विवेकानंद साहित्य - ५



- हमें ऐसे ह्रदय की आवश्यकता है जो समुद्र सा गंभीर और आकाश सा उदार हो | हमें संसार की किसी भी उन्नत जाति के समान उन्नतिशील होना चाहिए और साथ ही अपनी परम्पराओं के प्रति बही श्रद्धा और कट्टरता रखनी चाहिए जो केवल हिन्दुओं में आ सकती है |

- जनवरी १८९७ में कोलम्बो में अपने स्वागत के प्रतिउत्तर में स्वामी जी ने कहा – यह भाव प्रदर्शन किसी महान राजनीतिज्ञ या महान सैनिक या लखपति के सम्मान में न होकर एक भिक्षुक सन्यासी के प्रति हुआ है, जो धर्म के प्रति हिन्दुओं की मनोवृत्ति का परिचायक है | अगर राष्ट्र को जीवित रहना है तो धर्म को राष्ट्रीय जीवन का मेरुदंड बनाए रखने की आवश्यकता है |

- मुग़ल सम्राट औरंगजेब के बड़े भाई दारा शिकोह ने फारसी भाषा में उपनिषदों का अनुवाद करवाया था | सन १६५७ ईसवी में वह अनुवाद समाप्त हुआ था | शुजाउद्दौला की राजसभा के सदस्य फ्रांसीसी रेसीडेंट जेंटिल साहब ने वह अनुवाद वर्नियर साहब के माध्यम से आन्केतिल दुपेरों नामक सुप्रसिद्ध सैलानी और जेंदावेस्ता के आविष्कर्ता के पास भेज दिया था | उन्होंने उसका लेटिन भाषा में अनुवाद किया | सुप्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक शापेनहार्वर का दर्शन इन्ही उपनिषदों द्वारा विशेष रूप से अनुप्राणित हुआ है | इस प्रकार सर्व प्रथम यूरोप में उपनिषदों के भावों का प्रवेश हुआ | शापेनहार्वर के अनुसार – समस्त संसार में उपनिषद् के समान हितकारी और उन्नायक अन्य कोई अध्ययन नहीं है | जीवन भर उसने मुझे शान्ति प्रदान की है और मरने पर भी वही मुझे शान्ति प्रदान करेगा |

- एक धनी व्यक्ति का एक बगीचा था जिसमें दो माली काम करते थे | एक माली बड़ा सुस्त और कमजोर था, किन्तु वह जब भी मालिक को आते देखता तो झट उठकर खड़ा हो जाता और हाथ जोड़कर कहता – मेरे स्वामी का मुख कैसा सुन्दर है | और उसके सम्मुख नाचने लगता | दूसरा माली ज्यादा बातचीत नहीं करता था, उसे तो बस अपने काम से काम था | और वह बड़ी मेहनत से बगीचे में तरह तरह के फल तरकारी उगाता और स्वयम अपने सर पर रखकर मालिक के घर पहुंचाता | यद्यपि मालिक का घर बहुत दूर था | अब इन दो मालियों में से मालिक किसे अधिक चाहेगा ? बस ठीक इसी प्रकार यह संसार भी एक बगीचा है और इसके मालिक हैं शिव | यहाँ भी दो प्रकार के माली हैं – एक तो वह जो अकर्मण्य, सुस्त और ढोंगी हैं और कभी कभी शिव के सुन्दर नेत्र, नासिका तथा सुन्दर अंगों की प्रशंसा किया करते हैं | और दूसरा ऐसा जो शिव की संतान की, सारे दीन दुखी प्राणियों की और उनकी समस्त सृष्टि की चिंता रखता है | इन दो प्रकार के लोगों में से कौन शिव को अधिक प्यारा होगा ?

- एक साधारण अंग्रेजी कहावत है – “Everyone thinks for himself and the devil takes the hindmost” अर्थात प्रत्येक मनुष्य अपना ही अपना सोचता है और जो बेचारा सबसे पीछे रह जाता है, उसे शैतान पकड़ ले जाता है | भौतिक अभ्युदय के साथ मानव जाति के अन्तर्निहित पारस्परिक द्वेष तथा ईर्ष्याभाव भी प्रबल आकार धारण कर लेते हैं, फलस्वरूप प्रतिद्वंदिता तथा घोर निर्दयता उस समय के मूल मन्त्र बन जाते हैं |

- आत्मस्वरूप के अज्ञान के कारण भय होता है | संसार को यदि किसी एक धर्म की शिक्षा आवश्यक है तो वह है “निर्भयता” | हममें से प्रत्येक सम्राटों के सम्राट उस ईश्वर का ही अंश है | अद्वैत मतानुसार तो हम स्वयम ही ईश्वर हैं, ब्रम्ह हैं | अपने असली स्वरुप को विस्मृत कर स्वयम को छोटा सा आदमी समझ रहे हैं | इसी कारण, मैं अमुक से श्रेष्ठ या अमुक मुझसे श्रेष्ठ जैसे भाव उदय होते हैं | विश्व को यह एकत्व की शिक्षा ही आज भारत द्वारा दी जानी आवश्यक है | जब यह समझ लिया जाता है, तब सारा द्रष्टिकोण ही बदल जाता है, संसार को देखने की द्रष्टि बदल जाती है | फिर यह संसार रणक्षेत्र नहीं रह जाता, जहां प्रत्येक प्राणी इसलिए जन्म लेता है कि वह दूसरों से लड़ता रहे, जो बलवान हो वह दूसरों पर विजय प्राप्त कर ले और जो कमजोर हो वह पिस जाए | एकत्व का वोध हो जाने के बाद तो यह संसार एक क्रीडास्थल बन जाता है जहां स्वयम भगवान एक बालक के सद्रश खेलते हैं | जब मनुष्य आत्मा को पहचान लेता है तो वह चाहे जैसा दुर्बल, पतित अथवा घोर पातकी ही क्यों न हो, उसके भी ह्रदय में एक आशा की किरण निकल आती है | वेदान्त कभी भय से धर्माचरण करने को नहीं कहता | वेदान्त में किसी शैतान का उल्लेख नहीं है जो इस ताक में रहता है कि कब तुम पद स्खलित होओ और वह तुम्हे अपने अधिकार में ले ले | वेदान्त की शिक्षा यही है कि अपने भाग्य के निर्माता हम ही हैं | तुम्हारा यह शरीर तुम्हारे ही कर्मों के अनुसार बना है | जिस प्रकार वर्तमान में स्वयं खाते हो, जो खाते हो उसे स्वयं पचाते हो, फिर रक्त, मांसपेशी तथा शरीर बनाते हो, इसमें दूसरा कोई कुछ नहीं करता, उसी प्रकार भूतकाल के कर्मों से वर्तमान तथा वर्तमान के कर्मों से भविष्य का भी सृजन होता है | सुख दुःख, अच्छाई बुराई का दायित्व स्वयं का ही है | साथ ही भगवान शुभाशुभरुपी इस संसार प्रवाह के पार विराजमान हैं, जो स्वयं बंध रहित हैं, दयालु हैं, हमारा बेडा पार लगाने को सदैव तत्पर हैं, उनकी दया अपार है – जो मनुष्य ह्रदय से शुद्ध होता है उस पर उनकी कृपा होती है |

- इस समय पंचमांश जन समूह मुसलमान है | लगभग दस लाख ईसाई भी हो गए हैं | यह किसका दोष है ? भौतिकवाद, इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म या दुनिया का कोई भी वाद कदापि सफल नहीं हो सकता था, यदि हमने स्वयं ही उसका प्रवेशद्वार ना खोला होता | नर शरीर में तब तक किसी प्रकार के विषाणुओं का आक्रमण नहीं हो सकता, जब तक वह दुराचरण, कुखाद्य या असंयम के कारण स्वयम दुर्बल और हीन वीर्य न हो गया हो | तंदरुस्त आदमी सब प्रकार के विषैले जीवाणुओं के बीच रहकर भी उनसे बचा रहता है | गत छः सात सदियों तक के लगातार पतन का विचार करो – जब सैंकड़ों समझदार आदमी सिर्फ इस विषय को लेकर तर्क करते रहे कि लोटा भर पानी दाहिने हाथ से पीया जाए या बांये हाथ से, हाथ चार बार धोया जाए या पांच बार, कुल्ला पांच दफे करना ठीक है या छः दफे | हममें से अधिकाँश मनुष्य न वेदांती हैं, न पौराणिक और न तांत्रिक, हम हैं “छूतधर्मी” अर्थात “हमें न छुओ” इस धर्म को मानने बाले | हमारा धर्म रसोईघर में है | हमारा ईश्वर है “भात की हांडी” और मन्त्र है “हमें न छुओ हमें न छुओ हम महा पवित्र हैं” | अगर यही भाव एक शताव्दी और चला तो हममें से प्रत्येक की हालत पागलखाने में कैद होने लायक हो जायेगी |

मन जब जीवन संबंधी उच्च आदर्शों पर विचार नही कर सके तब समझना चाहिए कि मस्तिष्क दुर्बल हो गया | जब मन की शक्ति नष्ट हो जाती है, चिंतन शक्ति जाती रहती है, तब वह छोटी सीमा के भीतर चक्कर लगाता रहता है | अतएव पहले इस स्थिति को बदलना होगा, कर्मी और वीर बनना होगा | तभी हम अपने उस असीम धन को पहचानेंगे, जो हमारे पूर्वज हमारे लिए छोड़ गए हैं, और जिसके लिए संसार हाथ बढ़ा रहा है | यह धन वितरित न किया गया तो संसार मर जाएगा | इसको बाहर निकाल लो और मुक्तहस्त से इसका दान करो | क्योंकि महाभारत प्रणेता व्यास जी ने कहा है – कलियुग में दान ही एकमात्र धर्म है | तप और कठिन योगों की साधना इस युग में नहीं होती | इस युग में दान देने अर्थात दूसरों की सहायता करने की विशेष आवश्यकता है | दान शव्द का क्या अर्थ है ? सब दानों में श्रेष्ठ है अध्यात्म दान, फिर है विद्यादान, फिर प्राण दान, भोजन कपडे का दान सबसे निकृष्ट दान है | जो अध्यात्म दान करते है, वे जीवन मरण के प्रवाह से आत्मा की रक्षा करते हैं | जो विद्यादान करते हैं, वे आंखे खोलकर अध्यात्म के पथ पर चलना सिखा देते हैं | दूसरे दान, यहाँ तक कि प्राण दान भी इसके समक्ष तुच्छ है |

अन्नदान हम लोगों ने बहुत किया है | हमारे जैसी दानशील जाति दूसरी नहीं | यहाँ तो अगर भिखारी के घर भी रोटी का एक टुकड़ा है, तो वह उसमें से आधा दान कर देगा | ऐसा दृश्य केवल भारत में ही देखा जा सकता है | हमारे यहाँ इस दान की कमी नहीं, किन्तु अब हमें विद्या दान और धर्म दान के लिए बढ़ना चाहिए | अगर हम हिम्मत न हारें, ह्रदय को दृढ कर लें और पूर्ण ईमानदारी के साथ काम में जुट जाएँ तो पच्चीस साल के भीतर सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा | किसी महान आदर्श को लेकर उसीके पीछे समस्त जीवन न्योछावर कर देना ही मुख्य है, अन्यथा इस क्षणभंगुर मानव जीवन का मूल्य ही क्या है ?

गीता में दिए कृष्ण के उपदेश विशेष रूप से ध्यान में रखने योग्य हैं –

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरं |
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ||

(विनाश होने बाले सब भूतों में जो लोग अविनाशी परमात्मा को स्थित देखते हैं, यथार्थ में उन्ही का देखना सार्थक है)

समं पश्यम हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम |
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परामगतिम् ||

(ईश्वर को सर्वत्र समान भाव से देखकर वे आत्मा के द्वारा आत्मा की हिंसा नहीं करते, इसलिए वे परम गति को प्राप्त होते हैं)

इस देश तथा विदेशों में भी मनुष्यों के दुःख दूर करने के लिए तथा मानव समाज की उन्नति के लिए हमें परमात्मा की सर्व व्यापकता और सर्वत्र विद्यमानता का प्रचार करना होगा | जहां भी बुराई दिखाई देती है, वहां अज्ञान भी मौजूद रहता है | मैं समाज के दोषों का सुधार करने की चेष्टा नहीं कर रहा हूँ | मैं केवल इतना कहता हूँ कि आगे बढ़ो और हमारे पूर्वपुरुष समग्र मानव जाति की उन्नति के लिये जो सर्वांग सुन्दर प्रणाली बता गए हैं, उसीका अवलंबन कर उनके उद्देश्य को सम्पूर्ण रूप से कार्य में परिणित करो |

जिस प्रकार यदि किसी व्यक्ति का मर्मस्थान सुरक्षित रहे, तो दूसरे अंगों में कितनी भी चोट लगने पर भी वह मरेगा नहीं, इसी प्रकार जब तक हमारी जाति का मर्मस्थान सुरक्षित है, उसके विनाश की कोई आशंका नहीं हो सकती | अतः भलीभांति स्मरण रखिये, यदि आप धर्म को छोड़कर पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता के पीछे दौडिएगा, तो आपका तीन ही पीढ़ियों में अस्तित्वलोप निश्चित है | क्योंकि इस प्रकार हमारा मेरुदंड ही टूट जाएगा | जिस भित्ति के ऊपर यह विशाल भवन खड़ा है, वही नष्ट हो जाएगा | फिर तो परिणाम सर्वनाश होगा ही |

हम लोगों ने अपने पूर्वजों से उत्तराधिकार स्वरुप जो अमूल्य संपत्ति पाई है, उसे प्राणपण से सुरक्षित रखना ही अपना प्रथम और प्रधान कर्तव्य समझें |

दूसरे देशों के बड़े बड़े धर्माचार्य ‘कार्डिनल’ अपने को किसी राजा का वंशधर कहने की बड़ी चेष्टा करते हैं और इसके लिए हजारों रुपये खर्च करने को तत्पर हो जाते हैं | वे तब तक संतुष्ट नहीं होते जब तक अपनी वंश परंपरा किसी भयानक क्रूर शासक से स्थापित नहीं कर लेते, जो पहाड़ पर रहकर राही बटोहियों की ताक में रहते थे और मौक़ा पाते ही उन्हें लूट लेते थे | जबकि दूसरी ओर भारतवर्ष के बड़े बड़े राजा भी स्वयं को किसी प्राचीन ऋषि की संतान प्रमाणित करने की चेष्टा करते हैं | वे गौरवान्वित अनुभव करते हैं स्वयं को किसी कौपीनधारी, सर्वस्व त्यागी, वनवासी, फल-मूलाहारी और वेदपाठी ऋषि की संतान मानकर | यही अंतर है | हमारा उच्च वंश का आदर्श अन्यान्य देशवासियों के आदर्श से बिलकुल भिन्न है | आध्यात्मिक साधना संपन्न महात्यागी ब्राह्मण ही हमारे पूर्व पुरुषों के आदर्श थे | हमारे सभी शास्त्रों में ब्राम्हण आदर्श विशिष्ट रूप से प्रतिष्ठित है, जिसमें सांसारिकता एकदम न हो और असली ज्ञान पूर्ण मात्रा में विद्यमान हो -

ब्राम्हणों जायमानो हि प्रथिव्यामधिजायते |
ईश्वरः सर्वभूतानां धर्मकोषस्य गुप्तये ||

“धर्मरूपी खजाने की रक्षा के लिए ब्राम्हणों का जन्म होता है |” इस पवित्र मातृभूमि पर ब्राम्हण का ही नहीं, प्रत्युत जिस किसी स्त्री-पुरुष का जन्म होता है, उसके जन्म लेने का कारण यही “धर्मकोषस्य गुप्तये” है | दूसरे सभी विषयों को हमारे जीवन के इस मूल उद्देश्य के अधीन करना होगा |

इस समय हमें सावधान रहने की भी आवश्यकता है | एक ओर कुसंस्कारों से भरा हुआ प्राचीन समाज है तो दूसरी ओर भौतिकवाद – आत्माहीनता – यूरोपवाद | पश्चिमी अनुकरण के पूर्व हमें मौलिक अंतर को समझना होगा | पाश्चात्य देश बाले वहां इस बात की चेष्टा कर रहे हैकि मनुष्य अधिक से अधिक कितना विभव संकलित कर सकता है, और यहाँ हम लोग इस बात की चेष्टा करते हैं कि कमसेकम कितने में हमारा काम चल सकता है |

इसीलिए मैं कहता हूँ कि आपलोग आध्यात्म में विश्वास कीजिए या न कीजिए, किन्तु यदि आप राष्ट्रीय जीवन को दुरुस्त रखना चाहते हैं तो आपको आध्यात्मिकता की रक्षा के लिए सचेष्ट होना होगा | एक हाथ से धर्म को मजबूती से पकड़कर दूसरे हाथ को बढ़ा अन्य जातियों से जो कुछ सीखना हो सीख लीजिये | किन्तु स्मरण रखें कि जो कुछ सीखें, उसे मूल आदर्श का अनुगामी ही रखना होगा | तभी अपूर्व महिमा से मंडित भावी भारत का निर्माण होगा | मेरा विश्वास है कि भारतवर्ष शीघ्र ही उस श्रेष्ठता का अधिकारी होगा, जितना पहले कभी नहीं था | प्राचीन ऋषियों से भी श्रेष्ठतर ऋषियों का आविर्भाव होगा, और आपके पूर्वज परलोक में अपने अपने स्थानों से अपने वंशजों की महिमा और महत्व को देखकर गौरवान्वित होंगे |

भाइयो हम सभी को इस समय कठिन परिश्रम करना होगा | अब सोने का समय नहीं है | हमारे कार्यों पर भारत का भविष्य निर्भर है | देखिये भारतमाता तत्परता से प्रतीक्षा कर रही है | वह केवल सो रही है, उसे जगाईये और पहले की अपेक्षा और भी गौरव मंडित और अभिनव शक्तिशाली बनाकर भक्ति भाव से उसे उसके सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दीजिये | जो शैवों के लिए शिव, वैष्णवों के लिए विष्णु, कर्मियों के लिए कर्म, बौद्धों के लिए बुद्ध, जैनों के लिए जिन, ईसाईयों और यहूदियों के लिए जिहोवा, मुसलमानों के लिए अल्लाह और वेदान्तियों के लिए ब्रम्ह है, कल्याणकारी, परम दयालु, हमारा पिता, माता, मित्र, प्राणों का प्राण और आत्मा की अंतरात्मा है – जो सब धर्मों, सब सम्प्रदायों का प्रभु है – जिनकी सम्पूर्ण महिमा केवल भारत ही जानता है, वे ही सर्वव्यापी, दयामय प्रभु हम लोगों को आशीर्वाद दें, हमारी सहायता करें, हमें शक्ति दें, जिससे हम अपने उद्देश्य को कार्यरूप में परिणित कर सकें | हम लोगों ने जो श्रवण किया, वह खाए हुए अन्न के समान हमारी पुष्टि करे, उसके द्वारा हम लोगों में इस प्रकार का वीर्य उत्पन्न हो कि हम दूसरों की सहायता कर सकें |

- जाति विभाग प्राकृतिक नियम है | सामाजिक जीवन में एक विशेष काम मैं कर सकता हूँ, तो दूसरा काम तुम कर सकते हो | तुम एक देश का शासन कर सकते हो तो मैं एक पुराने जूते की मरम्मत कर सकता हूँ, किन्तु इस कारण तुम मुझसे बड़े नहीं हो सकते | क्या तुम मेरे जूते की मरम्मत कर सकते हो ? क्या मैं देश का शासन चला सकता हूँ ? यह कार्यविभाग स्वाभाविक है | मैं जूते की सिलाई करने में चतुर हूँ, तुम वेदपाठ में निपुण हो | यह कोई कारण नहीं कि तुम इस विशेषता के लिए मेरे सिर पर पाँव रख दो | तुम यदि ह्त्या भी करो तो तुम्हारी प्रशंसा और मुझे एक सेव चुराने पर ही फांसी पर लटकना हो, ऐसा नहीं हो सकता | इसको समाप्त करना ही होगा | मनुष्य अलग अलग वर्गों में विभक्त होंगे, यह अनिवार्य है | किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि इस प्रकार का विशेषाधिकार भी रहेगा | इसको जड़ से उखाड़ फेंकना होगा | यदि मछुआ को वेदान्त सिखलाओगे तो वह कहेगा, हम और तुम दोनों बराबर हैं | तुम दार्शनिक हो और मैं मछुआ, पर इससे क्या ? तुम्हारे भीतर जो ईश्वर है, वही मुझमें भी है | और यही हम चाहते हैं | सबको उनके भीतर स्थित ब्रम्ह्तत्व संबंधी शिक्षा दो, सबको उन्नति के समान अवसर हों |

उन्नति के पहले स्वाधीनता की आवश्यकता है | मुझसे बार बार पूछा जाता है कि विधवाओं की समस्या के बारे में और स्त्रियों के प्रश्न पर आप क्या सोचते हैं ? क्या मैं विधवा हूँ, जो तुम ऐसा निरर्थक प्रश्न मुझसे पूछते हो ? क्या मैं स्त्री हूँ जो बारम्बार मुझसे यही प्रश्न करते हो ? स्त्री जाति के प्रश्न को हल करने के लिए आगे बढ़ने बाले तुम कौन होते हो ? क्या तुम हर विधवा और हर एक स्त्री के भाग्यविधाता भगवान हो ? दूर रहो | क्या तुम जानते नहीं कि प्रत्येक आत्मा ईश्वर का ही रूप है | अतएव हर एक स्त्री को, हर एक पुरुष को ईश्वर के ही सामान देखो | तुम किसी की सहायता नहीं कर सकते, तुम्हे केवल सेवा करने का अधिकार है | केवल ईश्वर पूजा के भाव से सेवा करो | दरिद्र व्यक्तियों में हमें भगवान को देखना चाहिए, अपनी ही मुक्ति के लिए उनके निकट जाकर हमें उनकी पूजा करना चाहिए | दुखी और कंगाल प्राणी हमारी मुक्ति के माध्यम हैं, ताकि हम रोगी, पागल, कोढी, पापी आदि स्वरूपों में विचरते हुए प्रभु की सेवा करके अपना उद्धार करें | हम लोगों के जीवन का सर्वश्रेष्ठ सौभाग्य यही है कि हम इन भिन्न भिन्न रूपों में विराजमान भगवान की सेवा कर सकते हैं | प्रभुत्व से किसी का कल्याण कर सकने की भावना त्याग दो | जिस प्रकार पौधे के बढ़ने के लिए जल, मिट्टी, वायु आदि पदार्थों का संग्रह कर देने पर फिर वह पौधा अपनी प्रकृति के नियमानुसार आवश्यक पदार्थों का ग्रहण स्वयं कर लेता है और अपने स्वभाव के अनुसार बढ़ता जाता है, उसी प्रकार दूसरों की उन्नति के साधन एकत्र करके उनका हित करो |

संसार में ज्ञान के प्रकाश का विस्तार करो, प्रकाश सिर्फ प्रकाश लाओ | गरीबों में ज्ञान का विस्तार करो, धनिकों पर और भी अधिक प्रकाश डालो, क्योंकि दरिद्रों की अपेक्षा धनिकों को प्रकाश की अधिक आवश्यकता है | अपढ़ लोगों को भी प्रकाश दिखाओ, शिक्षित मनुष्यों के लिए और अधिक प्रकाश चाहिए, क्योंकि आजकल शिक्षा और धन का मिथ्याभिमान खूब प्रबल हो रहा है | इस्सी तरह सबके निकट प्रकाश का विस्तार करो और शेष सब भगवान पर छोड़ दो, क्योंकि स्वयं भगवान के शव्दों में –

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
माकर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोSस्त्वकर्मणि ||

कर्म में ही तुम्हारा अधिकार है, फल में नहीं, तुम इस भाव से कर्म मत करो जिससे तुम्हे फल भोग करना पड़े |

- सारा पाश्चात्य जगत मानो एक ज्वालामुखी पर स्थित है, जो कल ही फूटकर उसे चूर चूर कर सकता है | उन्होंने सारी दुनिया छान मारी किन्तु उन्हें तनिक भी शान्ति नहीं मिली | उन्होंने इन्द्रिय सुख का प्याला पीकर खाली कर डाला, पर फिर भी उससे उन्हें तृप्ति नहीं मिली | भारत के धार्मिक विचारों को पाश्चात्य देशों की नस नस में भर देने का यही समय है | इसलिए मद्रासी नवयुवको हमें बाहर जाना ही होगा, अपनी आध्यात्मिकता तथा दार्शनिकता से हमें जगत को जीतना होगा | दूसरा कोई उपाय ही नहीं है, अवश्यमेव इसे करो, या मरो | राष्ट्रीय जीवन, सतेज और प्रवुद्ध राष्ट्रीय जीवन के लिए बस यही एक शर्त है कि भारतीय विचार विश्व पर विजय प्राप्त करे |

साथ ही हमें यह ना भूलना चाहिए कि मेरा आशय आध्यात्मिक विचारों की विश्व विजय से है, उन सिद्धांतों के प्रचार से जिनसे जीवन संचार हो, नाकि उन सैंकड़ों कुसंस्कारों से, जिन्हें हम सदियों से अपनी छाती से चिपकाए बैठे हैं | इनको तो हमें भारत भूमि से भी उखाड़कर दूर फेंक देना चाहिए, जिससे वे सदा के लिए नष्ट हो जाएँ | इसी प्रकार हमें घोर भौतिकवाद और उसकी प्रतिक्रिया से उत्पन्न हुए कुसंस्कारों से भी अवश्य बचना होगा | आज हमें एक तरफ वह मनुष्य दिखाई पड़ता है, जो पाश्चात्य ज्ञान रूपी मदिरा से मत्त होकर अपने को सर्वज्ञ समझता है | वह प्राचीन ऋषियों की हंसी उड़ाया करता है | उसके लिए हिन्दुओं के सब विचार बिलकुल बाहियात चीज हैं, हिन्दू दर्शन शास्त्र बच्चों का कलरव मात्र है और हिन्दू धर्म मूर्खों का अंधविश्वास मात्र | दूसरे तरफ वह आदमी है जो शिक्षित तो है, पर जिस पर किसी एक चीज की सनक सवार है और वह उल्टी राह लेकर एक छोटी सी बात का अलौकिक अर्थ निकालने की कोशिश करता है | कुसंस्कारों को उचित सिद्ध करने के लिए दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा बचकाने न जाने क्या क्या तर्क उसके पास सदा मौजूद रहते हैं | इन दोनों संकटों से बचो | हमें निर्भीक साहसी मनुष्यों का ही प्रयोजन है | हमें खून में तेजी और स्नायुओं में बल की आवश्यकता है – लोहे के पुट्ठे और फौलाद के स्नायु चाहिए, नाकि दुर्बलता लाने बाले वाहियात विचार |

- अतीत से ही भविष्य का निर्माण होता है | अतः जहां तक हो सके अतीत की ओर देखो, पीछे जो चिरंतन निर्झर बह रहा है, आकंठ उसका जल पियो, उसके बाद सामने देखो और भारत को उज्वलतर महत्तर और पहले से भी ऊंचा उठाओ | हमारे पूर्वज महान थे, उस खून पर हमें विश्वास करना होगा और अतीत के उनके कृतित्व पर भी | इस विश्वास और अतीत गौरव ज्ञान से हम अवश्य एक ऐसे भारत की नींव डालेंगे, जो पहले से श्रेष्ठ होगा | यहाँ बीच में दुर्दशा और अवनति के युग रहे हैं, पर मैं उनको अधिक महत्व नहीं देता | किसी विशाल वृक्ष से एक सुन्दर पका हुआ फल पैदा हुआ, फल जमीन पर गिरा, मुरझाया और सडा, इस विनाश से जो अंकुर उगा, संभव है वह पहले के वृक्ष से भी बड़ा हो जाए | अवनति के बाद भविष्य का भारत अंकुरित हो रहा है, उसके नवपल्लव निकल चुके हैं, ऊर्ध्वमूल वृक्ष का निकलना प्रारम्भ हो चुका है |

- वर्तमान समय में हम कितने ही राष्ट्रों के विषय में जानते हैं, जिनके पास विशाल ज्ञान का भंडार है, परन्तु इससे क्या ? वे बाघ की तरह नृशंस हैं, वे बर्बरों के सद्रश हैं, क्योंकि उनका ज्ञान संस्कार में परिणित नहीं हुआ |

- शिकागो की धर्म महासभा का यथार्थ इतिहास मैं तुम्हें सुना देना चाहता हूँ | महासभा के कुछ व्यक्तियों की इच्छा थी कि वे ईसाई धर्म की प्रतिष्ठा करें और दूसरे धर्मों को हास्यास्पद सिद्ध करें | परन्तु फल कुछ और ही हुआ | विधाता के विधान में वैसा ही होना था |

- उपनिषद् अनेक हैं | कोई कोई कहते हैं कि उनकी संख्या एक सौ आठ है | कुछ लोग और भी अधिक बताते हैं | उनमें से कुछ स्पष्ट ही आधुनिक हैं, यथा अल्लोपनिषद | उसमें अल्लाह की स्तुति है और मुहम्मद को रसूलल्ला कहा गया है | मैंने सुना है कि इसे अकबर के राज्य काल में हिन्दू मुसलमानों में मेल कराने की दृष्टि से रचा गया था | इसका तात्पर्य चाहे कुछ हो, पर इस प्रकार के और भी अनेक सांप्रदायिक उपनिषद हैं |

- न तत्र सूर्योभाति न चन्द्र तारकं नेमा विद्युतो भांति कुतोSयमग्निः |
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्यभासा सर्वमिदं विभाति ||

(वहां न सूर्य का प्रकाश है, न चन्द्र तारकाओं का, यह विजली उसे प्रकाशित नहीं कर सकती, तो मृत्युलोक की इस अग्नि की बात ही क्या ? उसीके प्रकाश से सब कुछ प्रकाशित होता है |)

- वरमेको गुणी पुत्रो न च मूर्ख शतान्यपि |
एकश्चंद्रस्तमो हन्ति न च तारागणोSपि च ||

- भक्तश्रेष्ठ हनुमान ने कहा है –

श्रीनाथे जानकीनाथे अभेदः परमात्मानि |
तथापि मम सर्वस्वं रामः कमल लोचनः ||

- मनु स्मृति में लिखा है कि जल में नहीं थूकना चाहिए, किन्तु हम नदियों में हर प्रकार का मैला फेंकते हैं |

- यह सत्य है कि संसार को समय समय पर आलोचना की आवश्यकता होती है, यहाँ तक कि कठोर आलोचना की भी | किन्तु केवल अल्प काल के लिए | हमेशा के लिए तो उन्नतिकारी और रचनात्मक कार्य ही वांछित होते हैं | बस करो | निंदा पर्याप्त हो चुकी | दोष दर्शन पर्याप्त हो चुका | अब तो पुनर्निर्माण का, फिर से संगठन करने का समय है | आर्य संतानो, अब आगे बढ़ो |

- हम बचपन में किस्सा सुना करते थे कि कुछ सर्पों के फन में मणि होती है, और जब तक वह मणि वहां है, तब तक उस सर्प को मारने का कोई भी प्रयत्न सफल नहीं हो सकता | इसी प्रकार किस्से कहानियों में दैत्यों और दानवों की कहानियां पढी हैं, जिनके प्राण हीरामन तोते के कलेजे में बंद रहते हैं | जब तक हीरामन तोते की जान में जान रहेगी, तब तक उस दानव का बाल भी बांका नहीं होगा, चाहे तुम उसके टुकडे टुकडे ही क्यों न कर डालो | राष्ट्र विशेष का जीवन भी उसी प्रकार मानो किसी विन्दु में केन्द्रित रहता है | जब तक उस मर्म स्थान पर चोट नहीं पड़ती, तब तक वह राष्ट्र मर नहीं सकता |

हमारी इस श्रद्धास्पद मातृभूमि पर बारम्बार बर्बर जातियों के आक्रमणों के दौर आते रहे हैं | ‘अल्लाहो अकबर’ के नारों से भारत गगन सदियों तक गूंजता रहा है और मृत्यु की अनिश्चित छाया प्रत्येक हिन्दू के सिर पर मंडराती रही है | संसार के इतिहास में इस देश से अधिक दुःख पाने बाला तथा अधिक पराधीनता भोगने बाला और कौन देश है ? पर तो भी हम जैसे पहले थे, आज भी लगभग बैसे ही बने हुए हैं | इतना ही नहीं दूसरों को अपने विचार देने के लिए भी उद्यत है | हमारे भाव और विचार भारत की सरहदों के पिंजड़े में ही बंद नहीं हैं, बल्कि वे तो भारत के बाहर भी बढ़ रहे हैं | अन्य देशों के साहित्य में प्रविष्ट हो रहे हैं | इतना ही नहीं, कहीं कहीं तो वे आदेशदाता गुरू के आसन तक पहुँच गए हैं | उसने संसार को ऐसे दर्शन और धर्म का दान दिया है, जो मानव मन को संलग्न रखने बाला सबसे अधिक महान, सबसे अधिक उदात्त और सबसे अधिक श्रेष्ठ विषय है | वेद के पृष्ठों से उसी महान ध्येय की प्रतिध्वनी सुनायी देती है – अथ परा, यया तदक्षरमधिगम्यते – “वही परा विद्या है, जिससे हमें उस अविनाशी पुरुष की प्राप्ति होती है |

हमारे पुर्वज यदि चाहते, तो ऐसे विज्ञानों का अन्वेषण सहज ही कर सकते थे, जो हमें केवल अन्न, वस्त्र और अपने साथियों पर आधिपत्य दे सकते थे, जो हमें केवल दूसरों पर विजय प्राप्त करना और उन पर प्रभुत्व करना सिखाते, जो बली को निर्बल पर हुकूमत करने की शिक्षा देते | पर उस परमेश्वर की अपार कृपा से हमारे पूर्वजों ने उस ओर बिलकुल ध्यान नहीं दिया | एकदम दूसरी दिशा पकड़ी, जो पूर्वोक्त मार्ग से अनंत गुना श्रेष्ठ और महान थी | यही हमारी जाति का वैशिष्ट्य है और उस पर कोई आघात नहीं कर सकता | बर्बर जातियों ने यहाँ आकर तलवारों और तोपों के बल पर अपने बर्बर धर्मों का प्रचार किया, पर उनमें से एक भी हमारे मर्मस्थल को स्पर्श न कर सका, सर्प की उस मणि को न छू सका, जातीय जीवन के प्राणस्वरुप उस हीरामन तोते को न मार सका |

यदि हम अपनी इस सर्वश्रेष्ठ विरासत आध्यात्मिकता को न छोड़ें तो संसार के सारे अत्याचार – उत्पीडन और दुःख हमें बिना चोट पहुंचाए ही निकल जायेंगे और हम लोग दुःख कष्टाग्नि की उन ज्वालाओं से प्रहलाद के समान बिना जले बाहर निकल जायेंगे | अपनी बिखरी हुई आध्यात्मिक शक्तियों को एकत्रित करना ही भारत में जातीय एकता स्थापित करने का एकमात्र उपाय है | जिनकी ह्रत्तंत्री एक ही आध्यात्मिक स्वर में बंधी है, उन सबके सम्मिलन से ही भारत संगठित होगा | सम्प्रदायों का होना तो स्वाभाविक है, परन्तु जिसका होना आवश्यक नहीं है, वह है इन सम्प्रदायों के बीच के झगड़े झमेले | सम्प्रदाय अवश्य रहें पर साम्प्रदायिकता दूर हो जाए | हमारे प्राचीनतम शास्त्रों ने घोषणा की है – एकं सद्विप्रा वहुधा वदन्ति – “विश्व में एक ही सद्वस्तु विद्यमान है, ऋषियों ने उसी एक का भिन्न भिन्न नामों से वर्णन किया है | अतः ऐसे भारत में जहां सभी सम्प्रदाय सदैव समान रूप से सम्मानित होते आये हैं, सम्प्रदायों के बीच ईर्ष्या द्वेष लड़ाई झगड़े होते रहें, तो धिक्कार है हमें, जो उन महिमान्वित महापुरुषों का स्वयं को वंशधर बताने का दुस्साहस करें |

- समानता के आधार वेद, ईश्वर, अनादि अनंत प्रकृति, आत्मा, पुनर्जन्म |

- हम लोग वहुधा अर्थहीन वागाडम्बर को ही आध्यात्मिक तथ्य समझ बैठते हैं, पांडित्य से भरी सुललित वाक्य रचना को ही गंभीर धर्मानुभूति समझ लेते हैं | इसीसे यह सारी साम्प्रदायिकता आती है, सारा विरोध भाव उत्पन्न होता है | यथार्थ धार्मिक वही है जिसने ईश्वर के दर्शन पाए हैं, जिसने अंतर में उसकी प्रत्यक्ष उपलव्धि की है | जो हमारे निकट से भी निकट और दूर से भी दूर है, उसे देखने बाले के सारे संशय दूर हो जाते हैं, ह्रदय की गाठें खुल जाती हैं और वह कर्मफल के समस्त बंधनों से छुटकारा पा जाता है |

भिद्यते ह्रदयग्रंथिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयः |
क्षीयंते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे || मुंडकोपनिषद ||

- गुरू गोविन्दसिंह ने देश के शत्रुओं के विरुद्ध लोहा लिया, हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपने ह्रदय का रक्त बहाया, अपने पुत्रों को अपनी आँखों के सामने मौत के घाट उतरते देखा – पर जिनके लिए उन्होंने अपना और अपने पुत्रों का खून बहाया, उन्ही लोगों ने, सहायता करना तो दूर, उलटे उन्हें त्याग दिया | यहाँ तक कि उन्हें इस प्रदेश से भी हटना पडा | अंत में मर्मान्तक चोट खाए हुए सिंह की भान्ति यह नर केसरी शान्तिपूर्वक अपने जन्मस्थान को छोड़ दक्षिण भारत में जाकर मृत्यु की राह देखने लगा, परन्तु अपने जीवन के अंतिम क्षण तक उसने अपने कृतघ्न देशवासियों के प्रति अभिशाप का एक शव्द भी मुंह से नहीं निकाला | यदि तुम देश की भलाई करना चाहते हो तो तुममें से प्रत्येक को गुरू गोविन्द सिंह बनना होगा | तुम्हें अपने देशवासियों में हजारों दोष दिखाई दें, भले ही वे तुम्हारी बुराई के लिए लाख चेष्टा करें, वे तुम पर अभिशाप और निंदा की लाख बौछार करें, तब भी तुम उनके प्रति प्रेम पूर्ण वाणी का ही प्रयोग करो | यदि वे तुम्हे त्याग दें, तुम्हे पैरों से ठुकराएँ, तो तुम उसी वीर केसरी गोविन्दसिंह की भान्ति समाज से दूर जाकर नीरव भाव से मौत की राह देखो | जो ऐसा कर सकता है, वही सच्चा हिन्दू कहलाने का अधिकारी है | हमें अपने सामने इसी प्रकार का आदर्श उपस्थित रखना होगा | पारस्परिक विरोध भाव को भूलकर चारों ओर प्रेम का प्रवाह बहाना होगा |

- दूसरे का अनुकरण ना करो, हाँ दूसरों के पास जो कुछ अच्छाई हो उसे अवश्य ग्रहण करो | एक बीज की तरह जो बोये जाने पर मिट्टी हवा पानी से रस खींचकर विशाल रूप ग्रहण तो करता है, किन्तु स्वयं मिट्टी, हवा या पानी नहीं हो जाता | उसी प्रकार तुम भी करो | दूसरों से उत्तम बातें सीखकर उन्नत बनो |

- कमरे में यदि सैंकड़ों वर्षों से अन्धकार फैला हुआ है, तो क्या घोर अन्धकार, भयंकर अन्धकार कहकर चिल्लाने से अन्धकार दूर हो जाएगा ? नहीं ! रोशनी जला दो, फिर देखो, अँधेरा अपने आप दूर होता है या नहीं | मनुष्य के सुधार का, उसके संस्कार का यही रहस्य है | उसके समक्ष उच्चतर बातें, उच्चतर प्रेरणाएं रखो | यदि तुमने उसे सत्य का ज्ञान करा दिया, तो निश्चय जानो मिथ्याभाव अवश्य दूर हो जाएगा |

- भारत का हरएक धर्माभिमानी सम्प्रदाय – चाहे वह द्वैतवादी हो, अद्वैतवादी या वैष्णव हो – उपनिषद्, गीता तथा व्यास सूत्र को प्रामाणिक ग्रन्थ मानता है | ये ही तीनों प्रस्थानत्रय कहे जाते हैं |

- सम्पूर्ण उपनिषदों का लक्ष्य एक है, कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति (मुंडकोपनिषद) – वह कौन सी वस्तु है, जिसे जान लेने पर सम्पूर्ण विज्ञान करतलगत हो जाता है ? विभिन्न स्तरों और अनंत लोकों के भीतर एकत्व का आविष्कार करना ही उपनिषदों का लक्ष्य है | जिस प्रकार अरुंधती जैसे छोटे नक्षत्र को देखने के लिए पहले किसी पास बाले बड़े उज्वलतर बड़े तारे को देखकर उस पर दृष्टि स्थिर करनी होती है, उसी प्रकार सूक्ष्मतम ब्रम्हतत्व समझाने के लिए ऋषियों ने स्थूल भावों के उपदेश देकर प्रयत्न किया है | प्रायः प्रत्येक अध्याय द्वैतवाद या उपासना के उपदेश से प्रारम्भ होता है | पहले शिक्षा दी गई है कि ईश्वर संसार का सृष्टिकर्ता है, संरक्षक है और अंत में प्रत्येक वस्तु उसीमें विलीन हो जाती है | वही शासक है, हमारा उपास्य है, वही बहिर्प्रकृति और अंतर्प्रकृति का प्रेरक है, मानो प्रकृति के बाहर है | एक कदम आगे जाकर आचार्य बतलाते हैं कि ईश्वर प्रकृति के बाहर नहीं, बल्कि प्रकृति में अंतर्व्याप्त है | अंत में दोनों भाव छोड़ दिए गए, और जो कुछ है सब वही है – कोई भेद नहीं "तत्वमसि श्वेतकेतो” – हे श्वेतकेतु तू वही हो, यह घोषणा की गई |

आधुनिक विज्ञान ने आविष्कृत किया कि ताप, विद्युत्, चुम्बक आदि जितनी भी शक्तियां हैं, वे एक ही शक्ति में परिवर्तित की जा सकती हैं | यही बात संहिता में भी पाई जाती है, अति प्राचीन होते हुए भी उसमें शक्ति विषयक यही सिद्धांत मिलता है | जितनी शक्तियां हैं, चाहे उन्हें गुरुत्वाकर्षण कहो, आकर्षण या विकर्षण कहो, ताप कहो या विद्युत्, मनुष्यों के बाह्य इन्द्रियों का व्यापार कहो या उनके अंतःकरण की चिंतन शक्ति, हैं सब एक ही शक्ति से उद्भूत, जिसे प्राण शक्ति कहते हैं |

अब प्रश्न उठ सकता है कि प्राण क्या है ? प्राण स्पंदन या कम्पन है | जब सम्पूर्ण ब्रम्हांड का विलय इसके चिरंतन स्वरुप में हो जाता है, तब भी इन अनंत शक्तियों का लोप नहीं होता | क्योंकि गति तो तरंगाकार संचरण है जो उठती है, गिरती है, फिर उठती है, फिर गिरती है | इसी जगत प्रपंच के विकास को हमारे शास्त्रों में सृष्टि कहा गया है | प्रलय होने पर जगत प्रपंच सूक्ष्मातिसूक्ष्म होकर अपनी प्राथमिक अवस्था में कुछ काल शांत रहकर, पुनः विकसित होता है | यही सृष्टि है |

वैदिक सूक्तों के आनीदवातं – वह गतिहीन भाव से स्पंदित हुआ था | यहाँ का वात शव्द कभी गति तो कभी वायु का आभास देता है | सर्व भूतों में ओतप्रोत शक्तियां प्रलयकाल में आकाश में लीन हो जाती हैं | यह आकाश ही आदिभूत है | यही आकाश प्राण की शक्ति से स्पंदित होता रहता है | ज्यों ज्यों प्राण का स्पंदन द्रुत होता है, त्यों त्यों पुनः आकाश की तरंगें क्षुब्ध होती हुई सूर्य, चन्द्र, गृह, नक्षत्र आदि के आकार धारण करती जाती हैं | तब हम पढ़ते हैं“यदिदं किंच जगत सर्वं प्राण एजति निःसृतम” |(ऋग्वेद) “इस संसार में जो कुछ है, प्राण के कम्पित होने से निसृत होता है” | एज धातु का अर्थ होता है कांपना | इस प्रकार सूक्ष्मतर तत्व से स्थूलतर तत्व की उत्पत्ति होती है |

यहाँ तक विश्लेषण करने पर भी हमने देखा कि सम्पूर्ण संसार दो तत्वों में परिभाषित किया गया है | शक्ति तत्व के एकत्व को प्राण तथा जड़ तत्व के एकत्व को आकाश कहा गया है | क्या इन दोनों में भी कोई एकत्व संभव है ? हमारा आधुनिक विज्ञान यहाँ मूक है | भारतीय चिंतन के अनुसार जिस एक तत्व से आकाश और प्राण की सृष्टि हुई है वह सर्व व्यापी निर्गुण तत्व है - “व्रह्म” | विश्लेषण आगे भी अग्रसर होता है | “यथा पिंडे तथा ब्रम्हांडे” – हर एक मनुष्य मानो एक क्षुद्र ब्रम्हांड है और सम्पूर्ण जगत विश्व ब्रम्हांड है | जो कुछ व्यष्टि में हो रहा है, वही समष्टि में भी होता है |

अतः यदि हम अपने मन का विश्लेषण कर सकें तो समष्टि मन में क्या होता है, उसका भी बहुत कुछ निश्चित अनुमान लगा सकते हैं | अब प्रश्न यह है कि यह मन है क्या चीज ? हमारा यह जो स्थूल शरीर है, इसके पश्चात सूक्ष्म शरीर अर्थात मन है | यह भी जड़ है, केवल सूक्ष्मतर जड़ – किन्तु यह आत्मा नहीं है | आत्मा मनुष्य के भीतर यथार्थ मनुष्य है, जो जड़ को अपने यंत्र के रूप में संचालित करती है | मन अंतरिन्द्रियों की सहायता से शरीर की दृश्यमान वाह्य इन्द्रियों पर काम करता है | आधुनिक विज्ञान जान चुका है कि नेत्र वास्तव में द्रश्य इन्द्रिय नहीं हैं | यथार्थ दृष्टि तो भीतर रहने बाले मस्तिष्क के केंद्र समूहों की है | भारतीय दर्शन के अनुसार विगत से ही जाना माना गया कि आँख, कान, नाक इन्द्रिय समूहों की समष्टि मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के साथ मिलकर मस्तिष्क के नाम से पुकारी जाती है | जिसे आधुनिक शरीर विज्ञानी माइंड कहते हैं, वे तो वहां तक अब पहुँच पाए हैं |

अब हम चित्त की मीमांसा करें | विभिन्न अवस्थाओं के साथ मन का ही एक साधारण नाम चित्त है | उदाहरणार्थ किसी शांत झील की कल्पना करें जिस पर कोई तरंग नहीं है | किन्तु यदि उस पर कोई पत्थर फेंक दिया जाये तो क्या होगा ? पहले पानी पर जो आघात हुआ, वह एक क्रिया हुई | इसके पश्चात पानी उठकर पत्थर की ओर प्रतिक्रया करने लगा और उसी प्रतिक्रया ने तरंग का रूप धारण कर लिया | इस झील को चित्त समझो | इन्द्रियों की सहायता से वाह्य बस्तुओं के संपर्क के कारण जो तरंग उत्पन्न होती है, वह है संकल्प विकल्पात्मक मन | प्रतिक्रिया है निश्चयात्मक बुद्धि जिसके साथ साथ अहम ज्ञान और बाहरी वस्तु का बोध पैदा होता है | जैसे हमारे हाथ पर मच्छर ने बैठकर डंक मारा, संवेदना हमारे चित्त तक पहुंची, चित्त ज़रा काँप उठा – हमारे मनोविज्ञान के मत से वही मन है | इसके बाद प्रतिक्रिया उठी और साथ ही साथ यह भाव भी कि मच्छर को भगाना चाहिए | यहाँ यह भेद जरूर ध्यान रखना चाहिए की झील पर जितने आघात होते हैं, सब बाहर से आते हैं, किन्तु मन की झील में बाहर से भी आघात हो सकते हैं और अन्दर से भी | चित्त और उसकी भिन्न भिन्न अवस्थाओं का नाम ही अंतःकरण है |

बाहरी संसार से हम आघात भर पाते हैं | उस आघात के प्रति चैतन्य होने में भी हमें प्रतिक्रया अपने भीतर से ही करनी होती है | वास्तव में तो बहिर्जगत को हम मन द्वारा ढाले गए सांचे के अनुरूप ही देखते हैं | हम आत्मा को भी जानना चाहें तो उसे भी हम मन के भीतर से ही समझेंगे | इस आत्मा के सम्बन्ध में जो कुछ हम जानते हैं वह ‘आत्मा * मन’ के अतिरिक्त कुछ नहीं | देह और मन दोनों ही सतत परिवर्तनशील हैं | देह में प्रतिक्षण नए पदार्थ आ रहे हैं और पुराने निकलते जा रहे हैं | जैसे एक बहती हुई नदी में सलिल राशि सदा ही एक स्थान से दूसरे स्थान की और जा रही है | किन्तु फिर भी हम अपनी कल्पना के बल पर उसके समस्त अंशों को एक मानकर उसे एक ही नदी मानते हैं | देह के सामान ही मन भी सतत परिवर्तनशील है | इतना होने पर भी हमारे भीतर कोई एक वास्तु ऐसी है जो सदा अपरिवर्तनीय है | अवश्य वह ऐसी वस्तु है जो न देह है और ना ही मन | जिसमें आकर हमारे समस्त भाव, बाहर के समस्त विषय एक अखंड भाव में परिणत हो जाते हैं | यही वास्तव में हमारी आत्मा है |

- बौद्ध वैष्णवों से कहते हैं कि यदि तुम्हारा आदर्श, तुम्हारे जीवन का लक्ष्य और उद्देश्य भगवान के बैकुंठ नामक स्थान में जाकर अनंत काल तक हाथ जोड़कर उनके सामने खडा रहना ही है तो इससे आत्महत्या कर डालना ज्यादा अच्छा है |

- संसार में “सृ” धातु का अर्थ होता है सरकना या गति | उसी प्रकार जगत में गम धातु भी समानार्थी है | अतः चाहे संसार हो या जगत दोनों का अर्थ है – अविराम गति |

- “विज्ञातारमरे केन विजानीयात” (वृहदारण्यकोपनिषद) – विज्ञाता को किस प्रकार जाना जाता है ? आँखें बस्तुओं को देखती हैं, किन्तु क्या वे स्वयं को देख सकती हैं ?

- जो साक्षी स्वरुप है वही वास्तव में आनंदोपभोग कर सकता है | अगर कहीं कुश्ती लड़ी जाती है तो अधि आनंद किसे आता है ? कुश्ती लड़ने बालों को या जो दर्शक कुश्ती देख रहे है उनको ? इस जीवन में जितना तुम साक्षी स्वरुप हो सकोगे उतना ही तुम्हे अधिक आनंद मिलता रहेगा |

- जो महात्मा अपनी आत्मा को सब भूतों में स्थित देखता है और आत्मा में सब भूतों को देखता है, वह इस प्रकार ईश्वर को सर्वत्र सम भाव से अवस्थित देखता हुआ आत्मा द्वारा आत्मा की हिंसा नहीं करता | - गीता

- मैं एक छोटा सा बुलबुला हो सकता हूँ, तुम पर्वताकार ऊंची तरंग हो सकते हो, परन्तु यह समझ रखो कि हम दोनों के लिए पृष्ठभूमि अनंत समुद्र ही है | हम दोनों क्षुद्र हों या महान, शक्ति के भण्डार अनंत ब्रम्ह से अपनी इच्छानुसार शक्ति संग्रह कर सकते हैं |

- केवल वे ही राष्ट्र प्रबल और महान हो सके हैं, जो आत्मविश्वास रखते हैं | इसी प्रकार जिन व्यक्तियों ने अपने पर विश्वास किया वे ही महान तथा सबल हो सके | यहाँ, इस भारत में एक अंग्रेज आया था, वह एक साधारण क्लर्क | इतना साधारण की आर्थिक तंगी के चलते उसने दो बार सिर में गोली मारकर आत्म ह्त्या की चेष्टा भी की | किन्तु दोनों बार बचने के बाद उसे लगा कि मैं शायद कुछ बड़े काम करने को पैदा हुआ हूँ – वही लार्ड क्लाईव अंग्रेजी राज्य का भारत में प्रतिष्ठाता बन गया |

- “स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात” (गीता) - इस धर्म का अल्प मात्र उपयोग भी बड़े बड़े भय से हमारा उद्धार कर सकता है |

- जब तक तुम लोग उसी एक भगवान को सर्वत्र एक ही भाव से अवस्थित नहीं देखते, तब तक तुम्हारे भीतर वह प्रेम पैदा नहीं हो सकता – उसी प्रेम की पताका फहराओ | उठो जागो, जब तक लक्ष्य पर नहीं पहुंचते तब तक मत रुको | ईसाईयों की भाषा में कहता हूँ – तुम ईश्वर और शैतान की सेवा एक साथ नहीं कर सकते | तुम्हारे पूर्व पुरुषों ने बड़े बड़े काम करने के लिए संसार का त्याग किया है | तुम भी सब कुछ दूर फेंको | यहाँ तक कि अपनी मुक्ति का विचार भी दूर रखो – जाओ, दूसरों की सहायता करो | यदि यह जाति बची रही तो तुम्हारे और हमारे जैसे हजारों आदमियों के भूखों मरने से भी क्या हानि है ? यह जाति डूब रही है | लाखों प्राणियों का शाप हमारे सर पर है, सदा ही अजस्त्र जलधार वाली नदी के समीप रहने के बाद भी हमने उन्हें नाबदान का पानी दिया | उन अगणित लाखों मनुष्यों का, जिनके सामने भोजन के भण्डार रहते हुए भी जिन्हें हमने भूखों मार डाला, जिन्हें हमने अद्वैतवाद का तत्व तो सुनाया, पर तीव्र घृणा भी की | जिनके विरोध में हमने लोकाचार का आविष्कार किया | सब बराबर हैं, सबमें एक हूँ ब्रम्ह है – यह मौखिक तो कहते रहे – पर इस उक्ति को व्यवहार में लाने का रंच मात्र भी प्रयत्न नहीं किया | हरे ! हरे ! अपने चरित्र का यह दाग मिटा दो | उठो, जागो | सभी मरेंगे – साधु या असाधु, धनी या दरिद्र – सभी मरेंगे | चिर काल तक किसी का शरीर नहीं रहेगा | अतएव उठो, जागो और पूर्ण रूप से निष्कपट हो जाओ | भारत में घोर कपट समा गया है | चाहिए चरित्र, चाहिए इस तरह की द्रढता और चरित्र का बल जिससे मनुष्य आजीवन दृढव्रती बन सके | ‘नीतिनिपुण मनुष्य चाहे निंदा करें चाहे स्तुति, लक्ष्मी आये या चली जाए, मृत्यु आज ही हो चाहे शताव्दी के पश्चात, जो धीर हैं वे न्यायमार्ग से एक पग भी नहीं हिलते |

उठो जागो, समय बीता जा रहा है और व्यर्थ के वितंडावाद से हमारी सम्पूर्ण शक्ति का क्षय होता जा रहा है | उठो, जागो, छोटे छोटे विषयों और मतमतान्तरों को लेकर व्यर्थ का विवाद मत करो | तुम्हारे सामने सबसे महान कार्य पडा हुआ है – लाखों आदमी डूब रहे हैं, उनका उद्धार करो | इस बात पर अच्छी तरह ध्यान दो कि मुसलमान जब भारत में पहले पहल आये थे, तब भारत में कितने अधिक हिन्दू रहते थे | आज उनकी संख्या कितनी घट गई है | यदि इसका कोई प्रतिकार नहीं हुआ तो यह संख्या दिन पर दिन घटती ही जायेगी | अंततः वे पूर्णतः विलुप्त हो जायेंगे | हिन्दू जाति लुप्त होती है तो होने दो, लेकिन यह तो विचार करो कि उसके सेकड़ों दोष रहने पर भी, संसार के सम्मुख उनके सेंकडों विकृत चित्र उपस्थित करने के बाद भी, वे जिन महान भावों के प्रतिनिधि स्वरुप हैं, वे भी लुप्त हो जायेंगे | और उनके लोप के साथ साथ सारे अध्यात्म ज्ञान शिरोभूषण अपूर्व अद्वैत तत्व भी लुप्त हो जाएगा | अतएव उठो, जागो, संसार की आध्यात्मिकता की रक्षा के लिए हाथ बढाओ | हमने अध्यात्म की उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी अद्वैतवाद को थोडा कार्य रूप में परिणित करने की | गरीब बेचारे भूखों मर रहे है, और हम उन्हें आवश्यकता से अधिक धर्मोपदेश दे रहे हैं | हमारे दो दोष बड़े प्रबल हैं | पहला दोष हमारी दुर्बलता है और दूसरा है घृणा करना, हृदयहीनता | लाखों मतमतान्तरों की बात कर सकते हो, करोड़ों सम्प्रदाय संगठित कर सकते हो, परन्तु जब तक उनके दुःख को अपने ह्रदय में अनुभव नहीं करते, तब तक कुछ न होगा | वैदिक उपदेशों के अनुसार जब तक स्वयं नहीं समझते कि वे तुम्हारे ही शरीर के अंश हैं, तब तक कुछ न होगा | जब तक तुम और वे – धनी और दरिद्र, साधू और असाधु सभी उस अनंत पूर्ण के, जिसे तुम ब्रम्ह कहते हो, अंश नहीं हो जाते, तब तक कुछ न होगा |

यूरोप और अमेरिका में भी इस अद्वैतवाद का कुछ अंश जाना चाहिए | पश्चिमी सभ्यता की भी इससे रक्षा होगी | कारण, पश्चिमी देशों में कांचन की पूजा के रूप में शैतान की पूजा प्रवर्तित हुई है | कोई भी राष्ट्र हो, चाहे वह कितना ही प्रबल क्यों न हो, ऐसी बुनियाद पर कभी नहीं टिक सकता | संसार का इतिहास हमसे कह रहा है, जिन किन्ही लोगों ने ऐसी बुनियाद पर अपने समाज की रचना की, वे विनष्ट हो गए | भारत में कांचन पूजा की यह तरंग न आ सके, उसकी ओर पहले से ही नजर रखनी होगी | परन्तु सबसे पहले तुम्हे याद दिलाता हूँ कि व्यावहारिक कार्य की आवश्यकता है, और उसका प्रथामांश यह है कि घोर से घोरतम दारिद्र्य और अज्ञान तिमिर में डूबे हुए साधारण लाखों भारतीयों की उन्नति साधना के लिए उनके समीप जाओ | उनको अपने हाथ का सहारा दो और भगवान कृष्ण की यह वाणी याद रखो :-

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः |
निर्दोषं हि समं ब्रम्ह तस्मादब्रम्हणी ते स्थिताः || (गीता)

(जिनका मन इस समय साम्य भाव में अवस्थित है, उन्होंने इस जीवन में ही संसार पर विजय प्राप्त कर ली है | चूंकि ब्रम्ह निर्दोष और सबके लिए सम है, इसलिए वे ब्रम्ह में अवस्थित हैं |)

- पूर्व काल में हिन्दू शव्द सार्थक था और वह सिन्धु नदी के इस पार बसने बालों के लिए प्रयुक्त होता था, किन्तु इस समय यह सर्वथा निरर्थक है, क्योंकि इस समय सिन्धु नदी के इस पार नाना धर्मावलम्बी बहुत सी जातियां बसती हैं |

- सेवितव्यो महावृक्षः फलछायासमन्वितः |
यदि देवात फलं नास्ति छाया केन निवार्यते ||

(जिस वृक्ष में फल एवं छाया हो, उसी का आश्रय लेना चाहिए; कदाचित फल न भी मिले, तो भी उसकी छाया से तो कोई भी वंचित नहीं कर सकता |)

महान कार्य को इसी भावना से करना चाहिए |

- यदि वेश्याओं को दक्षिणेश्वर जैसे महान तीर्थ में जाने की अनुमति नहीं है, तब वे और कहाँ जाएँ ? ईश्वर विशेषतः पापियों के लिए प्रगट होते हैं, पुण्यवानों के लिए कम | जो लोग मंदिर में भी यह सोचते हैं कि यह वैश्या है, यह मनुष्य नीच जाति का है, दरिद्र है तथा यह मामूली आदमी है – ऐसे सज्जनों की संख्या जितनी कम हो उतना ही अच्छा | मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि सैंकड़ों वेश्याएं आयें और उनके चरणों में अपना सर नवायें, और यदि एक भी सज्जन न आये तो कोई हानि नहीं | आओ वैश्याओ, आओ शराबियो, आओ चोरो, सब आओ – श्री प्रभु का द्वार सबके लिए खुला है | धनवान का ईश्वर के राज्य में प्रवेश करने की अपेक्षा ऊँट का सुई के छेड़ में घुसना सहज है – It is easier for a camel to pass through the eye of a niddle than for a rich man to enter the kingdom of GOD.

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