विवेकानंद साहित्य - ८




· अविवाहित माँ जावाल के पुत्र सत्यकाम वेद्शिक्षा पाना चाहते थे | किन्तु उस समय की मान्यता के अनुसार बिना गोत्र जाने कोई गुरू बनना स्वीकार नहीं करता था | जब वालक ने माँ से अपना गोत्र पूछा तो बेचारी माँ ने कहा – “मैंने अनेक व्यक्तियों की सेवा की है, उसी अवस्था में तुम्हारा जन्म हुआ | अतएव मैं नहीं जानती कि तुम्हारे पिता कौन हैं, फिर गोत्र कैसे बताऊँ ? दृढ निश्चई बालक एक ऋषि के पास पहुंचा तथा उनसे प्रार्थना की कि वे उसे ब्रह्मचारी शिष्य के रूप में स्वीकार करें | ऋषि द्वारा गोत्र पूछे जाने पर बालक ने माँ द्वारा कही बात दोहरा दी | सुनकर ऋषि बोले – “ब्राह्मण के अतिरिक्त और कोई अपने सम्बन्ध में ऐसा लांछनकारी सत्य प्रगट नहीं कर सकता | मैं तुम्हे शिक्षा दूंगा |”

कुछ समय उपरांत गुरू ने सत्यकाम को ४०० दुर्बल गायें देकर कहा – “इन्हें लेकर तुम वन में चले जाओ, जब सब गायें एक हजार हो जाएँ, तब लौटकर चले आना |” उसने आज्ञापालन की और वह गायें लेकर वन में चला गया | कई साल बाद उस झुण्ड में से एक वृषभ ने सत्यकाम से कहा – “अब हम एक हजार हो गए, हमें तुम अपने गुरू के पास ले चलो | पर उसके पूर्व मैं तुम्हे ब्रह्म के विषय में कुछ शिक्षा दूंगा | 

सत्यकाम ने कहा – “कहिये प्रभु |” वृषभ ने कहा – “उत्तर दिशा ब्रह्म का एक अंश है, उसी प्रकार पूर्व दिशा, पश्चिम दिशा तथा दक्षिण दिशा भी उसके ही अंश हैं | अब आगे अग्नि तुम्हे शिक्षा देंगे |”

अगले दिन सत्यकाम ने गुरु के घर की ओर प्रस्थान किया | मार्ग में संध्या वंदन के समय जब अग्नि में होम करने बैठा तब अग्नि से आती वाणी सुनाई दी – “सत्यकाम, यह प्रथ्वी ब्रह्म का एक अंश है, अंतरिक्ष एक अंश है, स्वर्ग एक अंश है, समुद्र एक अंश है | आगे की शिक्षा तुम्हे पक्षी से प्राप्त होगी |” 

सत्यकाम ने अपनी यात्रा जारी रखी | अगले दिन सांध्य अग्निहोम उपरांत एक हंस उसके निकट आया और बोला – “हे सत्यकाम, यह अग्नि जिसकी तुम उपासना करते हो, ब्रह्म का एक अंश है, सूर्य एक अंश है, चन्द्र एक अंश है, विद्युत् भी एक अंश है |” 

इसी प्रकार यात्रा के अगले दिन मद्गू नामक पक्षी ने उसे शिक्षा दी – “प्राण उसका एक अंश है, चक्षु, श्रवण, एवं मन भी उसी के अंश हैं |”

इस प्रकार शिक्षा ग्रहण करते जब सत्यकाम अपने गुरू के पास पहुंचा तो उसे देखते ही गुरू बोले – “वत्स, तुम्हारा मुख ब्रह्मतेज से चमक रहा है, तुम्हे किसने शिक्षा दी ?” विनम्र शिष्य ने सब कुछ सच सच बता दिया और निवेदन किया कि अब आप मुझे उपदेश दें, क्योंकि मैंने मनीषियों से सुन रखा है कि गुरू से प्राप्त ज्ञान ही श्रेयस की और ले जाता है |” तब ऋषि ने पुनः उसे वही शिक्षा दी जो वह पहले से ही देवताओं द्वारा प्राप्त कर चुका था | अब कुछ भी शेष नहीं रहा |

· अब मैं उस विचित्र सिद्धांत की चर्चा करूंगा जिसका अधिकाँश मैं भी नहीं समझता | उपनिषद् का यह अंश जो समझ सके समझ ले - जो व्यक्ति ध्यानबल से विशुद्ध चित्त हो ज्ञान प्राप्ति उपरांत शरीर त्याग करता है, वह पहले अर्ची, उसके बाद दिन, फिर क्रमशः शुक्ल पक्ष, उत्तरायण, संवत्सर, सूर्यलोक, चन्द्र लोक, विद्युल्लोक में पहुंचता है, जहां से एक दिव्य पुरुष उसे ब्रह्मलोक में ले जाते हैं, इसी का नाम देवयान है | साधू और ग्यानी इसी मार्ग से जाकर फिर वापस नहीं आते |

जो ज्ञान प्राप्त नहीं करते हैं किन्तु जिनके शुभ कर्म हैं, वे म्रत्यु उपरांत पहले धूम्र में जाते हैं, फिर रात्री, कृष्णपक्ष, दक्षिणायन, संवत्सर में होकर पितृलोक में गमन करते हैं | वहां से आकाश में, तद्परांत चन्द्रलोक में पहुंचाते हैं | देवजन्म ग्रहण कर पुण्यक्षय होने तक वहीं रहते हैं, तदुपरांत उन्हें पुनः प्रथ्वी पर आना पड़ता है, जहां अपने कर्म फल अनुसार सद्वंश याकि नीच जन्म ग्रहण करते हैं |

· छान्दोग्य उपनिषद् में आरुणि अपने पुत्र श्वेतकेतु को उपदेश करते हैं – “जिस प्रकार मधुमक्खी विभिन्न पुष्पों से मधुसंचय करती है, किन्तु वे विभिन्न मधुकण यह नहीं जानते कि वे किस वृक्ष और किस पुष्प से आये हैं, उसी प्रकार हम सब भी उसी सत से आकर भी उसे भूल गए हैं | जो सब का सूक्ष्म सार तत्व है, जिसमें सभी सत्तावान पदार्थों की आत्मा है, वही सत है | वही आत्मा है और श्वेतकेतु, तुम वही हो |”

· जीविसार (Protoplasm)में उसका प्रथम प्रतिविम्ब प्रकाशित होता है, उसके पश्चात उद्भिद, पशु आदि उत्तरोत्तर उत्कृष्ट प्रतिबिम्बकों से, और अंत में सर्वोत्कृष्ट प्रतिबिम्ब प्रदान करने बाले माध्यम मनुष्य में | जैसे कोई मनुष्य अपना मुंह देखने की इच्छा से एक क्षुद्र कीचड़ से युक्त जलाशय में प्रयत्न करे तो केवल चहरे का आभास भर होता है, निर्मल जल में कुछ अधिक स्पष्ट, उज्वल धातु में और श्रेष्ठ, अंत में दर्पण में ठीक जैसा है, वैसा ही प्रतिबिम्ब देखता है | वही एक अनंत आत्मा, प्रथक आत्माओं के रूप में प्रतीत होने बाले असंख्य दर्पणों में प्रतिबिंबित हो रही है | यह वही है जो विश्व का आधार है, जिसे हम ईश्वर कहते हैं | वही अनंत आत्मा मनुष्य के मन का भी आधार है, जिसे हम जीवात्मा कहते हैं |

· वहां आँखें जा नहीं सकतीं, वाणी जा नहीं सकती, मन भी नहीं | हम उसे न देख पाते हैं, न जान पाते हैं | न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति, नो मनः – केनोपनिषद

· मान लो तुम सूर्य की और जाना चाहते हो, और वह संभव भी हो जाए | कुछ हजार मील उसके निकट पहुँचने पर तुमको सूर्य कुछ बड़ा दिखाई देगा | मान लो तुम उसके और निकट पहुँच जाते हो तो सूर्य को और अधिक विशाल देखोगे | अंत में तुम वास्तविक सूर्य देखोगे, करोड़ों मील विशाल | कल्पना करो कि तुम इस यात्रा के प्रथक प्रथक चरणों में सूर्य के चित्र लेते हो और बाद में उनकी तुलना करने बैठते हो | तब वे सब तुमको भिन्न भिन्न प्रतीत होंगे | क्योंकि प्रथम द्रष्टि में वह एक छोटा लाल गोला था और वास्तविक सूर्य करोड़ों मील विस्तृत | तथापि सूर्य वही था | यही बात ईश्वर के सम्बन्ध में है | अनंत सत्ता को हम भिन्न भिन्न द्रष्टि विन्दुओं से, मन के भिन्न भिन्न स्तरों से देखते हैं | निम्नतम मनुष्य उसे एक पितर के रूप में देखता है, अधिक व्यापक होने पर विश्व के नियंता के रूप में तथा उच्चतम मनुष्य उसे अपने समान ही देखता है |

· नरेंद्र के सहपाठी हरिदास के पास बी ए की परीक्षा के समय जमा करने हेतु कोलेज फीस और परीक्षा फीस की व्यवस्था नहीं थी | उस समय कालेज प्रशासन परिक्षा के समय ही सब इकट्ठी बसूली किया करता था | जो लोग असमर्थ होते थे उन्हें थोड़ी बहुत रियायत भी मिल जाया करती थी | विद्यार्थियों को फीस में छूट आदि करने का अधिकार राजकुमार नामक एक वृद्ध क्लर्क को था | राजकुमार वरिष्ठ जनों के विश्वासपात्र थे, अतः वे जो कुछ करते उसे संचालक लोग मान्य कर लेते थे | नरेंद्र ने हरिदास को आश्वस्त किया था कि वे राजकुमार से कोलेज फीस माफ़ करवा लेंगे | केवल परिक्षा फीस जमा करने से काम चल जाएगा, जिसकी व्यवस्था हरिदास ने कर ली थी | किन्तु जब नरेंद्र बहुत से छात्रों की उपस्थिति में राजकुमार से मिले और फीस माफ़ करने का आग्रह किया तो उसने साफ़ मना कर दिया और कहा – तुम्हे मुखिया बनाकर सिफारिस करने की जरूरत नहीं है, तुम जाओ अपना काम करो, इन बातों में मत उलझो, यदि वह फीस नहीं देगा तो परीक्षा में नहीं बैठ पायेगा |

बेचारे हरिदास की तो सिट्टी पिट्टी गुम हो गई | किन्तु नरेंद्र ने हिम्मत नहीं हारी | वे कालेज से घर ना जाकर सिमुलिया बाजार में टहलने लगे | बीच बीच में वे हेदो तालाब की तरफ देख लेते थे | बाजार में ही एक गली में नशाखोरों का अड्डा था | जब संध्या का समय हुआ तब अँधेरे में उस गली में राजकुमार प्रगट हुए | बस नरेन्द्रनाथ उसका रास्ता रोककर खड़े हो गए | उनका रंगढंग देखकर राजकुमार का मुंह सूख गया | उसने दबे स्वर में पूछा – क्यों दत्त, यहाँ कैसे ? नरेंद्र ने गंभीर स्वर में कहा – “ बस आपके ही लिए खड़ा हूँ, देखिये महाशय, मैं अच्छी तरह जानता हूँ की हरिदास रुपये नहीं दे सकता | किन्तु आपको उसे परिक्षा में भेजना ही होगा | अन्यथा मैं कोलेज में आपकी सब बातें खोल दूंगा | आपका कोलेज में रहना मुश्किल कर दूंगा | राजकुमार एकदम ही घबरा गया और बोला – अरे बाबा गुस्सा क्यूं करते हो ? जैसा तुम कहोगे वही होगा | भला तुम कहो और मैं न मानूं | तुमने सुबह सबके सामने कहा, इसलिए ना कहना पड़ा | अन्यथा और लडके भी गले पड़ते | तुम निश्चिन्त रही मासिक फीस के रुपये माफ़ हो जायेंगे | केवल परिक्षा फीस जरूर देना होगी |

मुस्कुराते हुए खुश खुश नरेंद्र वापस लौटे और हरिदास को समाचार दिया तब उन्हें चैन आया |
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