विवेकानंद साहित्य - १०


· यह सृष्टि मनुष्य की आवश्यकता के लिए है, ईश्वर की नहीं | सर्वशक्तिमान परमेश्वर को कोई भी काम करने के लिए पूर्व योजना या परिकल्पना की क्या आवश्यकता | वस्तुतः ऐसा कहना उसे सीमित करना है |

· प्राच्य और पाश्चात्य –

वर्तमान भारत – सलिल विपुला उच्छ्वासमयी नदियाँ, नदी तट पर नंदन वन को लजाने वाले उपवन,उनके मध्य में अपूर्व कारीगरी युक्त रत्नखचित संगमरमर के प्रासाद, और उनके पास ही सामने तथा पीछे गिरी हुई टूटी फूटी झोंपड़ियों का समूह, इतस्ततः जीर्णदेह छिन्न वस्त्र युगयुगान्तारीण नैराश्य व्यंजक बदनवाले नर-नारी तथा बालक-बालिकाएं, कहीं कहीं उसी प्रकार की गायें-भेन्सें और बैल, चारों ओर कूड़े का ढेर – यही है हमारा वर्तमान भारत |

अट्टालिकाओं से सटी हुई जीर्ण कुटियां, देवालयों के अहाते में कूड़े का ढेर, रेशमी वस्त्र पहने हुए धनिकों के बगल में कौपीनधारी, प्रचुर अन्न से तृप्त व्यक्तियों के चारों और क्षुधाक्लांत ज्योतिहीन चक्षुवाले कातर द्रष्टि लगाए हुए लोग – यही है हमारी जन्म भूमि |

पाश्चात्य की द्रष्टि में प्राच्य – हैजे का भीषण आक्रमण, महामारी का उत्पात, मलेरिया का अस्थिमज्जा चर्वण, बीच बीच में महाकाल स्वरुप दुर्भिक्ष का महोत्सव, रोग शोक का कुरुक्षेत्र, आशा उद्यम- आनंद एवं उत्साह से परिलुप्त महाश्मशान और उसके मध्य में ध्यान मग्न मोक्ष परायण योगी – यूरोपीय पर्यटक यही देखते हैं |

तीस कोटि मानवाकार जीव – बहु शताब्दियों से स्वजाति-विजाति, स्वधर्मी-विधर्मी के दबाब से निपीड़ित प्राण, दाससुलभ परिश्रम सहिष्णु, दासवत उद्यमहीन, दासोचित ईर्ष्यापरायण, आशा हीन- अतीतहीन- भविष्यत्विहीन, वर्तमान में किसी भी तरह केवल ‘जीवित’ रहने के इच्छुक, स्वजनोन्नति- असहिष्णु, हताशवत श्रद्धाहीन, विश्वासहीन, श्रगालवत नीच-प्रतारणा कुशल, स्वार्थपरता परिपूर्ण, बलवानों के पद चूमनेवाले, अपने से दुर्बल के लिए यम स्वरुप, बलहीनों तथा आशाहीनों के समस्त क्षुद्र कुसंस्कारों से पूर्ण, नैतिक मेरुदंडहीन,सड़े मांस में बिलबिलाते कीड़ों की तरह भारतीय शरीर में परिव्याप्त – अंग्रेजी सरकारी कर्मचारियों की द्रष्टि में हमारा यही चित्र है |

प्राच्य की द्रष्टि में पाश्चात्य – नवीन बल से मदोन्मत्त,हिताहितबोधहीन, हिंस्त्रपशुवत भयानक, स्त्रीजित, कामोन्मत्त, आपादमस्तक सुरासिक्त, आचारहीन-शौचहीन, छल-बल-कौशल से परदेश- परधनापहरण कुशल, देह्पोषण मात्र ही है जिनका जीवन – भारतवासियों की नजर में यही हैं पाश्चात्य असुर |

हम उन्हें म्लेक्ष कहते हैं, वे हमें नेटिव स्लेव | इन दोनों दृष्टियों में कुछ सत्य अवश्य है, किन्तु दोनों ही भीतर की असली बात नहीं देखते | इतने दुःख दारिद्र्य में भी बाहर का उत्पात सहकर हम भारतवासी बचे हैं, इसका अर्थ यही है कि हमारा एक जातीय भाव है, जो इस समय भी जगत के लिए आवश्यक है | यूरोपियनों में भी उसी प्रकार एक जातीय भाव है, जिसके न होने से संसार का काम नहीं चलेगा | इसीलिए वे आज इतने प्रबल हैं |

हजारों वर्ष के नाना प्रकार की विपत्तियों से जाति क्यों नहीं मरी ? विदेशी विजेताओं की चेष्टाओं में क्या कसर रही है ? तब भी सारे हिन्दू मरकर नष्ट क्यों नहीं हो गए ? भारतीय प्रदेश ऐसे मानव जनविहीन क्यों नहीं हो गए कि विदेशी उसी समय यहाँ आकर खेती-बारी करने लगते, जैसाकि आस्ट्रेलिया, अमेरिका तथा अफ्रीका आदि में हुआ तथा हो रहा है | तब हे विदेशी, तुम अपने को जितना बलवान समझते हो, वह केवल कल्पना ही है, भारत में भी बल है, सार है, इसे पहले समझ लो | और यह भी समझो कि अब भी हमारे पास जगत के सभ्यता भण्डार में जोड़ने के लिए कुछ है, इसीलिये हम बचे हैं |

इसे तुम लोग भी अच्छी तरह समझ लो, जो भीतर बाहर से साहब बने बैठे हो तथा यह कहकर चिल्लाते घूमते हो – “हमलोग नरपशु हैं, हे यूरोपवासी, तुम्ही हमारा उद्धार करो |” और यह कहकर धूम मचाते हो कि ईसामसीह आकर भारत में बैठे हैं | अजी यहाँ ईसा मसीह भी नहीं आये, जिहोबा भी नहीं आये और न आयेंगे ही | वे इस समय अपना घर संभाल रहे हैं, हमारे देश में आने का उन्हें अवसर नहीं है | इस देश में वही बूढ़े शिव सांड पर सवार होकर भारत से एक ओर सुमात्रा, बोर्निया, सेलिबिस, आस्ट्रेलिया, अमेरिका के किनारे तक डमरू बजाते एक समय घूमे थे, दूसरी ओर तिब्बत, चीन, जापान, साईबेरिया पर्यंत बूढ़े शिव ने अपने बैल को चराया था और अब भी चराते हैं | यह वही महाकाली है, जिनकी पूजा चीन जापान में भी होती है, जिसे ईसा की माँ मेरी समझकर ईसाई भी पूजा करते हैं | यह जो हिमालय पहाड़ है, इसके उत्तर में कैलाश है, वहां बूढ़े शिव का प्रधान अड्डा है | उस कैलाश को दस सिर बीस हाथ बाला रावण भी नहीं हिला सका, फिर उसे हिलाना क्या पादरी सादरी का काम है ?

वे बूढ़े शिव डमरू बजायेंगे, महाकाली बलि खायेंगी और श्रीकृष्ण बंशी बजायेंगे – यही इस देश में हमेशा होगा | यदि तुम्हे अच्छा नहीं लगता तो हट जाओ | इतनी बड़ी दुनिया तो पडी है – कहीं दूसरी जगह जाकर क्यों नहीं चरते ? इस बूढ़े शिव का अन्न खायेंगे, नमक हरामी करेंगे, और ईसा की जय मनाएंगे | धिक्कार है ऐसे लोगों को जो यूरोपियनों के सामने जाकर गिडगिडाते हैं |

अब एक दुर्भाग्य की ओर ध्यान दो | यूरोपवासियों के देवता ईसा उपदेश देते हैं कि किसी से वैर मत करो, यदि कोई तुम्हारे बाएं गाल पर चपत मारे तो दाहिना गाल भी घुमा दो, सारे कामकाज छोड़कर परलोक में जाने के लिए तैयार हो जाओ, क्योंकि दुनिया दो चार दिन में ही नष्ट हो जायेगी | और हमारे इष्ट देव ने उपदेश दिया है कि खूब उत्साह से काम करो, शत्रु का नाश करो और दुनिया का भोग करो | किन्तु सब उलटा पुलटा हो गया है | यूरोपियनों ने ईसा की बात नहीं मानी | सदा महारजोगुणी, महा कार्यशील होकर बहुत उत्साह से देश देशान्तरों के भोग और सुख का आनंद लूटते हैं और हम लोग गठरी-मोटरी बांधकर एक कौने में बैठकर रात दिन मृत्यु का ही आह्वान करते हैं और गाते हैं – 

नलिनीदलगतजलमतितरलम तद्वतजीवितमतिशयचपलम | 

कमल के पत्ते पर पडा हुआ जल जितना तरल है, हमारा जीवन भी उतना ही चपल है | यम के भय से हमारी धमनियों का रक्त ठंडा पड जाता है और सारा शरीर कांपने लगता है | इसीसे यम को भी हम पर क्रोध हो गया है और उसने दुनिया भर के रोग हमारे देश में घुसा दिए हैं | अब बताओ गीता का उपदेश किसने सूना ? यूरोपियनों ने | और ईसा की इच्छा के अनुसार कौन काम करता है ? श्री कृष्ण के वंशज | इसे अच्छी तरह से समझना होगा |

प्रजातंत्र – मेरे मित्रो, मैंने तुम्हारी पार्लियामेंट, सेनेट, वोट, मेजोरिटी, बैलेट आदि सब देखा है, शक्तिमान पुरुष जिस ओर चलने की इच्छा करते हैं समाज को उसी ओर चलाते हैं, बाक़ी लोग भेड़ों की तरह उनका अनुकरण करते हैं | तो भारत में कौन शक्तिमान पुरुष है ? वे ही जो धर्मवीर हैं | वे ही हमारे समाज को चलाते हैं | वे ही आवश्यकता होने पर समाज की रीति नीति को बदल देते हैं | हम चुपचाप सुनते हैं, और उसे मानते हैं | किन्तु यह तो हमारा सौभाग्य है कि बहुमत, वोट आदि के झमेले में नहीं पड़ना पड़ता |

यह ठीक है कि वोट, बैलट आदि द्वारा प्रजा को एक प्रकार की जो शिक्षा मिलती है, उसे हम नहीं दे पाते, किन्तु राजनीति के नाम पर चोरों का जो दल देशवासियों का रक्त चूसकर समस्त यूरोपीय देशों का नाश करता है और स्वयं मोटा ताजा बनता है, वह दल भी हमारे देश में नहीं है | घूस की वह धूम, वह दिन दहाड़े लूट, जो पाश्चात्य देशों में होती है, यदि भारत में दिखाई पड़े, तो हताश होना पड़ेगा |

घर की जोरू बर्तन मांजे, गणिका लड्डू खाय |
गली गली है गोरस फिरता, मदिरा बैठि बिकाय ||

जिनके हाथ में रूपया है, वे राज्य शासन को अपनी मुट्ठी में रखते हैं, प्रजा को लूटते हैं और उसको चूसते हैं, उसके बाद उन्हें सिपाही बनाकर देश-देशान्तरों में मरने के लिए भेज देते हैं | जीत होने पर घरद्वार धन धान्य से उनका भरेगा, प्रजा तो उसी जगह मार डाली गई |

एक बात पर विचार करके देखो | मनुष्य नियमों को बनाता है, या नियम मनुष्य को बनाते हैं ? मनुष्य रुपया पैदा करता है, या रूपया मनुष्यों को पैदा करता है ? मित्रो पहले मनुष्य बनो | तब तुम देखोगे कि बाक़ी सब चीजें स्वयं तुम्हारा अनुसरण करेंगी | मनुष्य योनी में जन्म लिया है तो अपने पीछे कीर्ति छोड़ जाओ –

तुलसी आयो जगत में, जगत हँसे तुम रोये |
ऐसी करनी कर चलो, आप हँसे जग रोये ||

अगर ऐसा कर सको, तब तो तुम मनुष्य हो, अन्यथा तुम मनुष्य किस बात के ?
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