आधुनिक विश्व मे 47 संस्कृतियां थीं, 7 बची हैं, बाकी?- संजय तिवारी

यह मैं नही कह रहा। यूनेस्को के अध्ययन की रिपोर्ट है। जिसे आज सभ्य विश्व की संज्ञा दी जा रही है इसमें अभी कुछ दशक पहले तक 47 संस्कृतियां मौजूद थीं। आज बमुश्किल 7 बची हैं। इनमें से भी 4 बिल्कुल विलोप की अवस्था मे हैं। जब यह आलेख लिख रहा हूँ तो बहुत बेचैनी भी है। यह बेचैनी इसलिए क्योंकि दुनिया की हर सभ्यता जिस भारतीय सनातन की तरफ टकटकी लगाए अपने अस्तित्व की गुहार लगा रही है उन सभी को कैसे संरक्षित किया जाएगा। आज यह कहने की स्थिति है कि केवल भारत ही नही बल्कि दुनिया एक बहुत बड़े खतरे के मुहाने पर खड़ी है। भारत मे बाहरी देशों के अल्पसंख्यकों की नागरिकता पर बने कानून के विरोध के बहाने बनाये जा रहे माहौल का विश्लेषण कीजिये। बहुत कुछ समझ मे आ जायेगा।

कुछ सदी पहले तक काबुल (अफगानिस्तान) का व्यापार सिक्खों का था, आज उस पर तालिबानों का कब्ज़ा है | सत्तर साल पहले पूरा सिंध सिंधियों का था, आज उनकी पूरी धन संपत्ति पर पाकिस्तानियों का कब्ज़ा है | कुछ ही साल पहले पूरा कश्मीर धन धान्य और एश्वर्य से पूर्ण पण्डितों का था, तुम्हारे उन महलों और झीलों पर आतंक का कब्ज़ा हो गया और तुम्हे मिला दिल्ली में दस बाय दस का टेंट । कुछ ही साल हुए हैं, एक दिन वह था जब ढाका का हिंदू बंगाली पूरी दुनियाँ में जूट का सबसे बड़ा कारोबारी था | आज उसके पास सुतली बम भी नहीं बचा । ननकाना साहब, लवकुश का लाहोर, दाहिर का सिंध, चाणक्य का तक्षशिला, ढाकेश्वरी माता का मंदिर देखते ही देखते सब पराये हो गए । पाँच नदियों से बने पंजाब में अब केवल दो ही नदियाँ बची । यह सब इसलिए हुआ क्योंकि भारतीय समाज संगठित नही था । केवल और केवल असंगठित होने के कारण जो भी बाहर से आया , काबिज होता गया और हम तमाशा देखते रहे। हम आज भी उसी तमाशबीन की भूमिका में रहें या खुद को बदल दें , अब विचार इस पर करना है। 

हमें हमारे ही धरातल से किस प्रकार काटा गया है , इसका अकादमिक उदाहरण दे रहा हूँ । जरा अपने उस इतिहास पर नजर डालिए जो स्वाधीनता के बाद से पढ़ाया जा रहा है। हमे सभ्यता का आरंभ सिंधुघाटी से पढ़ाया जाता है। वास्तविकता कुछ और है।भारत का इतिहास सिंधु घाटी सभ्यता से शुरू नही होता बल्कि सरयू तट से शुरू होता है जहाँ महर्षि मनु को अपने मनुष्य होने का ज्ञान हुआ और मानव सभ्यता विकसित हुई। रामायण और महाभारत हिन्दुओ के धर्मग्रंथ हो सकते है मगर शैक्षिक रूप से ये भारत का इतिहास है, जिन्हें पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया गया। सिंध को अरबो ने जीता अवश्य था मगर बप्पा रावल ने उन्हें मार मार कर भगाया भी था, मगर सिर्फ अरबो की विजय पढ़ाई जाती है और बप्पा रावल को कहानी किस्सों के भरोसे छोड़ दिया जाता है। व्यवस्था के अनुसार सम्राट पोरस ने सिकन्दर को रोका यह पढ़ाना आवश्यक नही था लेकिन अलाउद्दीन खिलजी ने मंगोलों को रोका ये बात याद से लिखी गयी । बाबर से औरंगजेब तक हर बादशाह के लिये अलग अध्याय है जबकि मुगलो के इतिहास से हिंदुस्तान के वर्तमान को ज्यादा प्रभाव नही पड़ता

मुगलो का 1707 तक का तो इतिहास बता दिया मगर बड़ी ही चतुराई से उसके बाद सीधे 1757 का प्लासी युद्ध लिखकर अंग्रेजो को ले आये। इतनी जल्दी क्या थी जनाब, जरा 1737 में पेशवा बाजीराव द्वारा मुगलो की धुलाई भी पढ़ा देते। 1757 में मुगल सल्तनत का मराठा साम्राज्य में विलय हो गया था मगर जबरदस्ती उसका अंत 1857 मे पढ़ाया जाता है। 1757 से 1803 मुगल मराठा साम्राज्य के अधीन रहे और 1803 से 1857 अंग्रेजो के। 1757 के बाद कोई मुगल सल्तनत नही थी। पानीपत में मराठो की हार हुई ठीक है मगर ये उनका अंतिम युद्ध नही था वे दोबारा खड़े हुए और अंग्रेजो को भी धो दिया, ये कब पढ़ाओगे? सिर्फ पानीपत पढ़ा दिया ताकि संदेश यह जाए कि हिन्दुओ ने हर युद्ध हारा है जबकि युद्ध के बाद महादजी सिंधिया ने अफगानों को जमकर कूटा था। जितने कागज बलबन, फिरोजशाह तुगलक और बहलोल लोदी पर लिखने में बर्बाद किये उन कागजो पर महादजी सिंधिया, नाना फडणवीस और तुकोजी होल्कर का वर्णन होना चाहिए था ।

भारत ब्रिटेन का गुलाम नही उपनिवेश था। भारत 200 नही 129 वर्ष ब्रिटेन की कॉलोनी रहा, (1818 में मराठा साम्राज्य के पतन से 1947 में कांग्रेस शासन तक) । आंग्ल मराठा युद्ध 1857 की क्रांति से भी बड़े थे इसलिए उनका विवरण पहले होना चाहिए मगर गायब है क्योकि बखान टीपू सुल्तान का करना था। 1947 में 2 राष्ट्रों का उदय नही हुआ बल्कि एक ही का हुआ, हिंदुस्तान सदियों से उदित है और हमेशा रहेगा। ज्यादा सेक्युलर हो तो दूसरे आतंकी राष्ट्र की चिंता करो, नक्शे पर कुछ ही दिन का मेहमान है।1962 में भारत चीन से पराजित हुआ मगर 1967 में चीन को हराया भी, इस बात को आने वाली पीढ़ी को कौन पढ़ायेगा? सामाजिक विज्ञान में एक पाठ आता है भारत और आतंकवाद, उसमे बड़े बड़े उदाहरण बताए जाते है मगर उनके पीछे का इस्लामिक कारण नही पढ़ाया जाता।

सामने उदाहरण है फिर भी नहीं समझ रहे हम। भारत मे मुस्लिम समुदाय की बढ़ती आबादी भारत के सेक्युलर स्ट्रक्चर के लिए खतरा है। मुसलमानों की बढ़ती आबादी हिन्दुस्तान के हिंदुओं के अस्तित्व पर खतरा है। यह हम नहीं कह रहे, बल्कि यह हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की एक स्टडी में सामने आया है। इजरायल की एक न्यूज वेबसाइट में छपी खबर के मुताबिक जिस देश में मुसलमानों की आबादी 16 प्रतिशत के आंकड़े को छू लेती है, उसे भविष्य में मुस्लिम राष्ट्र बनने से कोई रोक नहीं सकता। आज भारत में मुसलमानों की आबादी करीब 24 करोड़ है, जो कुल आबादी का लगभग 16 प्रतिशत है। यानि इसी रफ्तार से अगर मुसलमानों की आबादी भारत में बढ़ती रही तो फिर बड़ी मुश्किल खड़ी होने वाली है।

इस स्टडी के मुताबिक तुर्की, मिस्र और सीरिया पहले क्रिश्चियन देश थे, लेकिन वहां धीरे-धीरे मुस्लिम आबादी बढ़ती गई और फिर ये मुस्लिम देश बन गए। इस स्टडी में साफ कहा गया है कि जब किसी देश में मुस्लिम आबादी कुल आबादी की लगभग 16 प्रतिशत हो जाती है, तो फिर अगले 100 से 150 वर्षों में वो देश पूरी तरह से इस्लामिक देश बन जाता है।

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के इस अध्ययन के अनुसार जिन देशों में मुस्लिम आबादी 2 प्रतिशत से कम होती है, वहां ये लोग अमनपसंद अल्पसंख्यक के रूप में रहते हैं और वहां के निवासियों से कोई पंगा नहीं लेते हैं। जैसे कि अभी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, चीन, इटली और नार्वे जैसे देशों में है। इन देशों में मुसलमानों की आबादी 2 प्रतिशत से कम है।

जैसे ही किसी देश में मुसलमानों की आबादी 2 प्रतिशत से अधिक हो जाती है और 5 प्रतिशत तक पहुंचती है, वहां ये अपने रीतिरिवाज थोपने लगते हैं, अपने अधिकारों की मांग करने लगते हैं। जैसा कि इन दिनों डेनमार्क, जर्मनी, ब्रिटेन, स्पेन और थाईलैंड में हो रहा है। डेनमार्क में मुसलमानों की आबादी 2%, जर्मनी में 3.7%, ब्रिटेन में 2.7%, स्पेन में 4% और थाईलैंड में 4.6% है।

स्टडी के अनुसार किसी भी देश में 5 प्रतिशत का आंकड़ा पार होते ही मुसलमान अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए दबाब बनाने लगते हैं। जैसे हलाल खाने के लिए सुपर मार्केट चेन्स पर दबाब बनाने लगते हैं, नहीं तो कंपनी बंद कराने की धमकी देने लगते हैं। इतना ही नहीं ऐसे देशों में मुसलमान शरिया कानून लागू करने का भी दबाब बनाने लगते हैं। ठीक ऐसा ही इन दिनों फ्रांस, फिलिपीन्स, स्वीडन, स्विटजरलैंड, नीदरलैंड्स आदि देशों में देखने को मिल रहा है। इन देशों में मुसलमानों की आबादी 5 से 8 प्रतिशत के बीच पहुंच चुकी है।

जैसे ही किसी देश में मुसलमानों की आबादी 10 प्रतिशत का आंकड़ा पार करती है, वे उस देश में अराजकता फैलाने लगते हैं। जरा-जरा सी बात पर इन देशों में मुसलमान आगजनी, गोलीबारी जैसी घटनाओं से भी नहीं चूकते हैं। भारत (15%), गुयाना (10%), इजरायल (16%), केन्या (10%), रूस (15%) जैसे देशों में इस तरह की घटनाएं आम हो चुकी हैं।

20 प्रतिशत से अधिक आबादी होते ही मुसलमानों द्वारा इस तरह की हिंसक घटनाएं बढ़ने लगती हैं। इन देशों में दंगे बढ़ने लगते हैं, जिहादी आतंकी संगठन खड़े हो जाते हैं, दूसरे धर्मों के पूजास्थलों पर हमले और आगजनी की घटनाएं बढ़ जाती हैं। दूसरे धर्म के लोगों की हत्या कर खौफ फैलाया जाने लगता है। ठीक ऐसा ही 32.8 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले इथोपिया में इन दिनों हो रहा है।

इतना ही नहीं 40 प्रतिशत की आबादी होते ही उन देशों में बड़े नरसंहार, आतंकी हमले आदि बढ़ जाते हैं। बोस्निया (40%), लेबनान (59.7%) में यही देखने को मिल रहा है।

स्टडी के अनुसार जैसे ही किसी देश में मुसलमानों की आबादी का आंकड़ा 60 प्रतिशत को छूने लगता है वहां दूसरे धर्मों के लोगों की धार्मिक प्रताड़ना बढ़ने लगती है। जातीय नरसंहार की घटनाएं बढ़ जाती हैं। शरिया कानून को एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाने लगता है। ऐसा ही अल्बानिया, मलेशिया, कतर और सूडान में हो रहा है। अल्बानिया में मुस्लिम आबादी 70%, मलेशिया में 60.4%, कतर में 77.5% और सूडान में 70% से अधिक है।

अध्ययन के मुताबिक जैसे ही किसी देश में मुसलमानों की 80 प्रतिशत की आबादी हो जाती है, तो एक प्रकार से वहां मुसलमान पूरी तरह से अराजक हो जाता है। ऐसे देशों में हिंसा रोजाना की बात हो जाती है। सरकार द्वारा आतंकवाद को प्रायोजित किया जाने लगता है और ऐसे देशों में दूसरे धर्मों के लोगों का जबरन धर्मपरिवर्तन कराया जाता है और तेजी से ऐसे देश 100 प्रतिशत इस्लामीकरण की तरफ बढ़ने लगते हैं। कुछ ऐसा ही बांग्लादेश (83%), मिस्र (90%), गाजा (98.70%), इंडोनेशिया (86.1%), ईरान (98%), इराक (97%), जॉर्डन (92%), मोरक्को (98.70%), पाकिस्तान (97%), फिलस्तीन (99%), सीरिया (90%), तजाकिस्तान (90%), तुर्की (99.80%), यूएई (96%) जैसे देशों में दिखाई देता है।

और फिर जैसे ही किसी देश में 100 फीसदी मुस्लिम आबादी हो जाती है, तो फिर वो देश एक बार फिर अमनपसंद देश बन जाता है। वहां कहा जाने लगता है कि चूंकि 100 फीसदी इस्लामी देश है, इसलिए अब वहां कोई खतरा नहीं है, कोई हिंसा नहीं है। जैसे कि अफगानिस्तान, सऊदी अरब, सोमालिया और यमन में कहा जाता है, क्योंकि इन देशों में 100 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है।

हार्वर्ड विश्वविद्यालय की इस स्टडी के मुताबिक अभी विश्व में मुसलमानों की कुल आबादी करीब 1.5 अरब है, जो विश्व की कुल जनसंख्या का 22 प्रतिशत है। लेकिन जिस प्रकार मुसलमानों की जन्मदर है, उससे वो दिन दूर नहीं जब दुनिया में मुसलमानों की आबादी 50 प्रतिशत के पार चली जाएगी।

अब एक नजर डालते हैं कि आज दस वर्ष पहले क्या आंकड़े रहे हैं। इसी को केंद्र में रख कर राज्यसभा के सदस्य रहे बलबीर पुंज लिखते हैं कि भारत मे मजहब के आधार पर सामने आई जनगणना रिपोर्ट के सांस्कृतिक-राजनीतिक निहितार्थ हैं। आजादी के बाद देश में पहली बार हिंदुओं की आबादी 80 प्रतिशत से कम हुई है। देश के सात राज्यों- मिजोरम, नागालैंड, मेघालय, जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, पंजाब, मणिपुर और लक्षद्वीप में हिंदू समुदाय अल्पसंख्यक हैं। यह स्थापित सत्य है कि देश के जिस किसी भी हिस्से में हिंदू और हिंदू परंपराओं का क्षय हुआ है, वहां अलगाववाद की समस्या बढ़ी है। 

भारत में पंथनिरपेक्षता और बहुलतावाद संविधान के किसी अनुच्छेद के कारण नहीं है। यह सनातन संस्कृति के सहिष्णु जीवन दर्शन और उदार मान्यताओं के कारण ही संभव हो पाया है। भारत में बहुलतावाद और पंथनिरपेक्षता तभी तक अक्षुण्ण रहेंगी, जब तक हिंदू और हिंदू मान्यताएं अक्षत रहेंगी। अन्यथा क्या कारण है कि भारत की कोख से ही जन्मे पाकिस्तान और बांग्लादेश में पंथनिरपेक्षता और बहुलतावाद के लिए कोई स्थान नहीं है? क्यों भारतीय संसाधनों से पल रही कश्मीर घाटी में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगते हैं? क्यों घाटी की संस्कृति के मूल ध्वजवाहकों, कश्मीरी पंडितों को खदेड़ भगाया गया? नागालैंड जैसे पूवरेत्तर के कुछ राज्यों में चर्च समानांतर सरकार चलाता है। चर्च द्वारा चलाए जा रहे मतांतरण से पूवरेत्तर के जनसांख्यिक स्वरूप में तो अंतर आया ही है, स्थानीय नागरिकों के एक बड़े वर्ग में भारत के प्रति स्वाभाविक लगाव को भी क्षति पहुंची है। 

जब कभी चर्च के मतांतरण अभियान पर प्रश्न खड़ा होता है, सेक्युलरिस्ट उसके संरक्षण में सड़कों पर उतर आते हैं। 2011 की जनगणना के आंकड़े चर्च के दावों की कलई खोलते हैं। 2001 से 2011 के बीच ईसाई समुदाय की आबादी वृद्धि दर स्थिर पाई गई। देश का ईसाई समुदाय सभी मजहबी समुदायों (पारसियों को छोड़कर) से संपन्न और साक्षर है। 1991 से 2011 के बीच ईसाई समुदाय की आबादी 1.9 प्रतिशत प्रति वर्ष से अधिक की दर से बढ़ी, जबकि इस काल अवधि में हिंदुओं की आबादी 1.8 प्रतिशत की दर से बढ़ी। अधिक साक्षरता दर और समृद्धि के कारण ईसाई समाज में परिवार नियोजन के प्रति स्वाभाविक जागरूकता है। कम प्रजनन दर के कारण ईसाई समुदाय की आबादी की वृद्धि दर में गिरावट आनी चाहिए थी। सिखों में भी संपन्नता और साक्षरता अन्य समुदायों से अधिक है। 1991 से 2011 के बीच सिखों की आबादी 1.2 प्रतिशत की दर से बढ़ी। यदि 2001 से 2011 के बीच ईसाई समुदाय की आबादी में 1.2 प्रतिशत की दर से ही वृद्धि हुई होती तो उनकी कुल वास्तविक आबादी 2 करोड़ 41 लाख होनी चाहिए थी, जबकि 2011 में उनकी आबादी 2 करोड़ 78 लाख पाई गई। यह जो 37 लाख का अंतर है, यह वास्तव में चर्च द्वारा मतांतरित कराए गए लोगों की संख्या है। इस हिसाब से 1991 से 2011 के बीच चर्च ने हर साल दूसरे मत के मानने वाले 1.7 लाख लोगों को ईसाइयत में दीक्षित किया।

भारत में मिशनरी प्रचारक मतांतरण अभियान के लिए आदिवासी और दलित-वंचित वर्ग को ही निशाना बनाते आए हैं। मतांतरण के लिए झूठ, फरेब और प्रलोभन से चर्च को परहेज नहीं है। 2011 जनगणना के मजहबी आंकड़े आंखें खोलने वाले हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार देश की कुल आबादी में मुसलमानों का अनुपात 13.4 प्रतिशत था, जो 2011 में बढ़कर 14.2 प्रतिशत हो गया है। पिछले चार सालों (2011-2015) में वास्तविक वृद्धि का अनुमान नहीं लगाया जा सकता, किंतु 2001 से 2011 के बीच के दस सालों में यह वृद्धि 24.6 फीसद की दर से हुई है। इस अवधि में हिंदुओं की वृद्धि दर गिर कर 16.8 प्रतिशत आ गई। 1991-2001 के दशक में यह वृद्धि दर 19.9 प्रतिशत थी। 2001 में हिंदुओं की आबादी 80.5 फीसद थी, जो 2011 में घटकर 79.8 प्रतिशत हो गई। असम के अलावा देश के अन्य भागों में रह रहे अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों और रोहयांग मुसलमानों की जनगणना में गिनती नहीं की गई है। यदि उनकी संख्या जोड़ दी जाए तो तस्वीर और भी भयावह होगी। 

एक ओर जहां कई राज्यों में हिंदुओं की वृद्धि दर में गिरावट दर्ज की गई है वहीं सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में मुस्लिम आबादी में वृद्धि दर्ज की गई है। ऐसे कई राज्य, जहां मुस्लिमों की आबादी दर में भारी वृद्धि दर्ज की गई है वहां उनकी साक्षरता दर भी उच्च है। 1वस्तुत: मुसलमान राजनीतिक रूप से अत्यधिक साक्षर हैं, इसीलिए वे अपनी बड़ी संख्या को एक सुरक्षा के रूप में देखते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि चुनाव के दौरान सेक्युलर दलों में मुसलमानों का थोक वोट पाने के लिए होड़ लगती है और बदले में मुस्लिम समुदाय के कट्टरपंथी रहनुमा ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक दोहन की जुगत में रहते हैं। किंतु इस ब्लैकमेलिंग और तुष्टीकरण के खेल से मुस्लिम समुदाय का भला हो सकता है? विभाजन के समय पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में हिंदू धर्मावलंबियों की आबादी उस क्षेत्र की कुल आबादी का 30 प्रतिशत थी और पश्चिमी पाकिस्तान (अब पाकिस्तान) में हिंदू-सिखों की हिस्सेदारी 20 प्रतिशत से अधिक थी। भरतीय उपमहाद्वीप में हिंदू-सिख कुल जनसंख्या के 75 प्रतिशत से थोड़ा कम और मुसलमान 24 प्रतिशत से कम थे। आज भारत की आबादी 121 करोड़, पाकिस्तान 20 करोड़ से कम और बांग्लादेश 20 करोड़ अर्थात् तीनों देशों की कुल आबादी 161 करोड़ है। यदि हिंदुओं की आबादी इस कुल आबादी में उतने ही प्रतिशत (अर्थात् 75 प्रतिशत) रहती जितनी विभाजन के समय थी तो इन तीनों देशों की कुल आबादी में हिंदुओं की आबादी 120 करोड़ के लगभग होती। इसके विपरीत इस उपमहाद्वीप में हिंदुओं की कुल आबादी 98 करोड़ (भारत 96 करोड़, पाकिस्तान 50 लाख और बांग्लादेश 1 करोड़ 60 लाख) है। ये 21 करोड़ हिंदू-सिख कहां गए? कटु सत्य है कि हिंदुओं की आबादी का प्रतिशत भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश, तीनों में कम हुआ है। सत्य तो यह भी है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में लाखों हिंदुओं को तलवार के दम पर मजहब बदलने के लिए मजबूर किया गया। हिंदुओं की घटती वृद्धि दर बहुलतावाद और पंथनिरपेक्ष जीवन मूल्यों के लिए खतरा साबित हो सकती है।

वर्तमान ही बहुत भयावह दिख रहा है। अब भी सतर्क नही हुए तो बहुत पछताना पड़ेगा।

(लेखक भारत संस्कृति न्यास के संस्थापक एवं वरिष्ठ पत्रकार है)

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें