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विचार नवनीत - श्री माधव सदाशिव राव गोलवलकर "गुरूजी"


भारतीय संस्कृति के महत्वपूर्ण आधार तत्व हैं पुरुषार्थ चतुष्टय | धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष | जिस प्रकार दोनों तटों के बीच बहती नदी जीवनदायिनी होती है, उसी प्रकार धर्म और मोक्ष के बीच बहता अर्थ और काम युक्त जीवन प्रवाह व्यक्ति व समाज दोनों के लिए हितकारक होता है | जिस प्रकार तटों का उल्लंघन करते ही नदी विनाशकारी हो जाती है, उसी प्रकार की स्थिति मानव जीवन प्रवाह की भी है | दोनों सीमाओं के बीच की यही व्यवस्था मन की शान्ति व जीवनोपभोग के बीच संतुलन स्थापित कर सकती है | समय की धारा के साथ तथाकथित प्रगतिशील समाज भी भारतीय संस्कृति के इस पुरातन तथा जीवंत तत्वज्ञान की शरण में आने को बाध्य होगा –
तावद्गर्जन्ति शास्त्राणि जम्बुका विपिने यथा |
न गर्जन्ति महातेजा यावद्वेदांत केसरी ||
अन्य मत वाले श्रगाल तभी तक कोलाहल करते हैं, जब तक वेदान्त के महातेजस्वी सिंह की गर्जना नहीं सुनाई पड़ती |

· धर्म की परिभाषा –
यतोSभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः |
धर्म अर्थात वह व्यवस्था जो व्यक्ति को अपनी इच्छाओं पर संयम रखने को प्रोत्साहित करती है और संपन्न भौतिक जीवन का उपभोग करते हुए भी दैवीय तत्व, शास्वत सत्य अनुभूति की क्षमता का निर्माण करती है |
धारणात धर्ममित्याहुः धर्मो धारयति प्रजाः |
अर्थात वह शक्ति जो व्यक्तियों को एकत्र लाती है और उन्हें समाज के रूप में धारण करती है, वह धर्म है |
धर्मादर्थश्च कामश्च |
धर्म आधारित आचरण करते हुए धन का संचय और कामनाओं की पूर्ती |
· मांस का एक टुकड़ा फेंकने पर कौओं का पूरा झुण्ड एकत्रित हो जाता है | आज इस प्रकार के गुट जिनके साम्प्रदायिक अथवा कुछ संकुचित हित हैं, सम्पूर्ण देश में उठ रहे हैं | वे अपने स्वार्थी हितों की पूर्ती हेतु देश की पवित्रता एवं अपने राष्ट्र जीवन की एकता का विनाश करने को भी तत्पर हैं | हमारा यह निष्कर्ष हैकि योग्य व्यक्तियों के एकत्रीकरण द्वारा संगठित शक्ति का निर्माण करना होगा |
· यह मत कहो कि शरीर में रखा क्या है ? हमारे शास्त्र कहते हैंकि –
शरीरमाद्यम खलु धर्म साधनं
अर्थात जीवन के कर्तव्यों को पूर्ण करने के लिए शरीर ही प्रथम साधन है | एक सक्षम शरीर के बिना हम कुछ भी नहीं प्राप्त कर सकते | ईश्वर के साक्षात्कार के लिए भी स्वस्थ एवं सशक्त शरीर की आवश्यकता है | ईश्वर दुर्बलों के लिए नहीं है –
नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः
..... शारीरिक शक्ति आवश्यक है किन्तु चरित्र उससे भी अधिक महत्व का है | बिना चरित्र के केवल शक्ति मनुष्य को पशु बना देगी | वैयक्तिक तथा इसी प्रकार राष्ट्रीय द्रष्टिकोण से भी चरित्र की शुद्धता राष्ट्र के वैभव एवं महानता की जीवन प्राण होती है |
..... मान लीजिये कि हमारे पास सशक्त शरीर एवं शुद्ध और निष्ठावान ह्रदय है, किन्तु शरीर एवं मन का उपयोग कैसे किया जाए ? इसके लिए हमें मेधा संपन्न निपुणता की आवश्यकता होती है जो परिस्थिति की वास्तविकताओं एवं जटिलताओं को ग्रहण करने में समर्थ हो | .... व्यवहारिक बुद्धि के बिना हमारी सभी अच्छाई और शक्ति बेकार होगी | .... हम यह न भूलें कि राष्ट्र के पुनः संगठन का मार्ग पुष्प शैया नहीं है और जब धूर्तों तथा कुटिलों से पाला पड़ता है, तब बिना चातुर्य के केवल शुद्ध हृदयता काम नहीं देगी |
....... परिस्थितियाँ सदैव हमारे पक्ष में रहने वाली नहीं हैं | हमें वाधाओं और प्रतिकूलताओं का सामना करना पडेगा | वीर के लिए प्रथम गुण है निर्भीकता | गीता में भी विविध देवी गुणों की गणना ‘अभयम’ से ही प्रारम्भ होती है | हमारे संघ संस्थापक डा. हेडगेवार कहा करते थे कि राष्ट्र के द्रढीकरण का कार्य इस प्रकार से होना चाहिए कि न तो हम किसी को भयभीत करें और न किसी से भयभीत हों |
न भय देत काहू को, न भय मानत आप
· एक बार दक्षिणेश्वर मंदिर में राधाकांत की मूर्ती के कुछ आभूषण चोरी हो गए | किसी ने काहा यह देवता भी क्या है, जो अपने आभूषणों की भी रक्षा नहीं कर सका | श्री रामकृष्ण ने उसे डांटकर कहा कि इस प्रकार के मूर्खतापूर्ण विचार रखना लज्जास्पद है | लक्ष्मी जिसकी दासी हो, वह भला इस प्रकार के व्यर्थ पत्थर और धातु के टुकड़ों को क्या महत्व देगा ? इसी प्रकार हमें भी, जिनके सामने राष्ट्रजीवन की एकात्म द्रष्टि है, राजनैतिक सत्ता के समान अस्थिर वस्तुओं के पीछे क्यों दौड़ना चाहिए ?
.... समाज की उस सर्वशक्तिमान सत्ता का निर्माण करना, जो सदा सर्वदा के लिए बाह्य कारणों से उत्पन्न संकटों के बीच समाज को सुरक्षित रखे और राष्ट्रीय जीवन के समस्त क्षेत्रों को अनुप्राणित एवं उद्भासित करे, यही महान लक्ष्य हमारे सामने है |
· जैन साहित्य में एक सुन्दर कथा है | एक बार श्रीकृष्ण, बलराम और सात्यकी एक वन में भटक गए | उन्होंने एक वृक्ष के नीचे रात्री विश्राम का विचार किया और यह निर्णय किया कि प्रत्येक दो दो घंटे पहरा देगा | प्रारम्भ में सात्यकी जगता रहा और शेष दोनों सो गए | तभी वृक्ष पर से एक व्रह्म राक्षस कूदा और उसने सात्यकी को धमकाया कि वह तीनों को खा जाएगा | क्रोधित हो सात्यकी ने उससे युद्ध प्रारम्भ कर दिया | किन्तु सात्यकी को यह देखकर बहुत अचम्भा हुआ कि वह राक्षस आकार और शक्ति में बढ़ता ही जा रहा है | सात्यकी बहुत ही क्षुब्ध और हताश हो गया | पूर्णतः थककर उसने बलराम को जगाया और स्वयं सोने चला गया | सात्यकी के अवकाश लेते ही राक्षस भी लुप्त हो गया, किन्तु कुछ समय बाद पुनः प्रगट हुआ और बलराम को ललकारने लगा | बलराम भी क्रुद्ध होकर राक्षस से युद्ध करने लगे | उनके साथ भी वही कहानी दोहराई गई | उनकी भी वही दशा हुई | उन्होंने थकहारकर कृष्ण को जगाया और स्वयं सोने चले गए |
राक्षस श्री कृष्ण के सामने भी आया, किन्तु वे शांत बने रहे | उन्हें अपनी विशाल शक्तियों का ज्ञान था, अतः उन्होंने राक्षस को कोई महत्व ही नहीं दिया | उन्होंने हंसी मजाक करते और खेल जैसा करते हुए राक्षस पर आघात करना शुरू किया | और यह अद्भुत आश्चर्य हुआ, जैसे जैसे श्री कृष्ण इस प्रकार लड़ते रहे, वह राक्षस आकार में छोटा होता गया | अंत में इतना छोटा हो गया कि श्रीकृष्ण ने उसे पकड़कर अपने अंगोछे के कोने में बाँध लिया | प्रातःकाल जब बलराम और सात्यकी जागे, तो उनके अचरज का ठिकाना नहीं रहा | वे तो रातभर सोने के बाद भी थकावट अनुभव कर रहे थे, जबकि श्रीकृष्ण सहज प्रफुल्लित मुद्रा में थे | जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो | उस समय उन्हें और भी अधिक आश्चर्य हुआ जब उन्होंने उस राक्षस को एक कीड़े की तरह अंगोछे के कोने से बंधा देखा |
अपनी स्वयं की शक्ति में उत्कट आत्मविश्वास तथा शांत मन मस्तिष्क में निश्चित रूप से शक्ति का अजस्त्र भण्डार होता है | जबकि क्रोधातिरेक में शत्रु पर विवेकहीन प्रहार उसकी शक्ति को बढाते हैं |
· महर्षि व्यास ने एक बार अपने शिष्य जैमिनी से एक श्लोक लिखने को कहा –
“बलवान इन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति |“ अर्थात इन्द्रियों का आकर्षण विद्वान् को भी विभ्रांत करता है |
जैमिनी को अपने आत्मसंयम पर अत्यंत विश्वास था, अतः उन्होंने कुछ परिवर्तन के साथ श्लोक लिखा –
“बलवान इन्द्रियग्रामो विद्वांन्सनापकर्षति |“ अर्थात इन्द्रियों का आकर्षण विद्वान् को विभ्रांत नहीं करता है |
व्यास ने इसे देखा और कोई प्रतिक्रया न कर शांत रहे | एक दिन जैमिनी अपनी कुटी में तपस्यारत थे | बाहर मूसलाधार वर्षा हो रही थी | तभी एक युवती पानी में भीगती हुई वहां आई और उसने मुनि से आश्रय माँगा | धूनी की अग्नि के सम्मुख वह अपने कपडे सुखाने लगी, तभी हवा के तेज झोंके में उसकी साडी उड़ गई | युवा जैमिनी का संयम जबाब दे गया और वे उस तरुनी से प्रणय निवेदन करने लगे | युवती ने उन्हें समझाने का प्रयत्न किया कि वे तपस्वी हैं तथा उन्हें इस प्रकार का आचरण शोभा नहीं देता | किन्तु सब व्यर्थ हुआ | अंत में युवती ने इस शर्त पर उन्हें अपनाना स्वीकार किया कि वे उसे कंधे पर बैठाकर अग्नि की तीन परिक्रमा करें | जैमिनी इसके लिए भी सहर्ष तैयार हो गए | जैसे ही उन्होंने अग्नि की परिक्रमा प्रारम्भ की, बैसे ही युवती हँसते हुए बोली – “विद्वांन्सनापकर्षति” | अपने गुरू के शव्दों को स्मरण कर चकित जैमिनी ने जैसे ही युवती को नीचे उतारा, तो देखा उनके गुरू ही उनके सम्मुख खड़े मंद स्मित कर रहे हैं | जैमिनी पश्चाताप में डूब गए | वे तुरंत गए और श्लोक को उसके मूलरूप में परिवर्तित कर दिया |
अपने गुणों का मिथ्याभिमान सभी सद्गुणों का शत्रु व अहंकार का जनक है |
· इतना बड़ा हो जाने से क्या लाभ, कि जिससे अपने ही लोगों में प्यार और मैत्री की भावना से मिलजुलकर जी न सके | संत कबीर ने कहा है –
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर
पंछी को छाया नहीं, फल लागे अतिदूर |
इसलिए यदि किसी कार्यकर्ता में महान गुण हैं, तो भी उसे अपनी ऊंचाई से उतरकर सामान्यजनों के स्तर पर जाना चाहिए और समाज में अपने शेष भाईयों से मिलना जुलना चाहिए | उसे दूसरों के साथ इस प्रकार एक रूप हो जाना चाहिए किवे उसे असाधारण न समझें | अपनी योग्यता और त्याग की चेतना से उत्पन्न प्रथकत्व की किंचित छाया भी उसके और अन्य लोगों के मध्य में न आने पाए | अंततः कार्यकर्ता जिन विविध सद्गुणों को स्वयं में उत्पन्न करने के लिए सचेष्ट रहता है, वे सब समाज देवता के चरणों में समर्पण के लिए ही तो है | यही है वास्तविक महानता का सार |
इसी प्रकार हमारे महान युग निर्माताओं ने समाज की बिखरी हुई कड़ियों को जोड़कर संगठित कर अजेय शक्ति में परिवर्तित किया था | शिवाजी गरीब निरक्षर कृषकों से अत्यंत प्रेम और भ्रातृत्व भाव से मिले तथा उन्हें आदर्श से अनुप्राणित कर विजयी राष्ट्र्वीरों में रूपांतरित कर दिया | वे उन लोगों तक पहुंचे, जो मुसलमान बादशाहों की गर्हित दासता स्वीकार कर चुके थे और उन्हें भी स्वदेश और स्वधर्म का कार्य करने के लिए आकृष्ट किया | अद्वितीय योद्धा मुरार बाजी देशपांडे एक ऐसा ही रत्न था, जिसे उन्होंने शत्रुओं से छीन लिया | उन्होंने ऐसे अनेक लोगों को शुद्ध किया, जो मुस्लिम स्त्रियों के प्रलोभन, मुस्लिम राजसत्ता के व्यामोह अथवा अत्याचारों के कारण मुसलमान हो गए थे | उनके एक सेनानायक नेताजी पालकर, जिन्हें ओरंगजेब ने पकड़कर मुसलमान बना लिया था, जब फिर से शिवाजी के पास आये, तो शिवाजी ने उन्हें पुनः हिन्दू समाज में सम्मिलित कर लिया | इतना ही नहीं तो उन्हें समाज मान्य बनाने के लिए अपने ही परिवार की एक कन्या से उनका विवाह कर उनसे रक्त सम्बन्ध भी बना लिया | राष्ट्र के संगठन के लिए उनकी द्रष्टि कितनी व्यापक थी |
· गुजरात के राजा कर्ण का प्रधानमंत्री वेदों का ज्ञाता तथा अनेक कलाओं और शास्त्रों में पारंगत था | एक बार राजा ने कमजोरी के क्षण में एक सरदार की पत्नी का अपहरण कर लिया | प्रधान मंत्री के गुस्से की सीमा नहीं रही और उसने राजा को उसके पाप का दंड देने का निश्चय किया | वह सीधा मुग़ल सुलतान से मिलने दिल्ली गया और अपने राजा के पापकर्म का दंड देने के लिए मदद माँगी | सुलतान तो ऐसे किसी मौके की ताक में ही था | राज्य की सुरक्षा संबंधी भेद जानकर वह तुरंत गुजरात पर चढ़ दौड़ा | परिणाम स्वरुप वह गुजरात जिसने प्रहरी के रूप में अनेक वर्षों तक सफलता पूर्वक मुस्लिम आक्रमण का प्रतिकार किया था अंततः परास्त हुआ | निसंदेह उस युद्ध में राजा मारा गया, किन्तु प्रधान मंत्री को क्या मिला ? उसके अनेकों निजी संबंधी भी मारे गए | उसकी आँखों के सामने अगणित स्त्रियों का शील भ्रष्ट किया गया, उसके आराध्य मंदिरों को धुल में मिला दिया गया | जिस घर में वह वेदपाठ करता था, उसे गाय काटने के बूचडखाने में परिवर्तित कर दिया गया | आने बाले अनेक शताव्दियों तक मातृभूमि का बहुत बड़ा भू भाग पराधीनता को प्राप्त हुआ |
यहाँ हम देखते हैं कि राजा का व्यक्तिगत चरित्र पतित था किन्तु उसका राष्ट्रीय चरित्र प्रखर था | जबकि प्रधानमंत्री का व्यक्तिगत चरित्र उज्वल होते हुए भी उसमें राष्ट्रीय चरित्र का अभाव था | इसके विपरीत हमारे सामने खंडोबल्लाल का प्रसंग आता है | उनके पिताजी शिवाजी के अष्टप्रधानों में से एक थे | किन्तु जब संभाजी सिंहासन पर बैठे तो किसी कारणवश उन्होंने खंडोबल्लाल के पिताजी को मृत्यु के घाट उतार दिया | इतना ही नहीं तो संभाजी की कुद्रष्टि खंडोबल्लाल की बहिन पर भी पडी, जिसने अपने आत्म सम्मान की रक्षा के लिए मृत्यु का वरण कर लिया | इसके बाद भी जब सम्भाजी को ओरंगजेब ने बंदी बना लिया, तब अपने प्राण संकट में डालकर खंडोबल्लाल ने उन्हें छुडाने का प्रयत्न किया | क्योंकि वे जानते थे कि व्यक्तिगत दुर्गुणों के होते हुए भी संभाजी पुनरुत्थानशील हिन्दू समाज के एकत्रीकरण हेतु आवश्यक थे | संभाजी की मृत्यु के बाद भी जब राजाराम सिंहासनारूढ़ हुए तथा जिन्जी के किले में शत्रु से घिर गए, तब अपनी सम्पूर्ण संपत्ति को न्योछावर कर, अपने पुत्र के जीवन को दाव पर लगाकर उनकी मदद खंडोबल्लाल ने की | और अंत में अपना स्वयं का जीवन भी मातृभूमि को समर्पित कर दिया | खंडोबल्लाल जैसे चरित्रों के कारण ही ओरंगजेब जब अपनी पांच लाख की सेना के साथ दक्षिण विजय को आया तो वह स्वयं ही मृत्यु का ग्रास बन गया |
· स्वतंत्रता संग्राम के काल में मौलाना मुहम्मद अली महात्मा गांधी के दाहिने हाथ थे | उन्होंने सार्वजनिक रूप से यह घोषणा की थी कि बुरे से बुरा, पापी और भ्रष्ट मुसलमान भी महात्मा गांधी से भी बहुत अधिक श्रेष्ठ है |
एक सूफी विद्वान् ने चर्चा में कहा कि कम्यूनिज्म के अनीश्वरवादी दर्शन की चुनौती का सामना करने का एक ही मार्ग है कि ईश्वर में विश्वास करने वाले सभी मनुष्य एकजुट हो जाएँ | चाहे वे किसी भी सम्प्रदाय अथवा धर्म के क्यों न हों | जब उनसे पूछा गया कि वह आधार कौनसा हो सकता है, तो उन्होंने बिना किसी संकोच के तुरंत उत्तर दिया – ‘इस्लाम’ | तथाकथित विद्वान् और दार्शनिक के मस्तिष्क भी इसी प्रकार काम करते हैं |
हमारे समय के महानतम ‘राष्ट्रीय मुसलमान’ मौलाना आजाद ने भी अपने अंतिम समय में ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में गांधी तथा नेहरू को अपनी क्षुद्र बुद्धि से समाविष्ट करते हुए पटेल को साम्प्रदायिक निरूपित किया | कोलकाता और नोआखाली आदि अनेक स्थानों पर मुसलमानों द्वारा किये गए हिन्दू नरसंहार की निंदा के लिए उनके पास एक शव्द भी नहीं था | पाकिस्तान के निर्माण का विरोध भी वे केवल इस आधार पर कर रहे थे, क्योंकि उनकी नजर में वह मुस्लिम हितों के प्रतिकूल था | उनके अनुसार जिन्ना का अनुशरण करना मुसलमानों की मूर्खता थी क्यों कि उसके कारण मुसलमानों को देश का केवल एक टुकड़ा मिला | जबकि मौलाना आजाद की बात मानी गई होती तो सम्पूर्ण देश के कार्यकलापों में मुसलमानों की आवाज निर्णायक होती | सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व प्रधान न्यायाधीश श्री मेहरचंद महाजन ने उक्त पुस्तक की आलोचना करते हुए लिखा – मौलाना जिन्ना से अधिक धूर्त थे | यदि उन पर छोड़ दिया जाता तो भारत वस्तुतः मुसलमानी वर्चस्व का देश हो जाता |
· प्रथम विश्व युद्ध के समय मित्र राष्ट्रों की सेना ने दृढ निश्चय के साथ जर्मनी सैन्य बल का मुकावला किया तथा युद्ध में विजय प्राप्त की | उन्होंने जर्मनी का एक बड़ा भूभाग भी अपने कब्जे में ले लिया | परन्तु विजय के पश्चात फ्रांसीसी लोग इन्द्रियलोलुपता तथा सुखोपभोग के शिकार हो गए | वे मद्यपान तथा नाचगाने में लिप्त हो गए, जिसके कारण अपने विशाल सैनिक बल तथा अपनी भीषण “मीजोन रेखा” के होते हुए भी द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मन आक्रमण के १५ दिवस के अन्दर फ्रांस का पतन हो गया | युद्ध के पश्चात वृद्ध फ्रांसीसी जनरल मार्शल पेतां ने कहा – “फ्रांस की पराजय युद्ध क्षेत्र में नहीं, बल्कि पेरिस के नृत्य गृहों में हुई |” हमारे देश में भी परिस्थिति भिन्न नहीं है | हमारे दैनंदिन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आधुनिकता का अर्थ हो गया है स्वच्छंदता, स्त्रैणता, इन्द्रियलोलुपता | यौन हमारे आधुनिक साहित्य का सर्वव्यापी विषय बन गया है | राष्ट्रीय जीवन का यह आतंरिक चित्र खतरे का संकेत है, जिसके प्रति हम दुर्लक्ष्य नहीं कर सकते | इन परिस्थितियों में केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही एकमात्र ऐसा संगठन है जिसने समाज को शुद्ध, पवित्र, कल्याणकारी तथा संगठित जीवन में सूत्रवद्ध करने का निश्चय किया हुआ है | यही संघ के निरंतर विकास के पीछे की प्रेरक शक्ति है |
· विगत कुछ वर्षों से हमारे देश में शक्ति को पापपूर्ण और गर्हित माना जाने लगा है | “अहिंसा” के गलत अर्थ ने यह भ्रान्ति पैदा की है | हम लोग शक्ति को हिंसा मानने लगे हैं तथा अपनी दुर्बलता को गौरवास्पद समझने लगे हैं | जो हिंसा करने में पर्याप्त समर्थ है, परन्तु संयम, विवेक और दया के कारण ऐसा नहीं करता, केवल उसी व्यक्ति के लिए कहा जा सकता है कि वह अहिंसा का आचरण करता है | यदि कोई दुबला पतला मच्छर जैसा व्यक्ति जा रहा है, तथा कोई उसके कान खींच लेता है, तब वह ‘मच्छर’ सर से पैर तक कांपते हुए कहे कि महाशय मैंने तुम्हे क्षमा किया, तो उसका क्या अर्थ है | कौन कहेगा कि वह अहिंसा का पालन कर रहा है ? डाकुओं को अपना घर लूटने से रोकने में असमर्थ होने पर यदि कोई “वसुधैव कुटुम्बकम” का नारा लगाए, तो लोग उसे ढोंगी और कायर ही कहेंगे | हमारे देश का वायुमंडल इसी प्रकार की भ्रांतियों और सदुक्तियों से भरा हुआ है | प्रत्येक राष्ट्रीय अपमान को ‘शान्ति’ के आवरण में ढँक दिया जाता है | पंडित नेहरू के जन्मदिन पर चीन ग्यारह सैनिकों के शव भेंट में देता है | हम यह कहकर कि हम शान्ति के पुजारी हैं, यह सब निगल जाते हैं | महाभारत में कहा गया है कि जो व्यक्ति अपमान निगल जाता है, वह न पुरुष है, न स्त्री है |
एतावानेव पुरुषो यदमर्शी यदक्षमी |
क्षमावान निरमर्षश्च नैव स्त्री न पुनः पुमान ||
(वही पुरुष है, जो न सहन करता है और न क्षमा करता है | क्षमा करने वाला तथा सहन करने वाला न तो स्त्री है और ना ही पुरुष |)
श्री कृष्ण हमारे आदर्श हैं, जिन्होंने बचपन से ही एक के पश्चात एक राक्षसों को समाप्त किया | अंत में कंस का वध किया, उग्रसेन को गद्दी पर पुनः प्रतिष्ठित किया | परन्तु स्वयं अतिथि राजाओं का स्वागत करते हुए द्वारपाल बने रहे | उन्होंने ही युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भोजन के पश्चात पत्तल उठाने का छोटा सा सेवा कार्य भी स्वयं स्वीकार किया, जबकि उन्हें अग्रपूजा का सम्मान दिया गया था | हमारे दर्शन का ऐसा ही सन्देश है |
वास्तव में बह बकरा जिसे बलिवेदी पर शांतिपूर्वक ले जाया जाता है, अप्रतिकार की मूर्ती है | तनिक सा भी विरोध प्रगट न करते हुए वह चुपचाप कसाई के छुरे के नीचे अपना सर रख देता है | कसाई भी एक क्षण को यह अनुभव नहीं करता की ऐसे अहिंसक जीव को नहीं मारना चाहिए | किन्तु कोई भी व्यक्ति व्याघ्र की बलि देने का साहस नहीं कर सकता –
अश्वं नैव गजं नैव व्याघ्रं नैव च नैव च |
अजा पुत्रं बलिंदध्यात देवो दुर्बल घातकः ||
एक श्रेष्ठ जैन साधू ने अहिंसा का महत्व बताते हुए कहा – ‘यदि तुम्हें नष्ट करने पर उतारू किसी पाशविक शक्ति से तुम्हारा सामना हो और अहिंसा के नाम पर तुम अपने संरक्षण का प्रयत्न ना करो, तो तुमने उस पाशविक शक्ति को हिंसा में प्रवृत्त होने के लिए प्रोत्साहित किया है | इस प्रकार तुम उस अपराध के प्रोत्साहन कर्ता बन गए हो | प्रोत्साहक भी अपराध का उतना ही दोषी है, जितना वास्तविक अपराधी |
श्री कृष्ण ने सुस्पष्ट रूप से तथा सदा के लिए घोषित किया है कि धर्म की स्थापना का अर्थ है, दुष्टों का विनाश (विनाशाय च दुष्कृताम) | श्री कृष्ण जब युद्ध को टालने तथा शान्ति प्रस्थापित करने दुर्योधन के पास शान्ति प्रस्ताव लेकर जाने लगे. तब उनकी सुरक्षा को लेकर धर्मराज युधिष्ठिर चिंतित हो गए | तब श्री कृष्ण ने उनसे कहा कि यदि दुर्योधन इस प्रकार की कोई मूर्खता करेगा तो तुम बिना युद्ध के ही विजई हो जाओगे, क्योंकि ऐसी स्थिति में वे स्वयं ही कौरवदल को समाप्त कर देंगे |
इस संसार की कठोर वास्तविकताओं को समझकर महान व्यक्तियों ने जैसा सन्देश दिया है उसे हमें ठीक से समझना चाहिए | आज का संसार एक ही भाषा समझता है – शक्ति की भाषा | शक्ति के दृढ आधार पर ही राष्ट्र का उत्कर्ष होता है | राष्ट्रीय शक्ति का वास्तविक तथा अक्षय स्त्रोत है सम्पूर्ण समाज का सुगठित, समर्पित तथा अनुशासित जीवन | अतः हमारे सम्पूर्ण प्रयत्न हमारे लोगों में राष्ट्रीय चेतना जागृत कर सुसंगठित राष्ट्रनिर्माण करने की दिशा में होना चाहिए |
· आजकल जीवन के हर क्षेत्र में एक पागलपन सवार है कि व्यक्ति को कम से कम उत्तरदायित्व और खतरा उठाते हुए अधिक से अधिक लाभ और आनंद प्राप्त हो | यही कारण हैकि धनी परिवार में उत्पन्न व्यक्ति बहुत भाग्यशाली माना जाता है, क्योंकि उसे बिना किसी प्रयत्न के सभी आराम और उपभोग के साधन प्राप्त हो जाते हैं | उसका प्रत्येक छोटा काम करने के लिए भी नौकर होते हैं जो उसके इशारे पर नाचते हैं | उसका सम्पूर्ण समय भोगविलास के लिए मुक्त होता है | उपभोग के इस उन्माद को देखकर सामान्य मनुष्य भी चाहता हैकि उसे भी स्वयं कुछ करने की आवश्यकता नहीं होना चाहिए | परमात्मा प्रथ्वी पर आये और उसे विपत्तियों के भंवर से निकालकर किनारे लगा दे | वह उसके ऊपर सुख संपत्ति की वर्षा करे तथा अपना अवतारी जीवन समाप्त कर पुनः अपने स्थान को लौट जाए | हमें कहीं भी पौरुष की भावना नहीं दिखाई पड़ती, जिसके कारण व्यक्ति कहे कि हां मैं मनुष्य हूँ, चाहे जैसी परिस्थिति आ जाए, उसकी चिंता न करते हुए मैं मनुष्योचित प्रयत्न करूंगा और सम्पूर्ण शक्ति लगाकर अपने कर्तव्यों की पूर्ती करूंगा |
इस विषय में संघ के संस्थापक हँसी में कहा करते थे – “मैं परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ कि वह अभी जन्म न ले, क्योंकि सम्पूर्ण समाज को आलस्य और स्वार्थ, अर्थात अधर्म में डूबा देखकर वह अधर्म का विनाश करने की अपनी प्रतिज्ञानुसार इसे पूरी तरह नष्ट कर देंगे | इसलिए पहले हम लोग साधू बनें, जिसका अर्थ है कि समाज के लिए परिश्रम और त्याग का जीवन बिताएं और तब सर्वशक्तिमान परमात्मा को पुकारें | तभी वह हमारी रक्षा और दुष्टों का संहार करेगा |
· हमारे देश में स्वतंत्रता के लिए बलिदान होने वाले वीरों की संख्या कम नहीं है | उनमें स्वधर्म व स्वसमाज के लिए हंसते हंसते मृत्यु का आलिंगन करने की शूरता थी | राजपूतों का इतिहास इस प्रकार की रोमांचकारी घटनाओं के स्फुलिंग के प्रकाश से आलोकित है | उन्होंने अपनी माताओं, बहिनों और पुत्रियों को जौहर की ज्वाला में कूदते देखा | फिर केसरिया बाना धारण कर अपनी चमकती तलवारों के साथ शत्रुसेना में घुस पड़े, कभी ना लौटने के लिए | उन्होंने पराजय और अपमान के घृणित जीवन की तुलना में सम्मानपूर्ण बलिदान को अधिक अच्छा समझा | यह ठीक है कि हम उनके प्रति अभिमान और आदर की भावना रखें, परन्तु यह भी सत्य है कि वे वीर रणक्षेत्र में मृत्यु का एकमात्र विचार लेकर घुसे थे, विजय की इच्छा लेकर नहीं |
जैसी इच्छा वैसाही परिणाम | जो केवल मृत्यु की कामना करता है, उसे अमृत कुंड में भी डाल दो तो भी वह अवश्य ही उसमें डूबकर मर जाएगा | उसे कोई बचा नहीं सकता | भावुकतापूर्ण स्वाभिमान धारण करने वाले वर्ग में बैसी शांत और स्थिर संकल्प शक्ति का अभाव होता है, जो परिस्थितियों की किंकर्तव्यविमूढ़ करने वाली कशमकश में भी अनउद्विग्न बनी रहे | बुद्धिमान और परिपक्व व्यक्ति केवल परिस्थितिजन्य प्रतिक्रया से संचालित नहीं होते, वरन सुविचारित मार्ग से अंतिम विजय की और चुपचाप बढ़ते हैं | ऐसे ही हमारे आदर्श हैं, जिन्होंने विजय की आराधना की तथा जीवन का उद्देश्य सफलता पूर्वक प्राप्त किया |
हमारे एक सर्वोच्च आदर्श श्रीराम विजय के इस दर्शन के एक ज्वलंत उदाहरण हैं | क्षात्र धर्म में स्त्रियों का वध करना अनुचित माना जाता है, किन्तु राम ने राक्षसी ताड़का का वध किया | श्रीराम को दुष्टों का नाश कर धर्मराज्य की पुनर्स्थापना करने के अपने परम कर्तव्य का भान था, इसलिए उन्होंने बाली पर पेड़ के पीछे से भी प्रहार किया |
यही स्थिति श्रीकृष्ण और अर्जुन के विषय में है | महाभारत के महायुद्ध में भीष्म, द्रोण आदि स्वजनों और गुरुजनों को विरोध में देखकर अर्जुन का उत्साह ठंडा पड़ गया, तब श्रीकृष्ण ने अधर्म को नष्ट करने का उपदेश दिया, फिर उसके समर्थक कोई भी हों | युद्ध के बीच जब कर्ण कीचड़ में फंसे अपने रथ के पहिये को निकालने नीचे उतरा, तब कृष्ण ने अर्जुन को उस पर बाण छोड़ने का आदेश दिया | कर्ण ने जब अर्जुन को धर्म की दुहाई दी, तब योगिराज कृष्ण ने गरज कर कहा – अरे कर्ण तुम्हारा धर्म तब कहाँ गया था, जब निशस्त्र बालक अभिमन्यु को घेरकर सात महारथियों ने निर्ममता पूर्वक ह्त्या की थी | जब निस्सहाय स्त्री द्रोपदी का भरी सभा में तुमने अपमान किया था | मैं एक ही धर्म जानता हूँ, वह है धर्म का राज्य |
आज भी पाप की दानवी शक्तियां, विश्व संहारक शस्त्रास्त्र लेकर विश्व रंगमंच पर शान के साथ चलाती दिखाई देती हैं | कई बार पश्चिम के सुविख्यात विचारक भी भविष्य के सम्बन्ध में निराश हो जाते हैं | उदाहरण के लिए बर्ट्रेड रसेल ने साम्यवादी शक्तियों संघर्ष की अवस्था में आणविक महाविध्वंस टालने के लिए कहा – मरने से अच्छा हैकि हम लाल (साम्यवादी) हो जाएँ | यह कैसा दर्शन है जो पौरुष का नहीं निराशा का उपदेश देता है | हमारे तत्वज्ञान ने और हमारे विचारकों ने तो अधर्म की शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष में निराशा का उपदेश कभी नहीं किया | अधर्म की शक्तियों पर धर्म की शक्तियों की अंतिम विजय का विश्वास हमारे रक्त में दृढमूल है | क्या हम नही जानते कि अपने प्रारम्भिक दिनों में मनुष्य शारीरिक द्रष्टि से कहीं अधिक भयानक और शक्तिशाली जंगली जानवरों से परास्त नहीं हुआ | उसने उन्हें जीतकर अपनी श्रेष्ठता प्रतिपादित की | मनुष्य में अंतरजात अच्छाई की शक्ति दुष्ट शक्तियों को अवश्य एक दिन पराजित कर देगी | मानव इतिहास का सही अध्ययन तथा दर्शन के हमारे प्राचीन आचार्यों ने भी हमें यही शिक्षा दी है |
· एक बार माओत्सेतुंग ने इच्छा व्यक्त की थी कि वह संसार में एक ऐसा युद्ध देखना चाहता है, जिसमें सभी आणविक अस्त्रों का पूर्ण और खुलकर प्रयोग हो | उसका तर्क था कि अमरीका, रूस और यूरोप के अन्य सभी देशों के अधिकाँश लोगों का पूर्ण विनाश हो जाएगा | यदि इस उपद्रव में चालीस करोड़ चीनी भी समाप्त हो जाएँ, तो भी संसार पर शासन करने के लिए पच्चीस करोड़ बचे रहेंगे | (उस समय चीन की जनसंख्या पेंसठ करोड़ ही थी) | उन्हें मानव जीवन की हानि की कोई चिंता नहीं है | उनके लिए वह घांस के सामान है, जो काटी जाती है और पुनः लगाई जाती है |
कहा गया हैकि मनुष्य जैसा भोजन करता है, वैसा ही हो जाता है | चीनियों के लिए कहा जाता है कि वे द्विपादों में केवल मनुष्य को और चौपायों में केवल मेज को नहीं खाते | वे चूहे, बिल्ली, सूअर, कुत्ते, सांप, तिलचट्टे आदि सब कुछ खा लेते हैं | ऐसे लोगों से यह आशा नहीं की जा सकती कि उनमें मानवोचित गुण होंगे | हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि आज सम्पूर्ण चीन एक सशस्त्र शिविर है | प्रत्येक वयस्क शस्त्रास्त्र चलाने में प्रशिक्षित है | उनके नेता गत कई शताव्दियों से लगातार खूनी युद्ध के वातावरण में पैदा हुए और पले हैं |
इन प्रतिकूल तत्वों को ठीक करने के लिए द्रढतापूर्वक सही दिशा में प्रयास आवश्यक है | हमारे स्वर्गीय सम्मान्य राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने ठीक ही कहा था कि शत्रु के प्रदेश में युद्ध को बिना ले जाए हम अपनी सीमाओं की रक्षा नहीं कर सकते | आज दलाई लामा हमारे बीच में हैं | तिब्बती जन अपने देश में चीनी सेनाओं से लोहा ले रहे हैं | तिब्बत की मुक्ति के लिए यह तथ्य हमारे पक्ष में है | दलाई लामा को हम उसकी अपनी देशांतर सरकार की स्थापना करके तिब्बत की स्वतंत्रता की घोषणा करने दें | हम उन्हें स्वाधीनता के लिए संघर्ष चलाने में सभी आवश्यक सहायता दें | बिना स्वाधीन और मैत्रीपूर्ण तिब्बत के हमारी सम्पूर्ण उत्तरी सुरक्षा केवल उपहास मात्र है | किन्तु हमारे प्रधान मंत्री कहते हैं कि यह पग स्पष्ट मूर्खता है | हम यह समझने में नितांत समर्थ हैं कि वे इस प्रकार के उदात्त कार्य का विरोध क्यों कर रहे हैं, जिससे दलित जनों की स्वाधीनता प्राप्ति में सहायता प्राप्त होती है और जो हमारे राष्ट्र की सुरक्षा की द्रष्टि से भी सर्वाधिक अपरिहार्य है |
एक प्रकार से हमने सर्वभक्षी चीन के सामने थाली में रखकर तिब्बत भेंट कर दिया | वास्तव में हमने तिब्बत के साथ विश्वासघात किया | वर्तमान कम्युनिस्ट सरकार ने जब चीन में सत्ता ग्रहण की, तो उन्होंने अपने शासन के प्रति विरोध रखने वाले ९६ लाख लोगों को समाप्त कर दिया | अतएव हमें यह बात भलीभांति समझ लेना चाहिए कि ऐसी निर्दयी चुनौतियों का सामना करने तथा उनपर विजय प्राप्त करने के लिए शक्ति चाहिए | एक ठोस अजेय राष्ट्र शक्ति ही हमारी सहायता कर सकती है |
· सन १८५७ के स्वातंत्र्य समर में क्रान्ति के महान नेताओं ने दिल्ली पर अधिकार कर अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली मुग़ल बादशाह को मुक्त कर सम्राट के रूप में पुनः सिंहासनारूढ़ किया | यह इसलिए किया गया, जिससे दिल्ली के तख़्त के प्रति वफादार लोगों का भी समर्थन व सहयोग प्राप्त हो जाए | किन्तु इस पग ने हिन्दू जनता के ह्रदय में संदेह उत्पन्न कर दिया कि वही अत्याचारी मुग़ल शासन, जो गुरू गोविन्दसिंह, छत्रसाल, शिवाजी तथा उसी प्रकार के अन्य देशभक्तों के प्रयत्नों से समाप्त हो चुका था, एक बार पुनः पुनर्जीवित कर छलपूर्वक उन पर लाद दिया जाएगा | और वह अंग्रेजी शासन से भी बड़ी दुखदाई घटना होगी | हिन्दू मस्तिष्क जो नानासाहब पेशवा, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई तथा कुंवर सिंह जैसे सेना नायकों की ओर देखकर हिन्दू स्वराज की कल्पना से स्फूर्त था, उसकी युद्ध करने की प्रेरणा समाप्त हो गई | इतिहास वेत्ताओं का कथन है कि उस क्रान्ति की अंतिम असफलता के निर्णायक कारणों में से यह भी एक कारण था |
· गुजरात के मुख्यमंत्री बलवंतराय मेहता जिस विमान द्वारा यात्रा कर रहे थे, उसे पाकिस्तान द्वारा गोली मारकर गिराया गया तथा उनकी ह्त्या कर दी गई |
· द्वितीय महायुद्ध में तत्कालीन भारत सचिव लार्ड एमरी के पुत्र ने जर्मन लोगों के लिए कार्य किया था | युद्ध के पश्चात उसपर मुकदमा चलाया गया तथा उसे मृत्युदंड दिया गया | दंड कम करवाने के लिए उसके पिता ने अपने उच्च पद के प्रभाव का उपयोग लाने का विचार भी नहीं किया | इसके विपरीत उन्होंने दया याचिका प्रस्तुत करना तक अमान्य कर दिया | मृत्युदंड के दिन उन्होंने उससे मिलना तक अस्वीकार कर दिया तथा कहा कि ऐसे व्यक्ति की शक्ल देखना भी पाप है, जो उनके परिवार की देशभक्ति की गैराव्शाली परंपरा पर एक कलंक था |
इसके विपरीत अपने देश का हाल देखिये - एक राजदूत रहते जिस व्यक्ति ने भारत आने वाले शस्त्रों से भरे जहाज को पाकिस्तान के लिए मुडवा देने की चाल चली, उसे बाद में एक राज्य का राज्यपाल बना दिया गया |
· सन १९३७ में एक बार कांग्रेस शासन वाले प्रदेश में एक राजनैतिक आन्दोलन को कुचलने के लिए गोली चलाने का आदेश दिया गया था | एक व्यक्ति ने कांग्रेस अध्यक्ष को लिखा कि अहिंसा के लिए वचनबद्ध कांग्रेस द्वारा बनाई गई सरकार गोली का मार्ग कैसे अपना सकती है ? कांग्रेस अध्यक्ष प. जवाहरलाल नेहरू ने उत्तर दिया – अहिंसा की हमारी नीति केवल अंग्रेजों के विरुद्ध लागू होती है, स्वजनों के लिए नहीं | उक्त सज्जन ने यह समस्त पत्र व्यवहार समाचार पत्रों में प्रकाशित करवा दिया |
· बुरी आदतें और प्रवृत्तियाँ, जो विगत शताव्दियों से हममें बढ़ रही हैं, एक दिन में धुलकर साफ़ नहीं हो सकतीं | इसलिए नित्य के संस्कार आवश्यक हैं | हमारा मस्तिष्क जो दूषणों के लिए शरीर से अधिक ग्रहणशील है, चारों ओर के वातावरण की दुष्प्रवृत्तियों के संपर्क से सतत प्रभावित होता है | एक बार श्री रामकृष्ण ने अपने अद्वैतवादी गुरू तोतापुरी से प्रश्न किया –आप एक सिद्ध पुरुष होकर भी संस्कारों की नित्य क्रियाएं क्यों किया करते हैं ? उन्होंने उत्तर दिया कि मस्तिष्क जब तक इस संसार में रहता है, उसके नित्य शोधन की आवश्यकता ठीक उस प्रकार से है, जैसे पानी पीने के पात्र को नित्य मांजना आवश्यक है |
· भयंकरतम विष पचाना अपेक्षाकृत आसान है, किन्तु स्तुति और सम्मान पचाना सरल नहीं | भगवान शंकर सबके कल्याण के लिए हलाहल पी गए और उससे अप्रभावित रहे | पर वही शंकर भस्मासुर की स्तुति के शिकार बने और स्वयं के लिए आपत्तियों को बुला लाये |

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