परशुराम वरुण संवाद और शुनःशेप - एक अद्भुत प्रसंग |




कथा वाचक श्री रमेश जी शर्मा के श्रीमुख से परशुराम कथा का चतुर्थ दिवस -

पुस्तकों की आरती उतारकर कोई बच्चा परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सकता, उसी प्रकार धर्मग्रंथों की आरती उतारने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है, उनमें लिखित बातें अपने जीवन में उतारना | जब सब ऋषियों की संतानें हैं, तो फिर समाज में वर्गभेद क्यों ? हमारे समाज में जो जातियां थीं, वे कार्य के आधार पर थीं | भारतीय वांग्मय में अनेकों उदाहरण हैं, जिनमे ब्राह्मण क्षत्रिय बने, विश्वामित्र के विषय में तो सभी जानते हैं कि वे क्षत्रिय से ब्राहमण बने | हम किसी के साथ एक थाली में खा नहीं सकते, लेकिन साथ में बैठकर भगवान् का भजन तो कर सकते हैं |

आध्यात्म और विज्ञान साथ साथ चलते हैं | अध्यात्म के बिना विज्ञान अंधा है | यही कारण है कि पश्चिम समस्याग्रस्त है | भारत ने विज्ञान को छोड़ा, अध्यात्म को अपनाया नतीजा, भूख, बेरोजगारी | आवश्यकता संतुलन की है | ईश्वर प्राप्ति के जो उपाय बताये गए हैं, वे हैं – ज्ञान, कर्म, दान और भक्ति | यदि ज्ञान नहीं है तो यह कैसे पता लगेगा कि भक्ति किसकी करनी है ? या जिसकी भक्ति कर रहे हैं, वह उसके योग्य है भी अथवा नहीं ? आजकल कोई भी महामंडलेश्वर बना घूम रहा है | देश में 24 शंकराचार्य हैं | जबकि आदि शंकराचार्य जी ने मात्र चार पीठ बनाए थे, दो उप पीठ हैं, इस हिसाब से होने चाहिए छः, शेष 18 कहाँ से आये ? हमें किसी की अवज्ञा नहीं करना, पर बुद्धि से समझना भी आवश्यक है | छः को प्रणाम करना उचित है, तो शेष 18 को दूर से नमस्कार | विचार व भाव ज्ञान व भक्ति तक ले जाते हैं | केवल ज्ञान नास्तिक बना सकता है | अतः ज्ञान और भक्ति साथ साथ चलें | जीवन को सुखमय बनाना है तो संतुलन आवश्यक है | अन्धानुकरण से बचना श्रेयस्कर |

सुन्दरकाण्ड में हनुमान जी के लंका जाने का वर्णन है | उसमें दो तीन बातों पर ध्यान देने की जरूरत है | उन्हें मार्ग में दो महिलायें मिलती हैं और एक एक वाक्य कहती हैं | उन वाक्यों को सुनकर हनुमान जी दोनों से अलग अलग व्यवहार करते हैं | सुरसा ने कहा – आज सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा | हनुमान जी समझ जाते हैं कि यह सात्विक शक्ति है, वह उसे प्रणाम करते हैं | अपने बुद्धि विवेक से उसे अवरोधक के स्थान पर सहयोगी बनाकर आगे बढ़ जाते हैं | जबकि लंकिनी कहती है – मैं लंकिनी हूँ, मेरी निंदा करके कहाँ चले जा रहे हो | हनुमान जी समझ जाते हैं, मैं अर्थात अहंकार, अर्थात आसुरी शक्ति और वे उसे घूँसा लगाते है | व्यक्ति को एक नजर में समझने की सामर्थ्य |

दूसरा प्रसंग – सीता जी का समाचार प्राप्त कर वानर दल लौटा | भगवान राम ने हनुमान जी से पूछा कि इतना पराक्रम कैसे किया ? हनुमान जी ने चरणस्पर्श कर उत्तर दिया, भगवन आपकी कृपा से | अहंकार का नामोनिशान नहीं | समझ लेना चाहिए कि परिवार के मुखिया के सामने अहंकार नहीं विनम्रता | 

राजा हरिश्चंद को जलोदर की बीमारी हो गई | महर्षि भ्रकुंड की सलाह पर मान्यता ली कि रोगमुक्त हो जायेंगे तो वरुण देव को एक ब्राह्मण वालक की बलि देंगे | रोगमुक्त हुए तो ब्राह्मण बालक की तलाश शुरू हुई | शर्त यह थी कि जिस बालक की बलि दी जायेगी, उसकी व उसके परिवार की सहमति होना चाहिए | अन्त में परशुराम जी के पिता महर्षि जमदग्नि के भाई अजीगर्त का बेटा शुनःशेप बलि के लिए तैयार हुआ | अजीगर्त को किसी अपराध के चलते चांडाल घोषित कर दिया गया था | अजीगर्त ने एक सहस्त्र गाय लेकर अपना बेटा बलि के लिए प्रदान कर दिया | अब प्रश्न आया कि उसे यज्ञ वेदी से कौन बांधे | अजीगर्त ने एक सहस्त्र गाय और लेकर यह कार्य भी कर दिया |

महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में अध्ययनरत बालक परशुराम व अन्य वेदपाठी वालक यह समाचार सुनकर बेचैन हो गए | उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से उस यज्ञ में जाने की अनुमति मांगी | महर्षि की अनुमति लेकर चार वालकों का यह दल यज्ञ स्थल पर पहुंचा | वहां उपस्थित अपने पिता जमदग्नि, व ऋषि विश्वामित्र को प्रणाम कर उन्होंने पूछा कि क्या मैं वरुण देव का आवाहन कर सकता हूँ ? दोनों ने कहा कि इसके लिए तो यज्ञ के आयोजक राजा हरिश्चंद्र से ही पूछना होगा | राजा ने कहा कि यज्ञ के पुरोहित तो महर्षि भ्रकुंड हैं, उनसे ही अनुमति लेना होगा | भ्रकुंड ने संकोच के साथ अनुमति दे दी | 

परशुराम के आवाहन पर वरुण देव प्रगट हुए | परशुराम जी ने वरुणदेव से पूछा कि क्या राजा हरिश्चंद्र ने आपको एक ब्राह्मण वालक की बलि देने का संकल्प लिया, इस कारण वे ठीक हुए हैं ?

वरुणदेव ने कहा कि नहीं, वे अपने कर्मफल के कारण रोगमुक्त हुए हैं |

परशुराम ने पुनः प्रश्न किया कि क्या आप यह बलि स्वीकार करेंगे ?

वरुणदेव ने कहा कि यह दैत्य कर्म है, कोई देवता रक्त पिपासु नहीं होता | यह भ्रकुंड व राजा का अज्ञान है |

यज्ञ मंडप में उपस्थित सभी लोग रोमांचित होकर यह अद्भुत संवाद सुन रहे थे | अब प्रश्न सामने था कि अगर वालक की बलि नहीं देनी है, तो उसका क्या किया जाए ? राजा ने वरुणदेव से कहा कि आप इस बालक को स्वीकार करें | वरुण ने अस्वीकार किया तो वालक के पिता से कहा गया कि वह वालक को वापस ले लें | पिता अजीगर्त ने कहा कि जो गायें मुझे दी हैं, आप उन्हें वापस ले लें, तो ही मैं अपने पुत्र को वापस लूंगा |

राजा ने कहा कि आपने भले ही उन गायों को वालक की कीमत के रूप में स्वीकार किया हो, किन्तु मैंने तो गायें दान के रूप में ही दी हैं | मैं दान वापस कैसे ले सकता हूँ ?

यह देखकर वरुण देव ने विश्वामित्र से कहा कि आप ही इस बालक को पुत्ररूप में स्वीकार करें, इसी से आपका वंश चलेगा |

और आगे चलकर विश्वामित्र की पत्नी कौशिकी से जो संतानें हुईं, उनसे विश्वामित्र का क्षत्रिय कुल चला, और शुनःशेप से विश्वामित्र का ब्राह्मण कुल चला |

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