आखिर है क्या बला, यह टीपू विवाद ?


वर्ष 2014 में कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने आधिकारिक तौर पर हर वर्ष 10 नवंबर को शासकीय तौर पर टीपू सुल्तान" की जयंती मनाने की घोषणा की। इसके साथ ही टीपू की ऐतिहासिक भूमिका को लेकर विवाद प्रारम्भ हो गया | कुछ ऐसे लोग हैं जिनकी नजर में टीपू सुलतान ब्रिटिश उपनिवेशवाद से जूझने वाला कर्नाटक का महान सपूत है, तो बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो उसे हिंदुओं और ईसाइयों पर कहर बरपाने वाला, जबरन धर्मांतरण करवाने वाला, धर्मस्थलों का विध्वंस करने वाला, अत्याचारी और नृशंस हत्यारा मानते हैं ।

स्वाभाविक ही, जैसे ही सरकार द्वारा उत्सव मनाने की घोषणा हुई, असहमति की आग भड़क उठी । विहिप ने तो आंदोलन ही शुरू कर दिया, जबकि भाजपा ने कर्नाटक विधान सौध में आयोजित समारोह के बहिष्कार की घोषणा कर दी । दूसरी ओर, मुख्य मंत्री सिद्धारमैया लगातार इस बात पर जोर देते रहे कि टीपू एक देशभक्त और सच्चा धर्मनिरपेक्ष शासक था | विरोध की आग में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित गिरीश कर्नाड ने यह कहकर आग में और घी डाल दिया कि अगर टीपू हिन्दू होता तो कर्नाटक में वह उतना ही श्रद्धेय होता जितना क्षत्रपति शिवाजी महाराष्ट्र में हैं । कर्नाड इतने पर ही नहीं रुके, उन्होंने लगे हाथ यह मांग भी कर डाली कि चूंकि टीपू देवनहल्ली, में पैदा हुआ था, जहाँ कि बेंगलुरू हवाई अड्डा स्थित है, अतः हवाई अड्डे का नाम भी टीपू के नाम पर होना चाहिए ।

आईये इतिहास के पन्नों पर नजर डालते हैं और जानते हैं कि सचाई क्या है ?

टीपू सुल्तान के पिता हैदर अली, मैसूर के वाडियार राजा की सेना में एक जूनियर अधिकारी के रूप भर्ती हुए थे | उसने अपनी ताकत इतनी बढाई कि 1761 में सत्ता पर काबिज हो गया । उसने यह ताकत कैसे बढाई, कैसे वाडियार राजा को गद्दी से हटाया, इसकी चर्चा में उलझे तो विषय बहुत लंबा हो जाएगा | उस पर तो पूरा उपन्यास लिखा जा सकता है |

टीपू 1750 में पैदा हुआ और 17 साल की उम्र में पहले एंग्लो-मैसूर युद्ध में भाग लिया । अंग्रेजों से युद्ध के दौरान ही उसके पिता हैदर की मृत्यु हुई, और टीपू शासक बना | 1782 में मंगलौर संधि के साथ वह युद्ध समाप्त हुआ । बाद में 1782-84 के बीच उसने मराठों के खिलाफ भी लड़ाई लड़ी ।

भारत के इतिहास में टीपू का उल्लेख एक साहसी सेनापति के रूप में आता है, जिसने अपने 17 साल के शासन काल में, अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के दांत खट्टे किये । 1799 में चौथे एंग्लो-मैसूर युद्ध में अपनी राजधानी श्रीरंगापटनम का बचाव करते हुए युद्ध के मैदान में टीपू मारा गया, किन्तु तब तक उसने पहले गवर्नर-जनरल कार्नवालिस और बाद में वेलेस्ले की रातों की नींद हराम रखी । टीपू की मौत के बाद अंग्रेजों ने पुनः वोडेयार राजा को गद्दी नसीन किया, जोकि देश के अन्य राजाओं के समान बाद में एक प्रकार से अंग्रेजों के अधीनस्थ ही रहे | 

टीपू की विशेषताएं –

टीपू को युद्ध भूमि में राकेट का प्रयोग करने वाला प्रथम व्यक्ति माना जाता है | उसने आधुनिक तकनीक का उपयोग कर यूरोपीय तर्ज पर अपनी सेना को पुनर्गठित किया | 

उसने कर प्रणाली में सुधार कर राज्य के संसाधन आधार को बढ़ाया, वेतनभोगी एजेंटों के माध्यम से किसानों पर सीधे कर लगाने और बसूलने की व्यवस्था बनाई, विस्तृत सर्वेक्षण और वर्गीकरण के आधार पर एक व्यापक भूमि राजस्व प्रणाली तैयार की। बंजर भूमि के विकास के उपाय किये, सिंचाई के बुनियादी ढांचे का निर्माण किया और पुराने बांधों की मरम्मत कराई | कृषि और रेशम उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए कर में राहत दी, कुल मिलाकर कृषि के आधुनिकीकरण के लिए काम किया।

समुद्री व्यापार बढाने के लिए जलपोतों का निर्माण किया, उनकी सुरक्षा के लिए नौसेना खडी की और मैसूर के बाहर कारखानों की स्थापना के लिए "राज्य में वाणिज्यिक निगम" का गठन किया । मैसूर के चंदन, रेशम, मसाले, चावल और सल्फर का व्यापार शुरू करवाया ।

तो फिर आखिर टीपू से नफ़रत के क्या कारण हैं ?

हिन्दू जनता पर टीपू की क्रूरता के असंख्य विवरण मिलते हैं। पुर्तगाली यात्री बार्थोलोमियो ने सन् 1776 से 1789 के बीच के प्रत्यक्षदर्शी वर्णन लिखे हैं। उस की प्रसिद्ध पुस्तक ‘वोयाज टु इस्ट इंडीज’ 1800 में ही प्रकाशित हो चुकी थी। अभी भी वह कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से हाल में छपी उपलब्ध है। टीपू और फ्रांसीसियों के संयुक्त अभियान का वर्णन करते हुए बार्थोलोमियो ने लिखा, ‘टीपू एक हाथी पर था, जिस के पीछे तीस हजार सैनिक थे। कालीकट में अधिकांश पुरुषों और स्त्रियों को फाँसी पर लटका दिया गया। पहले माँओं को लटकाया गया जिन के गले से उन के बच्चे बाँध दिए गए थे। बर्बर टीपू ने हिन्दुओं और ईसाइयों को हाथी के पैरों से नंगे शरीर बाँध दिया और हाथियों को तब तक इधर-उधर चलाते रहा जब तक उन बेचारे शरीरों के टुकड़े-टुकड़े नहीं हो गए। मंदिरों और चर्चों को गंदा और तहस-नहस करके आग लगाकर खत्म कर दिया गया।...’ 

हमारे प्रसिद्ध इतिहासकार के. एम. पणिक्कर ने ‘भाषा पोषिणी’ (अगस्त, 1923) में टीपू का एक पत्र उद्धृत किया है। सैयद अब्दुल दुलाई को 18 जनवरी 1790 लिखित पत्र में टीपू के शब्द थेः ‘नबी मुहम्मद और अल्लाह के फजल से कालीकट के लगभग सभी हिन्दू इस्लाम में ले आए गए। महज कोचीन राज्य की सीमा पर कुछ अभी भी बच गए हैं। उन्हें भी जल्द मुसलमान बना देने का मेरा पक्का इरादा है। उसी इरादे से मेरा जिहाद है।’ 

अगले दिन, 19 जनवरी 1790 को बद्रुज जुमा खान को टीपू ने लिखा, ‘तुम्हें मालूम नहीं कि हाल में मालाबार में मैंने गजब की जीत हासिल की और चार लाख से अधिक हिन्दुओं को मुसलमान बनाया? मैंने तय कर लिया है कि उस मरदूद ‘‘रामन नायर’’ [त्रावनकोर के राजा, जो धर्मराज के नाम से प्रसिद्ध थे] के खिलाफ जल्द हमला बोलूँगा। चूँकि उसे और उस की प्रजा को मुसलमान बनाने के ख्याल से मैं बेहद खुश हूँ, इसलिए मैंने अभी श्रीरंगपट्टम वापस जाने का विचार खुशी-खुशी छोड़ दिया है।’

ऐसे विवरण अंतहीन हैं। बाम्बे मलयाली समाज द्वारा प्रकाशित ‘टीपू सुलतानः विलेन ऑर हीरो’ (वायस ऑफ इंडिया, दिल्ली, 1993) में अनेक प्रमाणिक संदर्भ दिए गए हैं। टीपू के समकालीन साफ दिखाते हैं कि उस का मुख्य लक्ष्य हिन्दू धर्म का नाश तथा हिन्दुओं को इस्लाम में लाना था। मीर हुसैन अली किरमानी की पुस्तक ‘निशाने हैदरी’ (1802) में इस का विवरण है। इस के अनुसार टीपू ने श्रीरंगपट्टनम में एक शिव मंदिर तोड़कर उसी जगह जामा मस्जिद (मस्जिदे आला) बनवायी। 

मेजर अलेक्स डिरोम ने टीपू के खिलाफ मैसूर की लड़ाई में हिस्सा लिया था। उन की पुस्तक ‘थर्ड मैसूर वार’ (1793) में टीपू की शाही मुहर का वर्णन है, जिस में उस ने खुद को ‘सच्चे मजहब का दूत’ घोषित किया था। यह खाली दावा न था। टीपू ने कई जगहों के नाम बदल कर उन का भी इस्लामीकरण किया। जैसे, कालीकट को इस्लामाबाद, मंगलापुरी (मैंगलोर) को जलालाबाद, मैसूर को नजाराबाद, धारवाड़ को कुरशैद-सवाद, रत्नागिरि को मुस्तफाबाद, डिंडिगल को खलीकाबाद, कन्वापुरम को कुसानाबाद, वेपुर को सुलतानपटनम, आदि। टीपू के मरने के बाद इन सब को फिर अपने नामों में पुनर्स्थापित किया गया।

इतिहासकार सैयद पी. ए. मुहम्मद की पुस्तक ‘केरल मुस्लिम चरित्रम्’ (1951) के अऩुसार, ‘केरल में टीपू ने जो किया वह भारतीय इतिहास में चंगेज खान और तैमूर लंग के कारनामों से तुलनीय है।’ राजा राज वर्मा ने अपने ‘केरल साहित्य चरितम्’ (1968) में लिखा है, ‘टीपू के हमलों में नष्ट किए गए मंदिरों की संख्या गिनती से बाहर है। मंदिरों को आग लगाना, देव-प्रतिमाएं तोड़ना तथा गायों का सामूहिक संहार करना उस का और उस की सेना का शौक था। तलिप्परमपु और त्रिचम्बरम मंदिरों के विनाश के स्मरण से आज भी हृदय में पीड़ा होती है।’

इसी तरह, विलियम लोगान की ‘मालाबार मैनुअल’ (1887), विलियम किर्कपैट्रिक की ‘सेलेक्टेड लेटर्स ऑफ टीपू सुल्तान’ (1811), मैसूर में जन्मे इतिहासकार व शिलालेख-विशेषज्ञ बेंजामिन लेविस राइस की ‘मैसूर गजेटियर’ (1897), डॉ. आई. एम. मुथन्ना की ‘टीपू सुलतान एक्स-रेड’ (1980), आदि में भी टीपू के काले कारनामों के उल्लेख हैं। 

सभी को पढ़कर संदेह नहीं कि यदि एक सौ जेनरल डायर मिला दिए जाएं, तब भी निरीह हिन्दुओं को बर्बरतापूर्वक मारने में टीपू का पलड़ा भारी रहेगा! यह तो केवल सामूहिक कत्ल रहा। केरल और कर्नाटक में मुस्लिम आबादी की बड़ी संख्या का सब से बड़ा कारण टीपू सुलतान था। उस का हिन्दुओं को दिया हुआ कुख्यात विकल्प था - ‘तलवार या टोपी’। अर्थात, इस्लामी टोपी पहनकर मुसलमान बनो और गोमांस खाओ, वरना तलवार के घाट उतरो! टीपू के इस कौल (‘स्वोर्ड ऑर कैप’) का उल्लेख कई स्त्रोतों में मिलता है।

लगभग हर ऐतिहासिक आंकड़े के साथ यह स्पष्ट होता है कि हैदर और टीपू दोनों में अदम्य महत्वाकांक्षा थी | दोनों ने अपनी सत्तासीमा बढाने की हरचंद कोशिश की और मैसूर के बाहर के प्रदेशों पर आक्रमण किये और उनपर कब्जा जमाया। हैदर ने मालाबार और कोझिकोड पर कब्जा करने के बाद कोडागू, त्रिशूर, कोच्चि और मय्याज्ही (माहे) पर विजय प्राप्त की। जबकि टीपू ने कोडगु पर धावा बोला तथा अंग्रेजी और मराठों के साथ युद्ध किया | उसने कोच्चि और त्रावणकोर को तो लगभग मसल कर रख दिया ।

इन क्षेत्रों में उसके अत्याचार की दारुण कहानी है। कोडागू, मंगलूर और मालाबार में उसने अनेक कस्बों और गांवों को जला कर ख़ाक कर दिया, सेंकडों मंदिरों और चर्चों को धूल में मिला दिया, हजारों हिन्दुओं को धर्मान्तरण के लिए विवश किया | अतः स्वाभाविक ही इन क्षेत्रों के निवासी उसे एक जालिम तानाशाह के रूप में मानते है, जोकि वह हैभी । यह व्यथा कथा काल्पनिक नहीं है, इनके ऐतिहासिक दस्तावेज हैं और कोई भी इन्हें झुठला नहीं सकता ।

अब सवाल उठता है कि जब एक ही व्यक्ति के दो रूप इतिहास में दर्ज हैं तो उसे नायक माना जाए या खलनायक ? जबकि वह दोनों था | हर इंसान किसी के लिए अच्छा तो किसी के लिए बुरा होता है | या एक ही समुदाय के लिए भी किसी समय अच्छा तो किसी समय बुरा होता है | 

टीपू ने हिंदुओं और ईसाइयों को सताया इसके पर्याप्त सबूत हैं, वहीं हिंदू मंदिरों और पुजारियों को संरक्षण भी दिया, उन्हें दान और अनुदान भी दिया । नंजनगुड, कांची और कलाले मंदिरों और श्रृंगेरी मठ उसके संरक्षण में रहे यह भी तथ्य है ।

टीपू एक महत्वाकांक्षी शासक था, उसे राष्ट्रवादी, देशभक्त और धर्मनिरपेक्ष बताना इतिहास को झुठलाना है | सिद्धारमैया के फ़रिश्ते भी उतर आयें तो कोई यह नहीं मान सकता, इस प्रकार की बहस व्यर्थ है। उस 18 वीं शताब्दी में कालखंड में न तो राष्ट्रवाद था और नाही धर्मनिरपेक्षता का कोई अस्तित्व । टीपू ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से जो लड़ाईयां लड़ीं, वे केवल और केवल अपने राज्य को बचाने के लिए लड़ीं | सचाई तो यह है कि अंग्रेजों से ज्यादा तो वह मराठो से लड़ा | उसने जो जनकल्याण के कार्य किये, वे भी अपनी राज्य व्यवस्था के सुचारू संचालन के लिए ही किये ।

टीपू को नैतिकता या धर्म के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए, वह बहुस्तरीय व्यक्तित्व था। उसे नायक बताना या खलनायक तानाशाह मानना, दोनों ही सही नहीं होंगे | प्रजा पर अत्याचार क्या राजस्थान के हिन्दू राजाओं ने नहीं किये ? या अपनी महाराष्ट्र की सीमा के बाहर मराठाओं ने लूटपाट नहीं की ? हाँ उन्होंने धर्मांतरण नहीं करवाए |

तो फिर मौजूदा राजनीतिक लड़ाई का औचित्य क्या ? टीपू की प्रशंसा या निंदा का यह अभियान क्यों ? अठारहवीं शताब्दी की घटनाओं के गढ़े मुर्दे आज इक्कीसवीं सदी में क्यों उखाड़े जा रहे हैं ? 

दरअसल कांग्रेस के समक्ष चुनावों में सफलता पाने की चुनौती है | टीपू के नाम पर उसे मुस्लिम मतों के ध्रुवीकरण का भरोसा है | अभी तक मुस्लिम मत कांग्रेस और जनता दल एस के बीच बंटते रहे हैं | त्रिकोणीय संघर्ष में कहीं भाजपा बाजी न मार जाए सिद्धरमैया इस चिंता में दुबले हो रहे हैं | अठारहवीं सदी का राजा टीपू उनकी धर्म-निरपेक्ष वाली छवि बनाने में सहायक हो सकता है ।

टीपू की विरासत पर इतिहासकारों द्वारा बहस तो समझ में आती है, किन्तु उसमें राजनेताओं का कूदना कहाँ की समझदारी है ? कोई सरकार एक विवादास्पद व्यक्ति की जयन्ती शासकीय तौर पर कैसे मना सकती है ? क्या कल औरंगजेब की जयन्ती भी अखिल भारतीय स्तर मनाई जायेगी ? आखिर टीपू को दक्षिण भारत का औरंगजेब ही तो कहा जाता रहा है |

बंगलौर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति श्री थिमप्पा मंचले सूर्यनारायणराव के अनुसार तो 10 नवम्बर टीपू का जन्म दिन है ही नहीं, 10 नवम्बर तो वह दिन है, जब तानाशाह टीपू ने मेलकोटे में 700 आयंगर ब्राह्मणों को फांसी पर लटका दिया था | यही कारण है कि आयंगर आज भी दीपावली नहीं मनाते | अब इसे क्रूर विडंबना नहीं तो क्या कहा जाए कि कर्नाटक सरकार टीपू को धर्मनिरपेक्ष नायक मानने का निर्णय लेती है | क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि आयोजकों को टीपू के जन्मदिन की कोई आधिकारिक तारीख भी नहीं मिली ?

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