अमेरिका ईरान परमाणु समझौता – तीसरे विश्वयुद्ध की आहट
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इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भारत और इजरायल को घेरने की कोशिश है ईरान परमाणु करार। - उपानंद ब्रह्मचारी
16 जुलाई 2015 :: आज जब सब लोग ईरान परमाणु करार की तारीफ़ के कसीदे पढ़ रहे हैं, पेट्रोल, डीजल की कीमतें कम होने पर खुशियाँ मना रहे हैं, एक खतरनाक तथ्य की ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा, और वह यह है कि इस्लामी आतंकवाद कभी भी दुनिया को विश्व युद्ध की ओर धकेल सकता है।
ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर लगाम कसने के उद्देश्य से हुए सौ बिलियन डॉलर के इस कुख्यात समझौते के बाद दुनिया दो हिस्सों में बंट गई है साथ ही अमरीका व विश्व शान्ति को भी गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है ।
प्रतीत होता है कि मंगलवार को अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के शिया जींस जागृत हो गए, जिनके चलते अमरीका की विदेश नीति ने ईरान और अमेरिका के बीच संबंधों को ऐसी नयी आकृति प्रदान की, जिसके अस्थिर मध्य पूर्व के बाहर भी गंभीर प्रभाव होंगे । वियना में ओबामा दुनिया के सबसे शक्तिशाली शिया संगठन इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ ईरान के सम्मुख झुकते नजर आये हैं ।
बराक हुसैन ओबामा ने स्पष्ट रूप से विश्व शांति प्रक्रिया और इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ युद्ध को गुमराह किया है | इस संभावना पर विचार कीजिये कि परमाणु शक्ति संपन्न शिया ईरान और सुन्नी आतंकवाद का पर्याय बन चुके आईएस की प्रतिस्पर्धा क्या गुल खिला सकती है ?
इस्लामी आतंकवाद को बढ़ावा देना, वह चाहे शिया हो अथवा सुन्नी ओबामा की बड़ी भूल प्रमाणित होगी और आगे चलकर विश्व मानवता को प्रभावित करेगी । दुनिया के विभिन्न भागों में केवल क्षेत्रीय शक्तियों पर कब्जा करने के तात्कालिक लाभ के लिए विश्व शक्तियों द्वारा इस्लामी आतंकवाद का कैसे उपयोग किया जाता रहा है, यह सब अच्छी तरह से जानते हैं। कुख्यात ईरान परमाणु करार में इतिहास की इस पुनरावृत्ति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
इस संभावित खतरे के प्रति आगाह करते हुए भारत में इसराइल के राजदूत डैनियल करमोन ने बुधवार को कहा कि भारत को इस समझौते पर इसराइल की चिंताओं के बारे में पता है | ईरान के साथ हुआ यह परमाणु समझौता वस्तुतः इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भारत और इजरायल को किनारे करने वाला है । राजदूत करमोन ने टाइम्स ऑफ इंडिया को बताया कि कैसे कई वर्षों से भारत और इजरायल आतंक के खिलाफ वैश्विक युद्ध में मजबूत भागीदारी निभाते हुए परस्पर मूल्यों, चुनौतियों और हितों को साझा करते रहे हैं |
भारतीय उपमहाद्वीप में सुन्नी शासित सऊदी अरब, भारत द्वारा इस्लामी संगठनों को नियंत्रित करने के लिए एक महत्वपूर्ण कारक भी है, विशेष रूप से इस कारण भी विवादास्पद ईरानी परमाणु करार का विरोध किया जाना चाहिए ।
अमेरिका ने जान-बूझकर इजरायल और भारत पर इस्लामी कहर का दबाब बनाया है ताकि दोनों राष्ट्र (भारत और इजराइल) इस्लामी युद्ध पर नियंत्रण न रख पायें । इस्लामी आतंकवाद अर्थात बाजालतिक, नशीले पदार्थ और उत्पाती तत्वों की वृद्धि, जिनके कारण अमेरिका की अर्थव्यवस्था में भारी पतन हो रहा है । आलोचकों का मानना है कि अमेरिका क्षेत्र पर एक मजबूत रणनीतिक नियंत्रण के लिए ईरान में अपने नए परमाणु शस्त्रागार भी स्थापित कर रहा है । अमेरिका का यह चेहरा भारतीयों के लिए अनजान नहीं है, क्योंकि “अंकल सेम” कई दशक पहले से पाकिस्तान को आर्थिक मदद देकर व हथियारों के माध्यम से सक्षम बनाकर पाकिस्तान पोषित इस्लामी आतंकवाद को बढ़ावा देते रहे हैं ।
टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ साक्षात्कार में, इसराइली राजदूत करमोन ने कहा कि "अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी की निगरानी के बाबजूद, ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम को ढके छुपे तौर पर जारी रखने में सक्षम है, जैसा कि वह पिछले एक दशक से करता आ रहा है | "
करमोन ने आगे कहा कि "ईरान के परमाणु स्थलों का पूर्व निर्धारित निरीक्षण अर्थहीन है, क्योंकि उससे वास्तविक सत्यापन नहीं होता । सैकड़ों अरबों डॉलर की छूट देने व प्रतिबंधों को हटाने से पश्चिम एशिया में अस्थिरता को बढ़ावा मिलेगा, तथा आतंक का समर्थन करने में ईरान शासन सक्षम हो जाएगा।"
इसराइल इस समझौते को एक 'ऐतिहासिक भूल' मानता है। ईरान के दुश्मन भले ही पश्चिमी देशों के साथ हुए इस सौदे पर अभी निश्चित मत नहीं बना पाए हैं, लेकिन सीरिया के बशर अल असद की प्रतिक्रिया ध्यान देने योग्य है, जिसमें उसने इस समझौते को एक महान जीत बताया है । आखिर क्यों? इस्लामिक संयोजन और उनका उग्रवाद हमेशा अप्रत्याशित है। कौन कह सकता है कि शिया सुन्नी कभी एक नहीं होंगे ?
यह अत्यंत रोचक है कि नई दिल्ली ने इस समझौते का स्वागत किया है | उनका मानना है कि इससे मध्य एशिया में भारत की पहुंच बढ़ेगी, क्योंकि इससे कनेक्टिविटी में सुधार के अलावा, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में शांति और स्थिरता बनाए रखने में भी मदद मिलेगी | यह समझौता नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के सम्मुख ताजा राजनीतिक चुनौतियों में से एक है, क्योंकि हाल के दिनों में उनकी पश्चिम एशिया नीति में इसराइल की ओर झुकाव में वृद्धि देखी जा रही है। कश्मीर और पाकिस्तान की सीमा पर तनाव, आंतरिक सुरक्षा में हमेशा से मिलती आ रही आईएसआई और आईएस की चुनौती, के बाद अब यह ईरानी परमाणु समझौता, निश्चय ही भारत सरकार के लिए एक दुविधा है।
मध्य पूर्व में आईएसआईएस और प्रो-इस्लामी' राज्यों आदि को लेकर अमेरिका की नीति कभी मीठी तो कभी खट्टी रहती है, जो भारत और इसराइल दोनों को किसी भी परिस्थिति में स्वीकार्य नहीं हैं।
अब जबकि ईरान में इस्लामी आतंकवाद के एक भाग को सशक्त बनाने के लिए कदम उठाये जा रहे हैं, उसके दुनिया के सबसे बड़े हिन्दू और यहूदी राष्ट्र भारत और इसराइल दोनों के लिए घातक परिणाम हो सकते हैं | अतः उसके खिलाफ मुखर होने की आवश्यकता है।
इस समझौते के बाद ईरान अपनी जिहाद की विचारधारा छोड़ने वाला नहीं है, अतः अमेरिका को अपनी इस्लाम संबंधी नीति की समीक्षा करनी चाहिए। उसे निहित स्वार्थों के लिए ईरान का तुष्टीकरण करने के स्थान पर इस्लामी आतंकवाद का मुकाबला करने व विश्व शांति की दिशा में कदम बढाते हुए भारत और इजरायल के साथ खड़ा होना चाहिए। अन्यथा गर्म दिमाग वाले इस्लामी समूह “शिया-सुन्नी” के बीच परमाणु युद्ध अपरिहार्य है | तालिबान और आईएस में कौन अच्छा है कौन बुरा ? अगर स्थिति को ठीक से नहीं समझा गया तो दुनिया के दरवाजे पर तीसरा विश्व युद्ध दस्तक दे रहा है | जिसका घातक परिणाम सबको भुगतना पडेगा ।
अमेरिका ईरान के परमाणु समझौते ने स्पष्ट रूप से इस संभावना का द्वार खोल दिया है ।
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