ग्वालियर का अजायबघर
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कल फुर्सत का समय मिला तो ग्वालियर में फूलबाग के पीछे मोतीमहल स्थित संगहालय की सैर कर आया | मात्र 20 रु. टिकिट और एक गाईड निशुल्क | किसी ज़माने में इसे अजायबघर कहा जाता था | यह नाम ही इस संग्रहालय पर सर्वाधिक सटीक बैठता है, अजूबों से भरा हुआ है यह संग्रहालय | ग्वालियर की राजनैतिक, सांस्कृतिक विरासत को अपने में समेटे इस संगहालय में महारानी लक्ष्मीबाई और तात्याटोपे के हथियार, दुर्लभ दस्तावेज, हस्तलिखित पांडुलिपियाँ, और सबसे आकर्षक दुनिया भर के थलचर, नभचर, जलचर प्राणियों के शरीर रसायन लेप कर सहेजकर रखे गए है | इन जीवधारियों को मैंने इसके पूर्व कभी देखा नहीं था, बस ऐसा लगता था मानो अभी कांच की दीवार तोड़कर वे बाहर निकलने वाले हैं | विशालकाय दुर्लभ सोनचिडिया हो अथवा रंगविरंगी छोटी छोटी तितलियों की 500 से अधिक प्रजातियाँ बड़े करीने से सहेजकर रखी हुई वहां देखी जा सकती हैं | संगहालय के प्रवेश द्वार पर एक कक्ष में रखी है 1902 में ग्वालियर आई प्रथम मोटरकार |
यह संग्रहालय ग्वालियर और इसके आसपास के क्षेत्रों से संग्रहित पुरावस्तुओं के विशाल और विविध संग्रह से भरा-पूरा है। इनमें से ग्वालियर जिले में स्थित अमरोल, मोरेना जिले में नरेसर, बटेस्वर, पदावलि, मितावली, सिहीनिया, भिंड जिले में खीरत और अटेर, शिवपुरी जिले में तेरही, रन्नौद और सुरवाया प्रमुख स्थान हैं। संग्रहालय में मौजूद प्रतिमाओं को शैव, वैष्णव, जैन और विविध समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है। वे पहली शताब्दी ई.पू. से 17वीं शताब्दी ईसवी में, जिससे वे संबंधित हैं, भारत में मूर्तिकला और शैली के विकास को दर्शाती है।
मितावलि से प्राप्त मूर्तियां संग्रहालय का सबसे प्राचीन संग्रह है। वे शुंग और कुषाण काल से संबंधित हैं। ये भारी भरकम परिधानों और आभूषणों से सज्जित मानव आकार वाली तथा विशालकाय प्रतिमाएं हैं। बलराम, कार्तिकेय और लकुलिस की प्रतिमाएं इस अवधि की उल्लेखनीय प्रतिमाएं हैं।
नरेश्वर, बटेस्वर, खीरत, अटेर, रन्नौद, सुरवाया और पदावलि से प्राप्त मूर्ति संग्रह प्रतिहार काल (8वीं शताब्दी ई. से 10वीं शताब्दी ई.) से सम्बंधित है। इस अवधि की मूर्तियो में गुप्तकाल की समृद्ध कला परंपराएं और सुघट्यता विद्यमान है। वे पतली, छरहरी, सौन्दर्यपूर्ण और दैविक प्रतीत होती हैं। इनमें से नटराज, एकमुखा शिवलिंग, महापशुपतिनाथ शिव, सप्तमात्रिका, आदिनाथ, पार्श्वनाथ इत्यादि कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो संग्रहालय की प्रदर्शन-मंजूषा को समृद्ध बनाते हैं। 11वीं शताब्दी ई. की सुहानिया से प्राप्त मूर्तियां बाद में किए गए उन प्रयासों को सूचित करती है जिसमें गुप्त काल की विशिष्ट कला परंपराओं के तत्वों को परिरक्षित रखा गया। वे मौलिक, ऊर्जावान और लावण्यमयी लगती है। इस अवधि की उल्लेखनीय मूर्तियों में अष्टदिकपालों, सुरसुंदरीयों, नर्तकियों, विद्याधरों और मिथुन मूर्तियाँ इत्यादि शामिल हैं। इसके अलावा, अटेर से प्राप्त मूर्तियाँ 17वीं शताब्दी ई. के स्थानीय भदौरिया राजाओं द्वारा संरक्षित हिन्दू मुगल कलाओं के सम्मिलन को दर्शाती हैं।
गाईड ने सिंधिया राजवंश के फोटो दिखाते समय उनके विषय में विस्तृत जानकारी भी दी | राणोजी से प्रारम्भ कर, महादजी सिंधिया, दौलतराव, जनकोजी, जयाजी तक का इतिहास | प्रारम्भ के तीन सिंधिया दत्तकपुत्र थे, यह जानकारी मेरे लिए नवीन थी | मन में सवाल उठा कि बाजीराव द्वारा सबसे पहले जिन्हें ग्वालियर का जागीरदार बनाया गया, उन ग्रेट मराठा सरदार राणोजी सिंधिया का कितना रक्त अंश वर्तमान में बचा होगा ? महारानी लक्ष्मीबाई की पीठ में छुरा मारने वाले राणोजी के वंशज तो नहीं ही हो सकते |
मैंने जब नेट पर सर्च करने का प्रयत्न किया तो ज्ञात हुआ कि इस संग्रहालय का कोई उल्लेख ही कहीं नहीं है | हाँ जयविलास महल में स्थित सिंधिया राजवंश का निजी संग्रहालय वहां सचित्र उपलब्ध है | अतः इच्छा हुई कि आज इस शासकीय संग्रहालय की जानकारी ब्लॉग के माध्यम से मित्रों तक पहुँचाऊँ | मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया इस संग्रहालय में रखे गए आजादी पूर्व के समाचार पत्रों ने | कुछ बानगी देखिये –
श्री श्यामलाल पांडवीय जी के संपादकत्व में निकलने वाला समाचार पत्र ग्रामसेवक –
25 अप्रेल 1939 के एक समाचार का हेडिंग था – नरेशो समय के साथ परिवर्तन करो | और फिर पूरा समाचार तत्कालीन राजा की आलोचना का |
(स्मरणीय है कि श्री श्यामलाल पांडवीय जी की स्मृति में एक महाविद्यालय उपनगर मुरार में स्थित है)
दीवान श्यामलाल के संपादकत्व का समाचार पत्र “समय” दिनांक 7 जनवरी 1932 को लिखता है “पर्दानसीन महाराज” |
ऐसा नहीं था कि सभी समाचार पत्र राज परिवार की आलोचना में संलग्न हों | एक समाचार पत्र वहां देखा “जयाजी प्रताप” | किन्तु 25 जून 1931 के उसके मुखपृष्ठ का मुख्य समाचार था – “समाचार पत्र के पुराने अंकों की रद्दी बिकाऊ है” |
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यह संग्रहालय ग्वालियर और इसके आसपास के क्षेत्रों से संग्रहित पुरावस्तुओं के विशाल और विविध संग्रह से भरा-पूरा है। इनमें से ग्वालियर जिले में स्थित अमरोल, मोरेना जिले में नरेसर, बटेस्वर, पदावलि, मितावली, सिहीनिया, भिंड जिले में खीरत और अटेर, शिवपुरी जिले में तेरही, रन्नौद और सुरवाया प्रमुख स्थान हैं। संग्रहालय में मौजूद प्रतिमाओं को शैव, वैष्णव, जैन और विविध समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है। वे पहली शताब्दी ई.पू. से 17वीं शताब्दी ईसवी में, जिससे वे संबंधित हैं, भारत में मूर्तिकला और शैली के विकास को दर्शाती है।
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दुनिया रंगविरंगी
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