आंइस्टीन को चुनौती देने वाले भारतीय गणितज्ञ की दुर्दशा !



9 मई 2015 को बीबीसी ने एक आलेख प्रकाशित किया, शीर्षक था - आंइस्टीन को चुनौती देने वाला भारतीय गणितज्ञ बदहाल ! 

प्रस्तुत चित्र उसी बदहाल गणितज्ञ का है, जो पटना के एक अस्पताल में अपनी अंतिम साँसे ले रहा है | वह भी कुछ अनाम/गुमनाम लोगों के सहारे जो इस अद्भुत इंसान के भोजन, उनके रहने और दवाई आदि का प्रबंध किए हुए हैं। 

आखिर कौन है यह इंसान ? अगर पूरा आलेख पढ़ने का समय देंगे तो विधि के अद्भुत विधान पर अचंभित होंगे और हमारे तंत्र पर शर्मिंदा भी | क्या ऐसा भी हो सकता है ? 

बेड पर लेटे इस शख्स का नाम है डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह । 2 अप्रैल 1946 को बिहार के गाँव बसंतपुर जिला भोजपुर में जन्मे वशिष्ठ जी के पिता का नाम लाल बहादुर सिंह तथा माँ का नाम लहसो देवी है। पिता पेशे से सिपाही थे और पांच भाई-बहनों के परिवार में आर्थिक तंगी हमेशा डेरा जमाए रहती थी, सो प्रारंभिक पढ़ाई गाँव के ही प्राथमिक विद्यालय में शुरू हुई। आगे की पढाई नेतरहाट में हुई, जहाँ सन 1961 में मैट्रिक की परीक्षा में पूरे राज्य में वे अव्वल आए। 

1962 में साइंस कॉलेज, पटना में दाखिल हुए। कॉलेज में वे ग़लत पढ़ाने पर अपने गणित के अध्यापक को टोक देते थे। कॉलेज के प्रिंसिपल को जब पता चला तो उनकी अलग से परीक्षा ली गई जिसमें उन्होंने सारे अकादमिक रिकार्ड तोड़ दिए। और नतीजा यह निकला कि पटना कॉलेज के इतिहास में पहली बार पीजी (स्नातकोत्तर) के लिए विशेष परीक्षा का आयोजन किया गया। स्वाभाविक ही मात्र 20 साल की उम्र में पीजी करने वाले पहले भारतीय होने का गौरव इन्हें प्राप्त हुआ। 

वशिष्ठ नारायण सिंह जब पटना साइंस क़ॉलेज में पढ़ते थे तभी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन कैली की नज़र उन पर पड़ी। कैली ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और 1965 में वशिष्ठ नारायण अमरीका चले गए। साल 1969 में उन्होंने कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से पीएचडी की और वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर बन गए। वैज्ञानिक के रूप में नासा में भी काम किया जहाँ वशिष्ठ नारायण सिंह ने आंइस्टीन के सापेक्ष सिद्धांत को चुनौती दी थी। उसी समय एक विचित्र घटना घटी – 

नासा में अपोलो की लांचिंग से पहले, 31 कंप्यूटर कुछ समय के लिए बंद हो गए तो केलकुलेशन मेनुअल करना पड़े। कंप्यूटर ठीक होने पर पाया गया कि उनका और कंप्यूटर्स का कैलकुलेशन एक था। गणित के क्षेत्र में चक्रीय सदिश समष्टि सिद्धांत (Cycle Vector Special Theory) की खोज करने का गौरव भी इनके नाम है। पैसिफिक जर्नल आफ मैथेमेटिक्स में प्रकाशित अपने इस शोधपत्र के कारण ये पूरी दुनियां के महान गणितज्ञों की श्रेणी में शामिल हो गए। 

लेकिन फिर देशभक्ति ने उबाल मारा और देश सेवा की धुन में 1971 में भारत लौट आए। भारत में उन्होंने आईआईटी - कानपुर, टाटा इंस्टीटयूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च - मुम्बई तथा इन्डियन इंस्टीटयूट ऑफ स्टेटिस्टिक्स - कोलकत्ता में अध्यापन का कार्य किया। 

इस बीच 1973 में उनकी शादी वंदना रानी सिंह से हो गई। 1977 में जब इन्हें सिजोफ्रेनियाँ का पहला दौरा पड़ा तो रांची के एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया सिजोफ्रेनिया यानि एक ऐसी मानसिक बीमारी जिसमें व्यक्ति अपना सुध-बुध खो देता है। उसकी सोचने समझाने की शक्ति का ह्रास हो जाता है। इंसान कई तरह की भ्रांतिओं का शिकार हो जाता है। इसे दुनियां की कुछ खतरनाक बिमारियों में से एक माना जाता है। मनोचिकित्सक सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत समस्याओं को इस बीमारी का कारण मानतें हैं। लेकिन यह एक लाइलाज बीमारी नहीं है। 

किन्तु वशिष्ठ नारायण सिंह जैसे लोगों के लिए तो यह लाइलाज ही साबित होती है, क्योंकि वे बीमार होते नहीं हैं, उन्हें बीमार बनाया जाता है । कहा जाता है कि उनके शोधपत्र को चुराकर उनके ही कुछ सहकर्मियों ने अपने नाम से प्रकाशित करवा लिया था । यही सदमा उनकी बीमारी का मूल कारण था । पत्नी ने भी ऐसी विपरीत परिस्थिति में साथ देने के स्थान पर उनसे किनारा कर तलाक ले लिया । समाज ने उन्हें पागल घोषित कर दिया । 

अगस्त 1989 में वो गुम हो गए। चार साल तक कुछ पता नहीं चला। उस दौरान इन्होनें कैसी ज़िन्दगी बिताई होगी इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। लोगों ने निश्चय ही उन्हें भिखारी और पागल समझा होगा। फिर 7 फरवरी 1993 को गाँव के एक युवक की नज़र इन पर पड़ी, वे डोरीगंज (छपरा) में एक झोपड़ीनुमा होटल के बाहर फेंके गए जूठन में खाना तलाश रहे थे । इन्हें पुनः गाँव वापस ले आया गया. फिर छपने-छपाने और सरकारी आश्वासनों का कोरा दौड़ शुरू हुआ जिसकी हवा न जाने कब की फुस्स हो चुकी है। सरकारों को वोट दिलवाने वाले दबंग चाहिए - एक बीमार, जहीन गणितज्ञ भला इनके किस काम का ? जहाँ तक सवाल मीडिया और आमजन का है तो उसे किसी फिल्म स्टार व मॉडल के पागलपन को अपने ज़ेहन में बसाना सुखदायक लगता है - बजाय किसी गणितज्ञ, रंगकर्मी, साहित्यकार या लोक-कलाकार के। 

हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में केवल राजाओं और सामंतों के महल या मकबरे, नेताओं की समाधियाँ ही राष्ट्रीय संपत्ति हो सकतें हैं, एक गणित को कई तरीके से हल करके दिखाने वाले डा. वशिष्ठ नारायण सिंह जैसे जीनियस नहीं? कौन मानता है आज कि सच्ची प्रतिभा का सम्मान करने से स्वयं राष्ट्र भी सम्मानित होता है और अपमान से अपमानित? पूंजीवाद की अंधी दौड़ में इस बात की चिंता कितनो को है ? 

बर्कले यूनिवर्सिटी ने जिन्हें "जीनियसों का जीनियस" कहा, जिन्हें गणित में आर्यभट्ट व रामानुजम का विस्तार माना गया था; वही वशिष्ठ - जिनके चलते पटना विश्वविद्यालय को अपना कानून बदलना पड़ा था। वह वशिष्ठ पागल हो गया, एक चमकीला तारा खाक में मिल गया । 

हिंदुस्तान में मिनिस्टर का कुत्ता बीमार पड़ जाए तो डॉक्टरों की लाइन लग जाती है, मिनिस्टर की भेंस खो जाए तो पूरा पुलिस महकमा भागदौड़ में लग जाता है, लेकिन गणितज्ञ वशिष्ठ जैसे लोगों को समाज पागल बना देता है। 

घर में किताबों से भरे बक्से, दीवारों पर वशिष्ठ बाबू की लिखी हुई बातें, उनकी लिखी कॉपियां वशिष्ठ बाबू के बाद ये सब रद्दी की तरह बिक जाएगा। 

बहुत ही मामूली आदमी के बेटे वशिष्ठ से आखिर क्या गलती हुई कि आज इस सिचुएशन में हैं? 

सिर्फ और सिर्फ यही कि उनके पोर-पोर में देशभक्ति घुसी थी। अमेरिका का बहुत बड़ा ऑफर ठुकरा कर अपनी मातृभूमि (भारत) की सेवा करने चले आए। और भारत माता की छाती पर पहले से बैठे सु (कु) पुत्रों ने उनको पागल बना दिया। 

वे भाई-भतीजावाद वाली कार्यसंस्कृति में खुद को फिट नहीं कर पाए। अरे, वशिष्ठ का क्या गया? गया तो इस देश-समाज का, जो उनका उपयोग नहीं कर पाया। 

और अंततः 14 नवम्बर को पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया, स्वयं बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार उन्हें श्रद्धांजलि देने पहुंचे |


साभार प्रेरणा - श्री नवीन त्रिवेदी 'नव्य' की फेसबुक पोस्ट
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