सुब्रमण्यम स्वामी के अनुसार तो अयोध्या विवाद का समाधान 1993 में ही हो चुका !



पीएम मोदी को अयोध्या अधिनियम, 1993 और 1994 में नरसिम्हा राव सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत शपथ पत्र के अनुसार अयोध्या में राम मंदिर निर्माण प्रारम्भ करने हेतु आगे बढ़ना चाहिए । 

हरिद्वार से श्री उपानंद ब्रह्मचारी के आलेख पर आधारित 

एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट में भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई द्वारा गठित 5 'जजों की बेंच ने अत्यंत ही 'गैर-जिम्मेदाराना' व्यवहार प्रदर्शित करते हुए, जस्टिस यूयू ललित के बहाने, दीर्घ काल से लंबित अयोध्या मामले को 29 जनवरी तक के लिए टाल दिया है। ऐसे में तारीख पर तारीख से उकताए और आहत हुए हिन्दू समाज का मुखर स्वर बनकर डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने एक ऐसा सुझाव दिया है, जिसे कहा जा सकता है – सांप भी मर जाये और लाठी व न टूटे। अयोध्या मुद्दे के समाधान हेतु डॉ. स्वामी का सुझाव है कि मोदी सरकार अयोध्या अधिनियम, 1993 और 1994 में पी. वी. नरसिम्हा राव सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दिए गए शपथ पत्र के आधार पर अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण शुरू कर सकती है । अयोध्या मामले में सुप्रिम कोर्ट में लंबित शीर्षक सूट से कोई अंतर नहीं पड़ेगा । 

यह दुर्भाग्य पूर्ण ही है कि भारतीय न्यायतंत्र देश के बहुसंख्यक 1 अरब हिंदुओं की भावनाओं की लगातार अपमानजनक अनदेखी कर रहा है । स्मरणीय है कि विगत पचास वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय में दस मुख्य न्यायाधीश बदल चुके हैं, किन्तु हिन्दू समाज की प्रतीक्षा का कोई अंत होता नजर नहीं आ रहा है। लगता है हिंदुओं की जो न्यायिक प्रणाली पर अगाध श्रद्धा है, वही उनकी कमजोरी बन गई है, जिसके कारण अनिश्चित काल तक प्रतीक्षा ही उनकी नियति बन गई है । 

स्वतंत्रता प्राप्ति के तत्काल बाद से ही अर्थात 1949 से रामजन्मभूमि-बाबरी विवाद पर कई मामले लंबित थे, जिससे फूटे आक्रोश में अंततः 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी ढांचे बह गया और तब से ही अयोध्या में रामजन्मभूमि स्थल पर एक टेंट में भगवान रामलला का विग्रह विद्यमान है । 

उसके बाद क़ानून व्यवस्था के नाम पर तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने उत्तर प्रदेश सहित चार भाजपा शासित राज्यों की सरकारों को भंग कर दिया था और प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस की कांग्रेस सरकार की सिफारिश पर अयोध्या अधिनियम 1993 पर हस्ताक्षर किए। 

इस अधिनियम के तहत रामजन्मभूमि के आसपास का 67.7 एकड़ भूभाग केंद्र सरकार द्वारा अधिग्रहण किया गया। यह भूमि तहसील फैजाबाद (वर्तमान नाम अयोध्या) परगना हवेली अवध के तीन गाँवों की थी – कोट रामचंद्र, अवधख़ास और जलवानपुर । तत्कालीन केंद्र सरकार ने ऐसा बाबरी विध्वंस के बाद किसी भी तरह के टकराव को रोकने के लिए किया था। 

भूमि अधिग्रहण के बाद डॉ. इस्माइल फारुकी और अन्य मुसलमानों ने अयोध्या अधिनियम 1993 की वैधता को चुनौती देते हुए कहा कि सरकार को उस क्षेत्र को अधिग्रहित करने का कोई अधिकार नहीं है जिस पर 6 दिसंबर, 1992 को इस्लामिक प्रार्थना घर बाबरी मस्जिद का बजूद था। सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 1994 में अधिनियम को बरकरार रखते हुए और इन आपत्तियों का निराकरण करते हुए फैसला दिया कि, “मुसलमानों के नमाज़ पढ़ने के लिए इस्लाम में मस्जिद अनिवार्य नहीं है और यह कार्य तो कहीं भी, किसी खुली जगह में भी किया जा सकता है। तदनुसार, इस भूमि के अधिग्रहण को भारत के संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत निषिद्ध नहीं किया गया है। ”न्यायाधीशों ने यह टिप्पणी भी केवल विवादित क्षेत्र के अधिग्रहण के संदर्भ में की थी । इसलिए, अयोध्या अधिनियम 1993 अभी भी मान्य है और अधिनियम के तहत रामजन्मभूमि के अंदर और बाहर की भूमि केंद्रीय सरकार के आभासी अधिकार और पूरी तरह नियंत्रण में हैं। 

उक्त अधिनियम के आधार पर ही सरकार ने | तो अयोध्या अधिनियम 1993 के आधार पर, सरकार राम मंदिर का निर्माण भी कर सकती है, जिसमें रामजन्मभूमि स्थल भी शामिल है। 

इस तरह देखा जाए तो सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मुकदमे का भी कोई अर्थ नहीं रह जाता, जो कि २०१० में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा दिए गए उस फैसले को चुनौती देते हुए चल रहा है, जिसमें रामजन्मभूमि-बाबरी की विवादित 2.77 एकड़ भूमि, रामलला विराजमान, निर्मोही अखाडा और सुन्नी वक्फ बोर्ड के बीच बराबर बांटी गई थी । अयोध्या अधिनियम 1993 के अनुसार ही सरकार तो वर्तमान में अधिग्रहित भूमि पर पार्क, सौंदर्यीकरण, सार्वजनिक उपयोगिता के स्थल, तीर्थयात्रा केंद्र, पुलिस पोस्टिंग, बैरिकेड्स, रेज़र फेंस आदि बना चुकी हैं अर्थात राम चबूतरा, सीता की रसोई आदि रामजन्मभूमि स्थलों पर कब्जा सरकार का है । टाइटल सूट के निपटारे के बाद, उस आधार पर जीतने वाले पक्ष को पहले से अधिग्रहित भूमि के लिए मुआवजा के रूप में बाजार मूल्य के बराबर नकद राशि दिया जाना चाहिए। जब कोई कानूनी समस्या ही नहीं है तो अब बिलम्ब क्यों ? अकारण तो अगले सौ वर्षों तक लड़ते रहा जा सकता है ! 
उक्त विषय व सन्दर्भ में सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा लगातार किये गए ट्वीट -



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