
१. बाजीराव पेशवा प्रथम का स्मरण
इतिहास, कई सारी महान सभ्यताओं के उत्थान और पतन का गवाह रहा है। अपने दीर्घकालीन इतिहास में हिंदू सभ्यता ने दूसरों द्वारा अपने को नष्ट करने के लिए किये गये विभिन्न आक्रमणों और प्रयासों को सहा है। यद्यपि इसके चलते इसने वीरों और योद्धाओं की एक लंबी शृंखला उत्पन्न की है, जो दूसरी प्राचीन सभ्यताओं से अपनी मातृभूमि की रक्षा करने के लिए समय-समय पर उठ खड़े हुए हैं। भारत के इतिहास में एक ऐसे ही महान योद्धा और हिंदू धर्म के संरक्षक के रूप में प्रख्यात नाम है- १८वीं शताब्दी में उत्पन्न बाजीराव पेशवा।
२. श्रीमन्त बाजीराव पेशवा (१८ अगस्त १६९९ – २८ अप्रिल १७४०)
विजयनगर राज्य के बाद छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा व्यवस्थित तरीके से स्थापित हिंदू पद पादशाही के अंतर्गत हिंदू राज्य का पुनर्जन्म हुआ, जिसने पेशवाओं के समय में एक व्यापक आकार ले लिया।
तलवारबाजी में दक्ष, निपुण घुड़सवार, सर्वोत्तम रणनीतिकार और नेता के रूप में प्रख्यात बाजीराव प्रथम ने मात्र बीस वर्ष की आयु में अपने पिता से उत्तराधिकार में पेशवा का दायित्व ग्रहण किया और जिसने अपने शानदार सैन्य जीवन द्वारा हिंदूस्थान के इतिहास में एक विशेष स्थान बना लिया।
महान मराठा सेनापति और राजनीतिज्ञ पेशवा बाजीराव ने १८वीं शताब्दी के मध्य में अपने कार्यों से भारत का मानचित्र ही बदल दिया। उनके सैन्य अभियान उनकी बुद्धिमता के अद्वितीय उदाहरण हैं। औरंगजेब के बाद लड़खड़ा रहे मुगलों द्वारा जारी धार्मिक असहिष्णुता का विध्वंस करने के लिए बाजीराव उठ खड़े हुए और हिंदूत्व के एक नायक के रूप में मुगल शासकों के हमले से हिंदू धर्म की रक्षा की।
यह वही थे जिन्होंने महाराष्ट्र से परे विंध्य के परे जाकर हिंदू साम्राज्य का विस्तार किया और जिसकी गूँज कई सौ वर्षों से भारत पर राज कर रहे मुगलों की राजधानी दिल्ली के कानों तक पहुँच गयी। हिंदू साम्राज्य का निर्माण इसके संस्थापक शिवाजी द्वारा किया, जिसे बाद में बाजीराव द्वारा विस्तारित किया गया, और जो उनकी मृत्यु के बाद उनके बीस वर्षीय पुत्र के शासन काल में चरम पर पहुँचा दिया गया। पंजाब से अफगानों को खदेड़ने के बाद उनके द्वारा भगवा पताका को न केवल अटक की दीवारों पर अपितु उससे कहीं आगे तक फहरा दिया गया।
इस प्रकार बाजीराव का नाम भारत के इतिहास में हिंदू धर्म के एक महान योद्धा और सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक के रूप अंकित हो गया। वह एक प्रख्यात सेनापति थे जिन्होंने मराठों के चतुर्थ सम्राट छत्रपति शाहू के पेशवा (प्रधानमंत्री) के रूप में अपनी सेवा प्रदान की।
३. बाजीराव का जन्म और उनका प्रारंभिक जीवन
"पेशवा" पद को एक नई उँचाई तक ले जाने वाले बालाजी विश्वनाथ राव के सबसे बड़े पुत्र के रूप में बाजीराव का जन्म १८ अगस्त १७०० ई. को हुआ था। वह कोंकण क्षेत्र के प्रतिष्ठित और पारंपरिक चितपावन ब्राह्मण परिवार से थे। बालाजी विश्वनाथ (बाजीराव के पिता) यद्यपि पेशवाओं में तीसरे थे लेकिन जहाँ तक उपलब्धियों की बात है, वे अपने पूर्ववर्तियों से काफी आगे निकल गये थे।
इस प्रकार बाजीराव जन्म से ही समृद्ध विरासत वाले थे। बाजीराव को उन मराठा अश्वारोही सेना के सेनापतियों द्वारा भली प्रकार प्रशिक्षित किया गया था, जिन्हें २७ वर्ष के युद्ध का अनुभव था। माता की अनुपस्थिति में किशोर बाजीराव के लिए उनके पिता ही सबसे निकट थे, जिन्हें राजनीति का चलता-फिरता विद्यालय कहा जाता था। अपनी किशोरावस्था में भी बाजीराव ने शायद ही अपने पिता के किसी सैन्य अभियान को नजदीक से न देखा हो। इसके चलते बाजीराव को सैन्य विज्ञान में परिपक्वता हासिल हो गई। बाजीराव के जीवन में पिता बालाजी की भूमिका वैसी ही थी, जैसी छत्रपति शिवाजी के जीवन में माता जीजाबाई की।
१७१६ में महाराजा शाहू जी के सेनाध्यक्ष दाभाजी थोराट ने छलपूर्वक पेशवा बालाजी को गिरफ्तार कर लिया। बाजीराव ने तब अपने गिरफ्तार पिता का ही साथ चुना, जब तक कि वह कारागार से मुक्त न हो गए। बाजीराव ने अपने पिता के कारावास की अवधि के दौरान दी गई सभी यातनाओं को अपने ऊपर भी झेला। उसके (दाभाजी के) छल से दो-चार होकर इन्हें (बाजीराव को) एक नया अनुभव प्राप्त हुआ।
कारावास के बाद के अपने जीवन में बालाजी विश्वनाथ ने मराठा-मुगल संबंधों के इतिहास में नया आयाम स्थापित किया। किशोर बाजीराव उन सभी विकासों के चश्मदीद गवाह थे। १७१८ ई. में उन्होंने अपने पिता के साथ दिल्ली की यात्रा की। राजधानी में उनका सामना अकल्पनीय षडयंत्रों से हुआ, जिसने उन्हें शीघ्र ही राजनीतिक साजिशों के कुटिल रास्ते पर चलना सिखा दिया। यह और अन्य दूसरे अनुभवों ने उनकी युवा ऊर्जा, दूरदृष्टि और कौशल को निखारने में अत्यन्त सहायता की, जिसके चलते उन्होंने उस स्थान को पाया जिसपर वह पहुँचना चाहते थे। वह एक स्वाभाविक नेता थे, जो अपना उदाहरण स्वयं स्थापित करने में विश्वास रखते थे। युद्ध क्षेत्र में घोड़े को दौड़ाते हुए मराठों के अत्यधिक वर्तुलाकार दंडपट्ट तलवार का प्रयोग करते हुए अपने कौशल द्वारा अपनी सेना को प्रेरित करते थे।
४. पेशवा (प्रधानमंत्री) के रूप में बाजीराव
२ अप्रिल १७१९ को पेशवा बालाजी विश्वनाथ ने अपनी अंतिम साँसे ली। तब सतारा शाही दरबार में एकत्रित विभिन्न मराठा शक्तियों के जेहन में केवल एक ही प्रश्न बार-बार आ रहा था कि क्या मृतक पेशवा का मात्र १९ वर्षीय गैर-अनुभवी पुत्र बाजीराव इस सर्वोच्च पद को सँभाल पाएगा? वहाँ इस बात को लेकर आलोचना-प्रत्यालोचनाओं का दौर चल रहा था कि क्या इतने अल्प वयस्क किशोर को यह पद दिया जा सकता है?
मानवीय गुणों की परख के महान जौहरी महाराजा शाहू ने इस प्रश्न का उत्तर देने में तनिक भी देर नहीं लगाई। उन्होंने तुरंत ही बाजीराव को नया पेशवा नियुक्त करने की घोषणा कर दी। इस घोषणा को शीघ्र ही एक शाही समारोह में परिवर्तित कर दिया गया। वह १७ अप्रिल १७१९ का दिन था जब बाजीराव को शाही औपचारिकताओं के साथ पेशवा का पद प्रदान किया गया। उन्हें (बाजीराव को) यह उच्च प्रतिष्ठित पद आनुवंशिक उत्तराधिकार या उनके स्वर्गीय पिता के द्वारा किये गये महान कार्यों के फलस्वरूप नहीं दिया गया, अपितु उनकी राजनैतिक दूरदर्शिता से युक्त दृढ़ मानसिक और शारीरिक संरचना के कारण सौपा गया। इसके बावजूद भी कुछ कुलीन जन और मंत्री थे, जो बाजीराव के खिलाफ अपने ईर्ष्या को छुपा नहीं पा रहे थे। बाजीराव ने राजा के निर्णय के औचित्य को गलत ठहराने का एक भी अवसर अपने विरोधियों को नहीं दिया, और इस प्रकार अपने विरोधियों का मुँह को बंद करने में वह सफल रहे।
५. पेशवा बाजीराव के नेतृत्व में हिंदू साम्राज्य का विस्तार
बाजीराव ने शीघ्र ही यह महसूस किया कि सामंतवादी शक्तियों में विभाजन की प्रवृत्ति व्यापक रूप से उपस्थित है, अतः राजा और राज्य के सम्मान को इन केंद्रापसारी शक्तियों से दूर रखने की आवश्यकता है। और तभी ही हिंदू पद पादशाही के विस्तार को सुनिश्चित किया जा सकता है। बाजीराव की यथार्थवादी अंतर्दृष्टि अभूतपूर्व थी। वह अपने आसपास के प्रतिकूल परिवेश से भलीभाँति परिचित थे। विंध्य के पार उत्तर में हिंदू पद पादशाही के विशाल विस्तार पर आधारित हिंदू साम्राज्य की सुरक्षा के प्रयोजन से भीतरी शत्रुओं सहित मुगल सुल्तान के प्रतिनिधि निजाम, जंजीरा के आतंकवादी सिद्दी और डरावने पुर्तगालियों ने उनसे तत्काल प्रभावकारी उपाय करने की याचना की।
बाजीराव का यह मानना था कि यदि शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज्य या "हिंदू पद पादशाही" के उदात्त स्वप्न को पूरा करना है तो सातारा और कोल्हापुर के दोनों मराठा धड़ों को आपस में मिलाना आवश्यक है। जब बाजीराव ने यह महसूस किया कि कोल्हापुर धड़े को उनकी यह बात अस्वीकार है तो उन्होंने अपने लक्ष्य को बिना उनकी सहायता के पाने का निश्चय किया। हिंदवी स्वराज्य के अपने इस स्वप्न को पूरा करने के लिए बाजीराव का मस्तिष्क बहुत तेजी से चल रहा था, और उन्होंने यह निश्चय किया कि अपने इन विचारों को छत्रपति शाहू के दरबार में रखा जाए।
शाहू महाराज और उनके दरबार के सामने एकदम सीधा, तैयारी और आत्मविश्वास के साथ खड़ा होते हुए नया पेशवा युवा बाजीराव मजबूत आवाज में बोला- "आईए, हम बंजर दक्कन को पार कर मध्य भारत को जीत लें। इस समय मुगल कमजोर, धृष्ट, व्यभिचारी और अफीम-नशेड़ी हो चुके हैं। सदियों से उत्तर के तहखाने में संचित धन-संपदा अब हमारी हो सकती है। यह उपयुक्त समय है जब हम अपनी पवित्र मातृभूमि भारतवर्ष से इन म्लेच्छों और बर्बरों को बाहर निकाल सकते हैं। आईए, इन्हें हिमालय से आगे वहाँ फेंक दें, जहाँ से यह आये थे। निश्चय ही, भगवा ध्वज कृष्णा से सिन्धु नदी तक फहराएगा। अब हिन्दूस्थान हमारा है।"
दरबार के प्रतिनिधियों ने इस पर विचार करते हुए यह परामर्श दिया कि हमें सबसे पहले दक्कन पर ध्यान देना चाहिए लेकिन बाजीराव ने अपनी मूल योजना के कार्यान्वयन पर बल दिया।
एकटक नजर से शाहू महाराज की तरफ देखते हुए उन्होंने कहा, "पेड़ के तने को काटने से उसकी डालियाँ अपने आप गिर जाएँगी। आप हमारी बात पर ध्यान दीजिए, मैं और मेरे लोग अटक के दीवार पर अवश्य ही भगवा पताका फहराकर रहेंगे।"
छत्रपति शाहू महाराज उनसे बहुत प्रभावित हुए और कहा, "आगे बढ़ें और धरती के स्वर्ग हिमालय तक अपनी भगवा पताका फहराएँ" और इस तरह वीर योद्धा पेशवा को अपनी सेना का नेतृत्व करते हुए आगे बढ़ने की अनुमति दे दी।
यह कहानी बाजीराव की दूरदृष्टि और उन पर शाहू महाराज के विश्वास को दर्शाती है। शाहू महाराज ने किशोर वय में ही उनकी प्रतिभा को पहचानते हुए और १७०७ में समाप्त हुए मुगल-मराठा संघर्ष में बाजीराव के नेतृत्व वाली विजयी और पराक्रमी शाही सेना पर विश्वास करते हुए बाजीराव को पेशवा के रूप में नियुक्त किया। बाजीराव की महान सफलता में, उनके महाराज का उचित निर्णय और युद्ध की बाजी को अपने पक्ष में करने वाले उनके अनुभवी सैनिकों का बड़ा योगदान था। इस प्रकार उनके निरंतर के विजय अभियानों ने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में मराठा सेना की वीरता का लोहा मनवा दिया जिससे शत्रु पक्ष मराठा सेना का नाम सुनते ही भय व आतंक से ग्रस्त हो जाता था।
बाजीराव लगातार बीस वर्षों तक उत्तर की तरफ बढ़ते रहे, प्रत्येक वर्ष उनकी दूरी दिल्ली से कम होती जाती थी और मुगल साम्राज्य के पतन का समय नजदीक आता जा रहा था। यह कहा जाता है कि मुगल बादशाह उनसे इस हद तक आतंकित हो गया था कि उसने बाजीराव से प्रत्यक्षतः मिलने से इंकार कर दिया था और उनकी उपस्थिति में बैठने से भी उसे डर लगता था। मथुरा से लेकर बनारस और सोमनाथ तक हिन्दुओं के पवित्र तीर्थयात्रा के मार्ग को उनके द्वारा शोषण, भय व उत्पीड़न से मुक्त करा दिया गया था।
बाजीराव का विजय अभियान १७२३ में उत्तर-पश्चिम में मालवा और गुजरात को जीतने से प्रारंभ हुआ। बाजीराव ने गुजरात और मध्य भारत के अधिकांश क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की और यहां तक कि दिल्ली पर आक्रमण करके मुगल सल्तनत की नींव हिलाकर रख दी। यह बाजीराव ही थे जिन्होंने निरंतर आगे बढ़ते हुए और कई सारे मुगल राज्यों पर कब्जा करके उन्हें अपने आधिपत्य में ले लिया। बाजीराव की राजनीतिक बुद्धिमता उनकी राजपूत नीति में निहित थी। वे राजपूत राज्यों और मुगल शासकों के पूर्व समर्थकों के साथ टकराव से बचते थे, और इस प्रकार उन्होंने मराठों और राजपूतों के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंधों को स्थापित करते हुए एक नये युग का सूत्रपात किया। उन राजपूत राज्यों में शामिल थे- बुंदी, आमेर, डूंगरगढ़, उदयपुर, जयपुर, जोधपुर इत्यादि। खतरनाक रूप से दिल्ली की ओर बढ़ते हुए खतरे को देखते हुए सुल्तान ने एक बार फिर पराजित निजाम से सहायता की याचना की। बाजीराव ने फिर से उसे घेर लिया। इस कार्य ने दिल्ली दरबार में बाजीराव की ताकत का एक और अप्रतिम नमूना दिखा दिया।
उन्होंने अपने महाराज की आज्ञा से १७२८ में मराठा साम्राज्य की प्रशासनिक राजधानी सतारा से पुणे स्थापित कर दी।
बाजीराव की सबसे बड़ी सफलता महोबा के नजदीक बुंगश खान को हराना था, जिसे मुगल सेना का सबसे बहादुर सेनापति माना जाता था, और उसे तब परास्त किया जब वह बुंदेलखंड के वृद्ध हिंदू राजा को परेशान कर रहा था। बाजीराव के द्वारा प्रदान की गई इस सैन्य सहायता ने छत्रसाल को हमेशा के लिए उनका आभारी बना दिया।
यह कहा जाता है कि छत्रसाल मोहम्मद खान बुंगश के खिलाफ बचाव की मुद्रा में आ गए थे, तब उन्होंने निम्न दोहे के माध्यम से बाजीराव के पास एक संदेश भेजा था :
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