जब फांसी से पहले उनसे आखरी इच्छा पूछी गई तो क्या हुआ उसका उल्लेख ऊपर किया ही जा चुका है । 21 जनवरी 1943 को इन्कलाब जिंदाबाद और भारत माता की जय के उद्घोष के साथ यह वीर शिरोमणि फांसी के फंदे पर झूल गया । 

18 अक्टूबर 1983 को देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी एवं शेर-ए-सिंध शहीद हेमू कालाणी की माताजी जेठी बाई कालाणी की उपस्थिति में नन्हे क्रांतिकारी हेमू कालाणी पर डाक टिकिट जारी किया गया था | 1998 में भारत सरकार द्वारा लोकतंत्र के पवित्र मन्दिर संसद के परिसर में हेमू कालाणी की प्रतिमा स्थापित की गयी |

आज ना सिंध भारत में है न हेमू का पावन जन्मस्थान, अगर कुछ है तो यादें । लेकिन कितने दिलों में ? और कब तक रहेंगी ? भारतीय नई पीढी को तो यह गाथाएँ पढाई ही नहीं जातीं ! क्योंकि देशभक्ति को तो आज के नव वौद्धिक जमात द्वारा कोने में फेंक दिया गया है । और सत्ताधीशों को तो नेताओं की जीवनी पढ़ाने में ज्यादा रूचि रहती है !
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