राहुल गांधी आरएसएस से नफ़रत कर सकते हैं, लेकिन संघ अपने विरोधियों से भी घृणा नहीं करता - अरुण आनंद



06 अप्रैल 2019 को अंग्रेजी वेव साईट फर्स्ट पोस्ट में प्रकाशित विश्व संवाद केंद्र के मुख्य कार्यकारी निदेशक श्री अरुण आनंद का एक विचार प्रधान आलेख -


यह सर्वविदित है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के मन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रति कोई प्यार नहीं हैं। लेकिन यह कम ही लोग जानते हैं कि आरएसएस, आम धारणा के विपरीत, कांग्रेस पार्टी या उसके अध्यक्ष से नफ़रत नहीं करता । 

आरएसएस राहुल गांधी से नफरत क्यों नहीं करता, इस सवाल का जबाब संघ की विचारधारा, अतीत के रिकॉर्ड और आरएसएस नेतृत्व की विचार प्रक्रिया में निहित है, जो इस पर हुए चौतरफा हमलों के बावजूद, 93- वर्षों के लम्बे अंतराल में विकसित हुई है। 

आरएसएस ने स्वतंत्रता के बाद के दौर में अलग अलग विचारधाराओं के राजनेताओं और राजनैतिक दलों के साथ काम किया है। विडंबना यह है कि वर्तमान कांग्रेस नेतृत्व, आरएसएस के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणियाँ करने की झोंक में अपने स्वयं के इतिहास की अनदेखी कर रहा है, जहां कई मुद्दों पर कई कांग्रेस नेताओं ने आरएसएस के साथ मिलकर काम किया है। 

इनमें सबसे ताजा उदाहरण है अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का आंदोलन। कांग्रेस के ही एक दिग्गज दाऊ दयाल खन्ना ने सबसे पहले उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर में हिंदू जागरण मंच द्वारा आयोजित एक सार्वजनिक सभा में इस आंदोलन को शुरू करने का विचार प्रस्तुत किया था। खन्ना ने तो वस्तुतः न केवल अयोध्या बल्कि मथुरा और काशी (वाराणसी) में भी मंदिरों के पुनर्निर्माण का प्रस्ताव रखा था । 

स्मरणीय है कि खन्ना उत्तर प्रदेश के एक बहुत सम्मानित कांग्रेस नेता थे और चंद्रभानु गुप्ता के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार में कैबिनेट मंत्री भी रहे थे। आंदोलन को गति देने के लिए 1984 में गठित की गई, श्री राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के पहले महासचिव श्री खन्ना ही थे । 

थोड़ा और पीछे जाएं तो पता चलता है कि राम मंदिर आंदोलन की पृष्ठभूमि में 1981में घटित वह घटना थी, जिसमें तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम में बड़ी संख्या में दलितों ने इस्लाम धर्म अपना लिया था। आरएसएस ने हिंदुओं के धर्मांतरण को रोकने के लिए व जागरूकता पैदा करने के लिए एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाया। इस आंदोलन को संचालित करने के लिए “विराट हिंदू समाज” नामक एक संगठन बनाया गया । कांग्रेस के ही वरिष्ठ नेता और 1970 के दशक में इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में पूर्व केंद्रीय मंत्री रहे “करण सिंह” को इसका अध्यक्ष नियुक्त किया गया । “विराट हिंदू समाज” नामक इस संगठन के संगठन मंत्री और कोई नहीं, बल्कि अशोक सिंघल ही थे, जो उस समय दिल्ली आरएसएस के प्रांत प्रचारक थे (प्रचारक अर्थात एक ऐसा स्वयंसेवक - जो आरएसएस में संगठन के लिए पूर्णकालिक काम करते हैं। अविवाहित रहकर संगठनात्मक कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित करते हैं।) 

और जैसा कि सब जानते हैं - बाद में, सिंघल जी ने विश्व हिंदू परिषद में स्थानांतरित होने के बाद राम मंदिर निर्माण आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

यह भी रिकॉर्ड पर है कि “विराट हिंदू समाज” के बैनर तले दिल्ली में एक विराट हिंदू सम्मेलन का आयोजन हुआ, जिसमें 5 लाख से अधिक लोगों ने भाग लिया। इसके कारण संसद में बहस हुई, जहां इस बात पर व्यापक सहमति बनी कि इस तरह के धर्मांतरण समाज के लिए हानिकारक हैं। 

अंत में सबसे मुख्य बात - आरएसएस की विचारधारा के मूल सिद्धांतों में से एक यह है कि समाज के सभी सदस्यों को दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है, एक खंड में वे लोग शामिल हैं जो आरएसएस में शामिल हो चुके हैं और दूसरे खंड में वे शामिल हैं जो अंततः आरएसएस में सम्मिलित होंगे। । तो राहुल गांधी और बाकी कांग्रेस नेतृत्व सहित समाज में कोई भी आरएसएस के लिए दुश्मन नहीं है। 

सितंबर, 2018 में इसे और अधिक स्पष्ट किया गया, जब आरएसएस के एक बहुआयामी कार्यक्रम में वर्तमान सरसंघचालक श्री मोहन भागवत ने समाज के सभी क्षेत्रों के लोगों को संबोधित किया। उनमें से अधिकांश का आरएसएस से कभी कोई सम्बन्ध नहीं रहा था। 

प्रश्नोत्तर सत्र के दौरान जो प्रश्न सामने आए, उनमें से एक था - "यदि आरएसएस का राजनीति से कोई संबंध नहीं है, तो भाजपा में हर बार “संगठन मंत्री” आरएसएस से ही क्यों आते हैं? क्या आरएसएस ने कभी किसी अन्य राजनीतिक दल या संगठन का समर्थन किया है?" 

भागवत जी ने जवाब दिया: "जो कोई भी संघ से संगठन मंत्री मांगता है, संघ उन्हें देता है। अभी तक किसी और ने इसके लिए नहीं कहा है। जब वे कहेंगे, हम इसके बारे में सोचेंगे। यदि (उनका) उद्देश्य अच्छा है, तो हम निश्चित रूप से देंगे। क्योंकि 93 वर्षों के दौरान, हमने किसी भी पार्टी का समर्थन नहीं किया है, किन्तु हमने नीति का समर्थन किया है। हमारे द्वारा नीति का समर्थन करने से यह लाभ होता है कि जैसे-जैसे हमारी ताकत बढ़ती है, राजनीतिक दलों को भी लाभ मिलता है। जो लाभ उठा सकते हैं, लाभ ले लेते हैं। और जो लोग लाभ नहीं लेना चाहते, पीछे रह जाते हैं। आपातकाल के दौरान, हमारी नीति थी आपातकाल का विरोध करना, लेकिन हमने यह नहीं सोचा था कि इसका लाभ (भारतीय) जनसंघ को ही मिलना चाहिए। बाबू जगजीवन राम, एसएम जोशी, एनजी गोरे जैसे लोग भी थे, CPM के गोपालन जी भी थे, सभी को लाभ मिला। स्वयंसेवकों ने सभी के लिए काम किया। केवल एक चुनाव ऐसा था, जिसमें हम राम मंदिर की नीति का समर्थन कर रहे थे और केवल भाजपा ही इसके पक्ष में थी, इसलिए लाभ भी भाजपा ने ही प्राप्त किया। भाजपा के साथ गठबंधन करने वालों को भी लाभ मिला। अतः हम नीति का समर्थन करते हैं। हमने किसी राजनीतिक पार्टी के लिए काम नहीं किया है और हम ऐसा करेंगे भी नहीं । अब हमारे काम के कारण, अगर वे लाभान्वित होते हैं, तो यह उनके सोचने का काम है कि वे इसका अधिकतम लाभ कैसे उठा सकते हैं। राजनीति वे करते हैं, हम नहीं। ” 

जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, श्री भागवत का जवाब जहाँ राजनीति, राजनैतिक दलों और चुनावों पर आरएसएस के रुख की स्पष्ट रूप से व्याख्या करता है, वही इससे यह भी स्पष्ट होता है कि आरएसएस को नापसंद करने वाले इससे घृणा क्यों करते हैं, साथ ही यह भी कि आरएसएस अपने से घृणा करने वालों से भी नफरत क्यों नहीं करता। 

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें