बुंदेलखंड में लोकगीतों की नायिका किन्तु इतिहासकारों द्वारा बिसराई गईं अमर हुतात्मा - रानीअवन्ति बाई लोधी !

भारत को अंग्रेजों की दास्ताँ से मुक्त करने हेतु हमारे देश के अनेकों वीरों ने अपने प्राणों की आहुति हँसते हँसते दी | भारत में पुरुषों के साथ आर्य ललनाओं ने भी देश, राज्य और धर्म, संस्कृति की रक्षा के लिए आवश्यकता पड़ने पर अपने प्राणों की बाजी लगाई है परन्तु दुःख की बात यह है कि ऐसे वीरों के योगदान को आज की पीढ़ी न के बराबर जानती है | इन गुमनाम नायकों में भगत सिंह से उम्र में चार वर्ष छोटी आयु में फांसी का फंदा चूमने वाले भगत सिंह के वो गुरु जिनका फोटो भगत सिंह अपनी जेब में सदैव रखते थे | एक 18 वर्षीय बोर्ड टॉपर बालिका जिन्होंने एक ऐसे क्लब पर धावा बोलकर अपने प्राणों की आहुति दे दी जिसके बाहर लिखा था - इंडियन एंड डॉग्स आर नॉट एलाउड | एक ऐसा आदिवासी वीर नायक जिसने जल, जंगल और जमीन का नारा दिया | 1857 का 80 वर्षीय वह नायक जिसने कई बार अंग्रेजों को हराया पर कभी जिन्दा पकड़ा नहीं गया | ऐसे न जाने कितने गुमनाम वीर योद्धाओं की साहसिक गाथाएं इतिहास में समुचित स्थान नहीं पा सकीं, हमेशा इतिहासकारों ने अपनी कलम से वंचित और अछूता रखा । भारत की पूर्वाग्रही लेखनी ने देश के बहुत से त्यागी, बलिदानियों, शहीदों और देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले वीर-वीरांगनाओं को भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की पुस्तकों में उचित सम्मानपूर्ण स्थान नहीं दिया, परंतु आज भी इन वीर-वीरांगनाओं की शौर्यपूर्ण गाथाएं भारत की पवित्र भूमि पर गूंजती हैं और उनका शौर्यपूर्ण जीवन प्रत्येक भारतीय के जीवन को मार्गदर्शित करता है। ऐसी ही 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की एक वीरांगना हैं रानी अवंतीबाई लोधी जिनके योगदान को इतिहासकारों ने कोई अहम स्थान न देकर नाइंसाफी की है। आज देश में बहुत से लोग हैं, जो इनके बारे में जानते भी नहीं हैं। लेकिन इनका योगदान भी 1857 के स्वाधीनता संग्राम की अग्रणी नेता वीरांगना झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से कम नहीं हैं। 

वीरांगना अवंतीबाई जितने सम्मान की हकदार थीं वास्तव में उनको उतना सम्मान नहीं मिला। वीरांगना अवंतीबाई लोधी के अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष एवं बलिदान से संबंधित ऐतिहासिक जानकारी समकालीन सरकारी पत्राचार, कागजातों व जिला गजेटियरों में बिखरी पड़ी है। इन ऐतिहासिक समकालीन सरकारी पत्राचार, कागजातों व जिला गजेटियरों का संकलन और ऐतिहासिक विवेचन समय की मांग है। देश की केंद्र और मध्यप्रदेश सरकार को इस ऐतिहासिक जानकारी और सामग्री का संकलन करना चाहिए और उसकी व्याख्या आज के इतिहासकारों से करानी चाहिए।

रानी अवंतीबाई लोधी का जन्म 16 अगस्त 1831 में हुआ था। रानी अवंतीबाई के पिता ‘राव जुझार सिंह’ सिवनी जिले के मनकेहड़ी के जागीरदार थे। रानी अवंतीबाई का विवाह कम उम्र में ही रामगढ़ के राजा विक्रमाजीत के साथ कर दिया गया था। विक्रमाजीत बहुत ही योग्य और कुशल शासक थे किन्तु अत्यधिक धार्मिक प्रवृत्ति के होने के कारण वह राजकाज में कम सत्संग एवं धार्मिक कार्यों में अधिक समय देते थे। इनके दो पुत्र हुए शेर सिंह और अमान सिंह।

कम उम्र में ही पति स्वर्गवासी हुए तो राज्य का कार्यभार रानी अवंती बाई के कंधों पर आ गया। अवंती बाई द्वारा राजकाज करने का समाचार पाकर गोरी सरकार ने 13 सितंबर 1851 को रामगढ़ राज्य को कोर्ट ऑफ वाइस के अधीन कर राज्य प्रबंध के लिए एक तहसीलदार नियुक्त कर दिया।

1857 की क्रांति में ब्रिटिशो के खिलाफ साहस भरे अंदाज़ से लड़ने और ब्रिटिशो की नाक में दम कर देने के लिए उन्हें याद किया जाता है। कहा जाता है की वीरांगना अवंतीबाई लोधी 1857 के स्वाधीनता संग्राम के नेताओं में अत्यधिक योग्य थीं कहा जाए तो वीरांगना अवंतीबाई लोधी का योगदान भी उतना ही है जितना 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में वीरांगना झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का था।

रानी ने आसपास के सभी राजाओं और प्रमुख जमींदारों को चिट्ठी के साथ कांच की चूड़ियां भिजवाईं

स्वतंत्रता आन्दोलन में सहयोग जुटाने हेतु रानी अवन्तीबाई ने एक अद्भुत उपाय आजमाया | उन्होंने आसपास के सभी राजाओं और प्रमुख जमींदारों को पत्र के रूप में क्रान्ति का सन्देश भेजा, किन्तु साथ  ही कांच की चूड़ियां भी भिजवाईं | उस चिट्ठी में लिखा था- ‘‘देश की रक्षा करने के लिए या तो कमर कसो या चूड़ी पहनकर घर में बैठो तुम्हें धर्म ईमान की सौगंध जो इस कागज का सही पता बैरी को दो।' 

देश भक्त राजाओं और जमींदारों की अस्मिता और स्वाभिमान को ललकारने वाले इस आव्हान का जबरदस्त असर हुआ और रानी के साहस और शौर्य की सराहना करते हुए बुंदेलखंड के अधिकाँश राजाओं ने  उनकी योजनानुसार अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का झंडा खड़ा कर दिया। जगह-जगह गुप्त सभाएं हुईं, सर्वत्र क्रान्ति की ज्वाला फैल गई। रानी ने अपने राज्य से कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अधिकारियों को भगा दिया और राज्य एवं क्रान्ति की बागडोर अपने हाथों में ले ली। 

महारानी अवंतीबाई लोधी ने सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अग्रेंजो से खुलकर लोहा लिया था और अंत में भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने जीवन की आहुति दे दी थी। 20 मार्च 1858 को इस वीरांगना ने रानी दुर्गावती का अनुकरण करते हुए युध्द लडते हुए अपने आप को चारो तरफ से घिरता देख स्वयं तलवार भोंक कर देश के लिए बलिदान दे दिया।

जब रानी वीरांगना अवंतीबाई अपनी मृत्युशैया पर थीं तो इस वीरांगना ने अंग्रेज अफसर को अपना बयान देते हुए कहा कि ‘‘ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को मैंने ही विद्रोह के लिए उकसाया, भड़काया था उनकी प्रजा बिलकुल निर्दोष है।' ऐसा कर वीरांगना अवंतीबाई लोधी ने हजारों लोगों को फांसी और अंग्रेजों के अमानवीय व्यवहार से बचा लिया। मरते-मरते ऐसा कर वीरांगना अवंतीबाई लोधी ने अपनी वीरता की एक और मिसाल पेश की। 

धन्य है वह वीरांगना जिसने एक अद्वितीय उदहारण प्रस्तुत कर 1857 के भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में 20 मार्च 1858 को अपने प्राणों की आहुति दे दी। ऐसी वीरांगना का देश की सभी नारियों और पुरुषों को स्मरण करना चाहिए और उनसे सीख लेकर नारियों को विपरीत परिस्थितियों में जज्बे के साथ खड़ा रहना चाहिए और जरूरत पड़े तो अपनी आत्मरक्षा अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए वीरांगना का रूप भी धारण करना चाहिए।

दुर्भाग्य से आज ऐसी आर्य वीरांगना का बलिदान और जन्मदिवस उनकी जाति (लोधी) के ही कार्यक्रम बनकर रह गए हैं। वीरांगना अवंतीबाई किसी जाति विशेष के उत्थान के नहीं लड़ी थीं बल्कि वो तो अंग्रेजों से अपने देश की स्वतंत्रता और हक के लिए लड़ी थीं। 

निःसंदेह वीरांगना अवंतीबाई का व्यक्तिगत जीवन जितना पवित्र, संघर्षशील तथा निष्कलंक था, उनकी मृत्यु (बलिदान) भी उतनी ही वीरोचित थी। धन्य है वह वीरांगना जिसने एक अद्वितीय उदहारण प्रस्तुत कर 1857 के भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में 20 मार्च 1858 को अपने प्राणों की आहुति दे दी। 20 मार्च 2019 को ऐसी आर्य वीरांगना के 161 वें बलिदान दिवस पर उनको शत्-शत् नमन् और श्रद्धांजलि।

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