बाबा साहेब से बोधिसत्व और महात्मा से गांधी होने की यात्रा - प्रवीण गुगनानी

हिन्दू समाहित जाति व्यवस्था को लेकर बोधिसत्व बाबा साहेब का जिस प्रकार का मुखर विरोध रहा वह किसी से छुपा नहीं है और यह विरोध उनकें द्वारा एक दीर्घ रचना संसार के रूप में प्रकट हुआ है. जाति व्यवस्था को ही लेकर एवं अनेक सामाजिक मुद्दों पर महात्मा गांधी से उनका विरोध भी सर्व विदित है. किन्तु एक वाक्य है उनकें 1916 में लिखे शोध निबंध का जो न केवल उनकें कृतित्व का बोधवाक्य था अपितु जाति व्यवस्था के प्रति उनकें विरोध के पीछे छिपे रचनात्मक, सकारात्मक और विचारात्मक स्वरूप को आमूल प्रकट करता है – जाति व्यवस्था पर लिखे इस शोध निबंध में उन्होंने लिखा था –“समूची दुनिया का इतिहास वर्गीय समाजों का इतिहास है और भारत भी इसका अपवाद नहीं है”.इस वाक्य में भारतीय समाज में व्यवस्था में बाबा साहेब का विश्वास व सुधार की संभावनाएं व प्रतिज्ञा स्पष्ट प्रतीत होती है.

स्वतंत्रता पूर्व और स्वातंत्र्योत्तर भारत के पिछले लगभग आठ दशकों के राजनैतिक, सामाजिक और शैक्षणिक वातावरण को दो व्यक्तियों ने सर्वाधिक प्रभावित किया है. पहले महात्मा गांधी जिन्हें भारतीय जनमानस बलात होकर महात्मा कहे बिना व्यक्त नहीं कर पाता है और दूजे बाबा साहेब अम्बेडकर जिन्हें बोधिसत्व कहे बिना उन्हें पूर्णतः प्रकट ही नहीं किया जा सकता ! यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि बाबा साहेब और सुभाषचंद्र बोस के प्रति गांधी जी का व्यवहार उनकें महात्मन भाव को कमतर कर रहा था; वहीँ समस्त पीडाओं, उपेक्षाओं और अलगाव के बाद भी बाबा साहेब का देश प्रेम उन्हें बाबा साहेब से बोधिसत्व की ओर अग्रसर कर रहा था. महात्मा गांधी को वैचारिक रूप में और कृतित्व रूप में प्रकट करते समय कांग्रेस का उल्लेख आवश्यक हो जाता है. यह भी कहा जा सकता है कि महात्मा गांधी के कृति रूप में आधा योगदान संस्थागत रूप से कांग्रेस जन्य रहा है. यद्दपि यह भी कहा जा सकता है कि कांग्रेस महात्मा गांधी के ही कारण सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही थी तथापि यह भी रेखांकित करनें योग्य है कि कांग्रेस और गांधी कई अवसरों पर परस्पर आत्मसात नहीं हो पा रहे थे एवं उन दोनों के वैचारिक दृष्टिकोण बहुधा गतिरोध को जन्म दे रहे थे. यह भी उल्लेखनीय है कि कांग्रेस व महात्मा गांधी के गतिरोधों के केंद्र में कई बार शहीद भगतसिंह व अन्य शहीद क्रांतिकारियों के विषय भी रहे; और इन विषयों में गांधी का बढ़त बना लेना देश के लिए आजन्म पीड़ा का एक बड़ा कारण बना रहेगा. गाँधी जी के संदर्भ इस जैसे अनेकों विषय हैं जिन्हें यहा लिखना प्रासंगिक तो है किंतु स्थान,विषय व समय की दृष्टि से उचित नहीं है, अतः संकेत मात्र से मर्म को समझकर इस विषय को यहां समाप्त कर महात्मा जी व बाबा साहब की मूल बात ही करते हैं.

बहुत से विषयों में एक ध्रुव पर जहाँ कांग्रेस और गांधी के परस्पर गतिरोधों से राष्ट्रवाद की भावना आहत होती थी वही दुसरे ध्रुव पर महात्मा गांधी और बाबा साहेब की वैचारिक भिन्नताएं देश में उहापोह की स्थिति निर्मित करती रहती थी. महात्मा गांधी के व्यक्तित्व में जहां कांग्रेस एक अभिन्न स्थान और योगदान रखती थी वहीं दूसरी ओर बाबा साहेब के व्यक्तिव को ऐसी किसी संस्था का मंच उपलब्ध नहीं था वे स्वयं एक संस्था और संस्था प्रमुख के रूप में अपने संघर्षों को सफलता दिलाते रहे थे. प्रत्येक सार्वजनिक अवसर,प्रसंग व विषय में गांधी की अपेक्षा अम्बेडकर के पास राजनैतिक अवसरों का अभाव होता था. गांधी कांग्रेस प्रतिष्ठान के मंच के सर्वमान्य प्रतिमान थे वहीं अम्बेडकर अति तीक्ष्ण और व्यापक संघर्षों से दो चार होनें के बाद ही किसी मंच पर बमुश्किल अपनी जगह बना पानें में सफल हो पाते थे. गांधीजी कांग्रेस के साथ साथ धर्म नाम की संस्था का भी बड़ा ही सुन्दर और नेतृत्व जन्य उपयोग सहजता, सफलता और चपलता से कर लेते थे. वहीं दुसरी ओर मंच और समर्थकों की बड़ी संख्या से विहीन बाबा साहेब के पास न तो कोई बड़ा मंच उपलब्ध था और न ही वे धर्म नाम की संस्था का लाभ उठा पानें की स्थिति में थे; अपितु वे तो धर्म के राजनीति में हस्तक्षेप के विरूद्ध बिगुल बजाये हुए थे. इस प्रकार देश के सामान्य धर्म भीरु जन मानस में वे धर्म निषेध की बात करके अपनी स्थिति असहज बना बैठे थे. बाबासाहेब धर्म के विरुद्ध नहीं थे किन्तु भारत में हिन्दुवाद के नाम पर चल रहे जातीय कुचक्र के कारण वे राजनीति, शासन और प्रशासन में धर्म निषेध के कट्टर पक्षधर हो गए थे. सम्पूर्ण राष्ट्र हेतु स्मरणीय तथ्य रहना चाहिए कि सामाजिक न्याय की बाबा साहब की अवधारणा में हिन्दू धर्म का विरोध कतई नहीं था बल्कि हिन्दू समाज के जातिय कुचक्र से बाहर निकल आनें का मूल तत्व था. अम्बेडकर जी का यह मूल लक्ष्य महात्मा गांधी की लोकप्रियता और इन दोनों नेताओं के मध्य के मतभेदों में एक अनावश्यक वितंडा भर बनकर नहीं उभरा तो इसका कारण केवल बाबा साहेब का तेजस अंतस और सहनशील स्वभाव रहा. यदि बाबासाहब महात्मा गांधी के विरुद्ध तनिक भी अतिरिक्त मुखर हो गए होते तो संभवतः हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था में वे उस समय ही एक बड़ा परवर्तन ला चुके होते. पूना पैक्ट इन दोनों नेताओं के बीच एक एतिहासिक प्रसंग है जिससे इन दोनों नेताओं के कृति रूप प्राकट्य का एक महत्वपूर्ण भाग माना जाना चाहिए. जाति व्यवस्था को लेकर इस पैक्ट द्वारा जो आरक्षण की व्यवस्था की गई उसे स्वतंत्र भारत के इतिहास की एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यवस्थाओं के रूप में भी रेखांकित किया जा सकता है. इस पैक्ट में सदियों से चली आ रही जाति व्यवस्था को एक राजनैतिक रूप दिया गया. इस पैक्ट के माध्यम से ही मानसिकता के स्तर पर भारत अपनी नागरिक ईकाई से एक विशिष्ट अपेक्षा करता दृश्यगत हुआ. यद्दपि इस भारतीय नागरिकों से एक पैक्ट के माध्यम से आचरण व व्यवहारगत परिवर्तन की अपेक्षा ही दोषपूर्ण थी. इस पूना समझौते के पूर्व और पश्चात में महात्मा गांधी और बाबा साहेब के मध्य जिस प्रकार का वैचारिक द्वंद प्रकट हुआ वह भी अनपेक्षित नहीं था. विद्यार्थी जीवन के पश्चात संभवतः इस सामाजिक द्वंद ने बाबा साहेब को सर्वाधिक प्रभावित किया होगा. यह समझौता दो व्यक्ति डा. भीमराव और मोहनदास करमचंद गांधी के मध्य नहीं हो रहा था अपितु एक समाज के दो ध्रुवों के मध्य हो रहा था. इस समझौते में मृदुता का अभाव स्वातंत्र्योत्तर भारत में सामाजिक समरसता के ह्रास का या विकास यात्रा की बाधा का एक बड़ा कारण बना. सामाजिक मृदुता का यह ह्रास भारत को पीढ़ियों तक कष्ट देता रहा है,और भारत की समाजिक समरसता चोटिल होती रही है. पूना पैक्ट की पीठ तक की यात्रा तक में बाबा साहेब भारत के एक बड़े दलित राजनैतिक केंद्र और संस्था के रूप में स्थापित हो चुके थे. ब्रिटिशर्स और गांधी दोनों के ही प्रति जातिगत व्यवस्थाओं में परिवर्तन को लेकर उदासीनता को लेकर बाबासाहब खिन्नता प्रकट करते थे. दलितों और अछूतों की स्वतंत्र राजनैतिक परिभाषा और पहचान को लेकर वे संघर्ष को तीक्ष्ण कर रहे थे,तब उस दौर में बाबा साहेब ने गांधी के प्रति इस नाराजगी भी प्रकट किया था कि वे दलितों को हरिजन कहनें के पीछे जिस प्रकार का दैन्य भाव प्रकट करते हैं उसमें दलित देश में एक करुणा व दया मात्र की वस्तु बन कर रह गएँ हैं. देश भर में दलितों से आत्मनिर्भरता और आत्म निर्णय के आव्हानों वाले अभियानों को सफल नेतृत्व देनें के कारण अंततः वे एक बड़े दलित नेता के रूप में स्थापित हुए और 1931 के दुसरे गोलमेज सम्मेलन में लंदन आमंत्रित किये गए. इस गोलमेज में उन्होंने दलितों, अछूतों को पृथक निर्वाचन अधिकार देनें के लिए पुरजोर स्वर दिया और वहीं महात्मा गांधी धर्म और जाति के आधार पर निर्वाचन अधिकार दिए जानें को लेकर आशंका प्रकट कर रहे थे. अंततः 1932 में अंग्रेजों में दलितों को पृथक निर्वाचिका दे ही दी और इसके विरोध में महात्मा गांधी के पुणे की यरवदा जेल में किये आमरण अनशन नें इन दोनों नेताओं के बीच एक गहरी लकीर खींच दी थी. दलितों को पृथक निर्वाचिका देनें के पीछे के ब्रिटिश मंतव्य को जितना गांधी जी ने समझा था उससे कुछ अधिक ही बाबासाहेब भी पूर्वाभास लगा चुके थे किंतु जिन परिस्थितयों में ला खड़े कर दिए गए थे उसमें उनकी तात्कालिक भूमिका से अच्छी कोई अन्य भूमिका नहीं हो सकती थी. गांधी के अनशन को लेकर जिस प्रकार का वातावरण देश भर में बना उससे यह लगनें लगा कि महात्मा गांधी के साथ यरवदा में भूख से कुछ अनहोनी हो जायेगी. सामान्य जनमानस में गांधी के प्रति सुहानुभूति और दलितों के प्रति रोष का भाव जन्मा और अनहोनी की स्थिति में दलितों की सुरक्षा व सामाजिक वातावरण खतरे में दिखनें लगा. इस महत्वपूर्ण राजनैतिक घटनाक्रम में बाबा साहेब नें गांधी जी के और दलित समाज के प्राणों के भय के अतिशय दबाव में पृथक निर्वाचिका की मांग वापिस ले ली और तब महात्मा गांधी ने अपना अनशन वापिस ले लिया. गोलमेज,लंदन में इन दोनों नेताओं के मध्य खिंची लकीर यरवदा की घटना से हिन्दू समाज में एक लकीर के रूप में परिवर्तित हो जायेगी ऐसा भय उस समय के बुद्धिजीवियों और समाज शास्त्रियों ने आभास किया. समाज में भेद की लकीर पड़ जाने की इस चिंता को उस समय के बड़े नेताओं द्वारा आश्चर्यजनक रूप से अनदेखा किया गया था. यद्दपि इस घटना के परिणाम स्वरूप अछूतों को सीटों के आरक्षण की बात स्वीकार कर ली गई थी तथापि सामाजिक समरसता के स्तर पर इस घटना ने गहरी क्षति अंकित कर दी थी. यह क्षति ही बाद में जाकर बाबासाहेब के बौद्ध धर्म ग्रहण करनें का कारण बनी और बाबा साहेब ने कहा – मैं “हिन्दू धर्म छोड़ दूंगा. हिन्दू समाज में आई विकृतियों से मेरा विरोध है. किन्तु मैं हिन्दुस्थान से प्रेम करता हूँ. मैं जिऊंगा तो हिन्दुस्थान के लिए और मरूँगा तो हिन्दुस्थान के लिए”.

इस क्रम में उन्होंने जो कहा, और कहनें के अनुरूप ही उनका कृति रूप प्रकट भी हुआ; (उसे स्वतंत्र भारत की, हिंदुत्व की और आनें वाले युगों के लिए हिन्दुस्थान के इतिहास को सुरक्षित रखनें वाले तथ्य के रूप में मान्यता देनें में किसी को भी संकोच नहीं हो सकता) . उन्होंने आगे कहा –“मैं हिन्दू धर्म छोड़ दूंगा किन्तु ऐसे धर्म को ही अंगीकार करूँगा, जो हिन्दुस्थान की धरती पर ही जन्मा हो. मुझे केवल ऐसा धर्म ही स्वीकार होगा जो विदेशों से आयात किया हुआ न हो.

संघर्ष के उन दिनों में जब महात्मा गांधी देश में सर्वाधिक स्वीकार्य थे और बाबा साहेब से उनकें मतभेद सार्वजनिक थे तब डा. भीमराव आंबेडकर देश में हिंदुत्व और जातिवाद के नाम पर पनप गई सामाजिक विषमता और सामाजिक असुरक्षा के विरुद्ध संघर्ष को आगे बढाते हुए स्पष्टता से कह रहे थे कि उनका सामाजिक न्याय से आशय सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक समानता और सामाजिक स्वतंत्रता से है और सामाजिक सुरक्षा से आशय प्राण, परिजन, आजीविका और संपत्ति की सुरक्षा से है. वे केवल संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का निष्कंटक प्रवाह चाहते थे. बाबा साहेब की बड़ी ही स्पष्ट भाषा और अभिव्यक्ति के बाद भी संकीर्ण राजनैतिक मानसिकता के चलते कांग्रेस व वामपंथ के कई नेताओं ने उनकी भूमिका को संदिग्ध बनानें और इतर दलित समाज में उनकी स्वीकार्यता कम करनें के लिए बदनाम किया. कांग्रेस और वामपंथियों ने स्वतंत्रता पूर्व और प्रारम्भिक स्वातंत्र्योत्तर दौर में बाबा साहेब की छवि बिगाड़ने का कोई अवसर न छोड़ा. डा. अम्बेडकर की सामाजिक न्याय की अवधारणा को कांग्रेस व गांधी ने वर्ग संघर्ष का नाम देनें का जो साशय प्रयास किया वह दुष्प्रयास बाद के दशकों में देश की नसों में विष की भांति प्रवाहित हुआ.

महाड़ आन्दोलन के पूर्व और बाद के बाबा साहेब में जो वैचारिक द्वंद रहा उसे देश के प्रतिष्ठित और परिपक्व नेता एक समरस दिशा दे सकते थे किन्तु इस ओर महात्मा गांधी सहित किसी ने भी उनकी धर्मांतरण की धमकी तक और उसके बाद भी कोई प्रयास नहीं किया था. निस्संदेह अम्बेडकर जी की धमकी हिन्दुओं के सामाजिक और धार्मिक नेतृत्व को सामाजिक सुधारों के प्रति जागृत करनें के सकारात्मक पुट के साथ थी. हिन्दुओं की वर्ण व्यवस्था को लेकर निर्धन, अधिकार हीन, अपमान भाव से भरे दलित समाज में निषेध का भाव होना स्वाभाविक ही था जिसे महात्मा गांधी नें पूर्व जन्म के फल और प्रारब्ध से जुड़े होनें का तर्क दिया. दलितों की स्थिति को पूर्व जन्मों का परिणाम व प्रारब्ध बताना गांधी की एतिहासिक गलती रही. गांधी का यही तर्क डा. भीमराव अम्बेडकर की सामाजिक न्याय की अवधारणा में कांटे की तरह चुभा और दशक दर दशक किस्से और कथाओं के कांटेदार मार्ग से होता हुआ दलित चिंतन का और सामाजिक न्याय अवधारणा का एक अनिवार्य,कटुक व हानिकारक कथन बन गया. हिन्दू धर्म के अन्यायी होनें और भेदभाव जन्य होनें की बात समाज में एक ध्रुव बनी और दूसरा ध्रुव समाज के एक अंश को अछूत कहनें वालों का बना. 1924 में “बहिष्कृत हितकारिणी सभा के जन्म”, 1927 में “बहिष्कृत भारत” पत्रिका का प्रारम्भ, 1927 का ही महाड़ सत्यागृह, 1927 में ही मनुस्मृति को जलाना, 1930 में नासिक के मंदिर में अछूतों के प्रवेश के संघर्ष, 1930 में ही लेबर पार्टी की स्थापना, और अंततः 1935 में येवला जिले में हिन्दू धर्म में नहीं मरनें तक की घोषणा के इन सम्पूर्ण संघर्षों में बाबा साहेब के संदेशों की तत्कालीन भारतीय राजनीति ने उपेक्षा की. इन संघर्षों में समाहित पीड़ा और मात्र समरसता भर की आशा नें अति संवेदनशील कहे जाने वाले महात्मा गांधी को उस दौर में प्रभावित क्यों नहीं किया यह एक एतिहासिक प्रश्न भी है और महात्मा गांधी के व्यक्तित्व पर एक स्पष्ट आक्षेप भी! नहीं समझना एक विषय था किन्तु गांधी जी द्वारा दलित समाज में जन्म लेनें को पूर्व जन्मों के पापों का प्रतिफल बताना उनकी एक एतिहासिक भूल सिद्ध हुआ. कम्युनिस्टों के साथ एक छोटी सी राजनैतिक यात्रा के बाद वे जिस प्रकार शेड्यूल कास्ट फेडरेशन की स्थापना के निर्णय की ओर बढ़े, एक प्रयोग के रूप में अंग्रेजों की सरकार में श्रम मंत्री बनें वह सब एक संदेश प्रवाही महात्मा के जीवन का संवाद प्रयास ही था जिसे तत्कालीन नेतृत्व ने समझा नहीं. उनकी किताब “स्टेट्स एंड माइनारिटिज” एक सर्वोत्तम राजनैतिक अभिव्यक्ति और सामाजिक संवाद के रूप में प्रसंशा की पात्र तो बनी और एक हद तक कार्यरूप में भी स्वीकार्य हुई किन्तु इस किताब से सतह के नीचें की जिस समरसता के वातावरण की आशा उन्होंने की थी वह अधूरी ही रही. कहना आवश्यक ही है कि यदि महात्मा गांधी ने उस दौर में इन संदेशों के प्रति ऊर्जा संवेदी व स्नेही रहे होते तो आज स्वतंत्र भारत का सामाजिक वातावरण कुछ और होता! यह भी कहा जा सकता है कि उस कालखंड में गांधी जी के स्नेही,संवेदनशील व बाबा साहब के मंतव्य को समझने की स्थिति में आने से सामाजिक समरसता जैसे शब्द आज के वातावरण में अप्रासंगिक, अकथनीय और अपरिचित जैसे ही लगते!!

1935 में येवला में हिन्दू धर्म त्यागनें की घोषणा के बाद 21 अक्टू. 1956 को नागपुर में अपनें पांच लाख अनुयाईयों के साथ बोद्ध धर्म ग्रहण करनें तक अर्थात 21 वर्षों के अंतराल तक इस अपनें इस भीषणतम द्वंद को जिस प्रकार बाबा साहेब ने आत्मसात किये रखा वह केवल किसी महात्मा के वश की ही बात थी. आज यह स्पष्तः आभास होता है कि महात्मा गांधी और तत्कालीन अन्य राजनैतिक हस्तियों ने किस प्रकार बाबा साहेब को सप्रयास एकांगी किया था. किन्तु यह भी स्पष्टतः ही आभासित और प्रतीत होता है कि डा. भीमराव अम्बेडकर से बाबा साहेब और बाबा साहेब से बोधिसत्व तक की यात्रा का पाथेय भी यही एतिहासिक उपेक्षा ही थी ! बाबा साहेब के समकालीन और साथी इस बात को स्वीकार करतें हैं कि इतिहास के पन्नों में कितनी ही अन्य घटनाएं अलिखित भी हैं जो बाबा साहेब की आत्मा के बोधिसत्व तक के मार्ग में मील का पत्थर रहीं हैं. ठीक इसी प्रकार कही-अनकही और लिखित अलिखित अनेकों ऎसी घटनाएं हैं जिनसे महात्मा गांधी का महात्मन भाव कम होता गया व महात्मा का लोप होता गया और वे केवल गांधी बचते गए.

बाबासाहेब के साथ नेहरू-गांधी व कांग्रेस के उपेक्षापूर्ण व्यवहार पर प्रवीण गुगनानी जी का शोध पत्र

प्रवीण गुगनानी 

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