भगवान् विष्णु के अवतार ‘परशुराम’ का मार्शल आर्ट से सम्बन्ध

आप चाहे दुनिया के किसी भी क्षेत्र में बैठे हों, कहीं से भी वास्ता रखते हों लेकिन कुंग्फू को समझने और उसकी दिलचस्प बातों को गहराई से जानने की कोशिश जरूर करते होंगे ! खासतौर पर लड़कों में कुंग्फू को लेकर एक खास दिलचस्पी होती है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि कुंग्फू विश्वविख्यात सबसे बड़े लड़ाकू खेलों में से एक मार्शल आर्ट का एक छोटा सा हिस्सा है !

कुंग्फू का नाम सुनते ही सभी के दिमाग में ‘ब्रूस ली’ की छवि आ जाती है ! उसकी तरह शरीर को पूरा घुमाकर, ना जाने कैसे-कैसे करतब करके दुश्मनों के छक्के छुड़ा देने की स्टाइल शायद ही आज के समय में किसी के पास होगी ! लेकिन ब्रूस ली ही इस आर्ट को आगे बढ़ाने के लिए जिम्मेदार है, ऐसा सोचना भी गलत है, क्योंकि मार्श आर्ट का सिद्धांत इतना पुराना है कि आप सोच भी नहीं सकते ! यदि हिन्दू पुराणों को खंगाल कर देखा जाए, तो ऐसी मान्यता है कि मार्शल आर्ट के संस्थापक भगवान परशुराम हैं ! जी हां... सही सुना आपने !

भगवान विष्णु के छठे अवतार, अपने शस्त्र ज्ञान के कारण पुराणों में विख्यात भगवान परशुराम को पूरे जगत में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है ! भगवान परशुराम मूल रूप से ब्राह्मण थे किंतु फिर भी उनमें शस्त्रों की अतिरिक्त जानकारी थी और इसी कारणवश उन्हें एक क्षत्रिय भी कहा जाता है, लेकिन उस समय में मार्शल आर्ट कहां था ? आप सोच रहे होंगे कि मार्शल आर्ट का भारतीय इतिहास से कोई संबंध है, ऐसा होना भी असंभव-सा है ! लेकिन यही सत्य है... भीष्म पितामाह, द्रोणाचार्य व कर्ण को शस्त्रों की महान विद्या देने वाले भगवान परशुराम ने कलरीपायट्टु नामक एक विद्या को विकसित किया था !

इसी विद्या को आज के युग में मार्शल आर्ट के नाम से जाना जाता है ! ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार कलरीपायट्टु नामक इस विद्या को भगवान परशुराम एवं सप्तऋषि अगस्त्य देश के दक्षिणी भाग में लेकर आए थे ! कहते हैं कि भगवान परशुराम शस्त्र विद्या में महारथी थे इसलिए उन्होंने उत्तरी कलरीपायट्टु या वदक्क्न कलरी विकसित किया था और सप्तऋषि अगस्त्य ने शस्त्रों के बिना दक्षिणी कलरीपायट्टु का विकास किया था !

हैरानी होती है इस बात पर कि कितने पुराने समय में विकसित की गई यह विद्या आज भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में मार्शल आर्ट के नाम से जानी जाती है, लेकिन इस आर्ट ने समय के साथ अपनी कई शाखाएं बना लीं ! जिसमें से एक है कुंग्फू, जो फिलहाल चीन, जापान, थाईलैंड और अन्य दक्षिण और पूर्वी एशियाई देशों में जबरदस्त लोकप्रिय है ! लेकिन यह विद्या भारत से होते हुए इन देशों में कैसे आई ? दरअसल यदि इतिहास के पन्नों को खंगाल कर देखा जाए, तो ऐसे तथ्य मिले हैं जो हैरान करने वाले हैं ! ऐसा माना जाता है कि ज़ेन बौद्ध धर्म के संस्थापक बोधिधर्मन ने भी इस प्रकार की विद्या की जानकारी प्राप्त की थी व अपनी चीन की यात्रा के दौरान उन्होंने विशेष रूप से बौद्ध धर्म को बढ़ावा देते हुए इस मार्शल आर्ट का भी उपयोग किया था !

आगे चलकर वहां के वासियों ने इस आर्ट का मूल रूप से प्रयोग कर शाओलिन कुंग फू मार्शल आर्ट की कला विकसित की ! इतिहासकारों के मुताबिक़ बोधिधर्मन दक्षिण भारतीय तमिल राजवंश पल्लव वंश के राजकुमार थे ! पांचवीं शताब्दी में पल्लव साम्राज्य के शासक महाराज कांता वर्मन के तीसरे राजकुमार बोधिधर्मन ने बालावस्था में ध्यान करना प्रारम्भ कर दिया था !

बोधिवर्मन अपने जीवन में कुछ अलग करना चाहते थे ! कुछ ऐसा जिसे जानने के बाद वे अपने शिक्षकों को अच्छाई के मार्ग पर ला सकें, शायद इसलिए उन्होंने भगवान परशुराम द्वारा विकसित की गई कलारिप्पयतु विद्या की शिक्षा प्राप्त की ! शुरुआत में उन्होंने इस विद्या को आत्मरक्षा के रूप में प्रयोग किया, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें समझ आया कि इस विद्या में सारा ज्ञान है, और यदि इसे पूरे विश्व में फैलाया जाए तो यह बेहद उपयोगी है !

अतः युवावस्था में बौद्ध धर्म स्वीकृत करने के पश्चात बोधिधर्मन ने इसके प्रचार-प्रसार करने हेतु चीन की ओर प्रस्थान किया, और वहां शरीर, बुद्धि और आत्मा को सम्मिलत रूप से एकीकृत करने वाली ध्यान की तकनीक कलारिप्पयतु को और विकसित किया ! शुरू में तो यह विद्या कलारिप्पयतु के नाम से ही जानी गई, लेकिन बाद में चीनी क्षेत्रों में इसे मार्शल आर्ट का नाम दिया गया ! यह तथ्य अचंभित कर देने वाला है, लेकिन सच में बोधिधर्मन ने इस विद्या को चीन के भिक्षुओं को भी सिखाया और उन्हें आत्मरक्षा का महत्व समझाया !

शायद यही कारण है कि बोधिधर्मन को चीन, जापान, थाईलैंड आदि देशों में भगवान की तरह पूजा जाता है ! बोधिधर्मन के बारे में एक और बात काफी प्रसिद्ध एवं रोचक है कि वे आत्मरक्षा कला के जनक होने के साथ ही एक महान चिकित्सक भी थे ! उन्होंने अपने ग्रंथों में उन्नत प्रौद्योगिकी (डीएनए) के माध्यम से बीमारियों को ठीक करने की विधि के बारे में भी विस्तृत प्रकाश डाला है ! बोधिधर्मन को चीन में “दा मो” और “बा ताओ” के नाम से भी जाना जाता है !

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