लोक प्रियता बनाम मिथ्या निंदा अभियान – सांसद के पी यादव - दिवाकर शर्मा

गुना संसदीय क्षेत्र का अशोकनगर बहुचर्चित नगर है । एक ऐसा नगर, जहाँ के विषय में किवदंती है कि जो भी मुख्यमंत्री यहाँ आता है, तो फिर वह मुख्यमंत्री नहीं रहता। अब इस लोक धारणा का कारण क्या है, कोई नहीं जानता, किन्तु राजनेताओं में यह अंधविश्वास गहरे तक व्याप्त है । एक बात और भी है कि 2003 में गुना से अलग हुए इस जिले के तीनों विधानसभा क्षेत्रों का कोई विधायक अमूमन मंत्री नहीं बना । महज आठ महीने के लिए भाजपा के गोपीलाल जाटव मंत्रीमंडल में लिए भी गए, तो वह शाढोरा विधानसभा क्षेत्र ही अस्तित्व शून्य हो गई और वे गोपीलाल भी गुना के निवासी थे, स्थानीय नहीं । वर्तमान में तीन कांग्रेस विधायक हैं, लेकिन एक को भी मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिली। 2008 में तीनों विधानसभा क्षेत्रों से भाजपा के विधायक थे लेकिन उनमें से किसी को भी मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया था। इससे पहले कई सरकारें बनीं और चलीं गईं, लेकिन जिले को मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिली। सीधी सी बात है कि इस सिंचित और समृद्ध क्षेत्र से कोई स्थानीय नेतृत्व ही विकसित नहीं हो पाया। और यहाँ विकास की वह गाथा नहीं लिखी गई, जिसका यह क्षेत्र हकदार था । 

बात यदि लोकसभा क्षेत्र की करें तो गुना सीट हमेशा से देश में चर्चित रही है। सिंधिया परिवार की तीन पीढ़ियों ने इसे बारी-बारी से जीता, उनके विश्वस्त कालूखेड़ा भी यहां से चुने गए। एक बार स्वतंत्रता संग्राम सेनानी आचार्य जेबी कृपलानी भी इस सीट से चुने गए थे। लेकिन इन सब के बीच भी वही बात रही कि समूचे संसदीय क्षेत्र का निवासी कोई भी व्यक्ति यहां से चुनकर संसद में नहीं पहुंचा। पहली बार यह सौभाग्य मिला वर्तमान सांसद डॉ. केपी यादव को। वह हाल के चुनावों में विजयी हुए और अशोकनगर के माथे पर लगा कलंक का टीका मिटा । लेकिन यही बात कई राजनेताओं को हजम नहीं हो रही है। आईये हालिया घटना चक्र पर एक नजर डालते हैं । 

विगत 26 अगस्त को भाजपा ने जिला प्रशासन के विरुद्ध एक धरना प्रदर्शन आयोजित किया था। इसकी तात्कालिक वजह ग्राम पंचायतों का परिसीमन किंतु पीछे छुपा हुआ कारण पिछले आठ महीनों में सरकार बदलने के बाद बदला प्रशासन के काम करने का रवैया रहा। खैर, दोपहर 12 बजे गांधी पार्क से शुरू हुआ प्रदर्शन शांति पूर्वक चल रहा था, लेकिन बात एकाएक बिगड़ गई, जब सांसद के नेतृत्व में ज्ञापन सौंपने गए प्रदर्शनकारियों के सामने कलेक्टर डॉ. मंजू शर्मा नहीं आईं। उनके अधीनस्थ ज्ञापन लेने आए तो सांसद नाराज होकर कलेक्ट्रेट भवन के सामने ही समर्थकों के साथ धरने पर बैठ गए। करीब दो घंटे तक यह सब कुछ चला, युवामोर्चा के कार्यकर्ताओं ने अर्धनग्न होकर नारेबाजी की। महिला कार्यकर्ताओं ने कमलनाथ सरकार को निशाना बनाकर चूड़ियां उछाली। मीडिया से बातचीत के दौरान सांसद ने कहा कि हम यहां धरने पर बैठे हैं लेकिन जो कलेक्टर नहीं आईं, वह पूर्व सांसद के चरण-चुम्बन करने गांव-गांव पहुंच जाती थीं। उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि देश में राजशाही नहीं, लोकतंत्र है । विगत सांसद महोदय जनता के निर्णय को पचा नहीं पा रहे हैं, इसलिए उनके इशारे पर ही परिसीमन किया गया है और जनता की आपत्तियों को सुना ही नहीं गया । बहरहाल, दो घंटे चले इस प्रदर्शन के बाद सांसद के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल कलेक्ट्रेट भवन के अंदर पहुंचा और कलेक्टर को 7 सूत्रीय ज्ञापन सौंपा। 

घटना दोपहर 2 बजे की है, शाम होते-होते इस पर प्रतिक्रिया आना शुरू हो गईं थीं। यह प्रतिक्रिया न तो प्रशासन की ओर से आईं थीं और न ही भाजपा या कांग्रेस के किसी नेता ने कोई बयान दिया था। शुरूआत की मीडिया के एक धड़े ने व्हाट्सएप ग्रुपों पर । बस फिर क्या था ? कुछ पत्रकार तो थे ही इस तलाश में, कि सांसद कोई गलती करें और वे वावेला मचाएं । महिला कलेक्टर के लिए किये गए शब्द प्रयोग को आधार बनाकर न्यूज चैनलों और कुछ समाचार पत्रों में बार-बार सांसद की टिप्पणी को दोहराया जाने लगा । माहौल इतना गरमाया कि सकल ब्राह्मण समाज के बैनर तले कुछ लोगों ने (अधिकाँश सिंधिया समर्थक) सांसद की टिप्पणी के विरोध में ज्ञापन दिया । दरअसल, शहर में कांग्रेस के एक जनप्रतिनिधि की सोशल मीडिया पर फ़ोलोअर संख्या अच्छी खासी है । किन्तु ये महाशय पिछले कई वर्षों से शहर में मेहनत कर वह लोकप्रियता हासिल नहीं कर पाए जो डॉ. केपी यादव ने लोकसभा चुनाव में अप्रत्याशित जीत दर्ज करने से कर ली। इसलिए इस पूरे मामले की जड़ में सांसद की बढ़ती लोकप्रियता के प्रति ईर्ष्या का भाव ही अधिक है । जबकि सांसद अपने सौम्य और मृदुभाषी व्यक्तित्व के लिए जाने जाते हैं। इसका उदाहरण चुनाव प्रचार और जीत के बाद निकाली गई आशीर्वाद यात्राओं में देखने को मिला है। सांसद ने जीत के बाद जिला पंचायत अध्यक्ष श्रीमती बाई साहब यादव के घर पहुंचकर उनके पैरों पर मत्था टेका था, जबकि जिपं अध्यक्ष के पुत्रों ने केपी का टिकिट घोषित होने की अटकलों के बीच असंतोष जताते हुए पार्टी छोड़ने की धमकी तक दे डाली थी। इस वाकये से समझा जा सकता है कि सांसद दंभी और बड़बोले कतई नहीं है। 

यह सवाल पार्श्व में चला गया कि जब देश की फ्रंटलाइन पॉलिटिक्स का हिस्सा माने जाने वाले सांसद के नेतृत्व में कोई प्रदर्शन हुआ, तो ज्ञापन लेने कलेक्टर बाहर क्यों नहीं आईं ? क्या यह कलेक्टर की गलती नहीं थी ? कोई सामान्य सी बुद्धि वाला इंसान भी बता सकता है सांसद के बयान में 'चरण चुम्बन' वाला हिस्सा एक लोकोक्ति के तौर पर था, जिसका अर्थ होता है चापलूसी, इसमें कुछ भी अमर्यादित नहीं है। लेकिन मामला चूंकि सिंधिया महाराज से जुड़ा था, अतः तिल का ताड़ और राई का पहाड़ बना दिया गया। 

अब देखना है कि अशोकनगर की जनता को हाल ही में हटा कलंक का टीका – “स्थानीय नेतृत्व का अभाव” – रास आता है या नहीं ? समर्थक और विरोधी तो हर जनप्रतिनिधि के होते हैं

दिवाकर शर्मा
संपादक - क्रांतिदूत डॉट इन 

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