दीप से दीप जलाने की परंपरा है संघ प्रचारक !


“उत्तंग ध्येय के लिए पागल बन चुके लोगों को “विश्रांति” ये तीन अक्षर कभी नहीं मिलते | उनको विश्रांति लेने को बाध्य करने का और बल पूर्वक थपकी देकर सुलाने का सामर्थ्य केवल एक के ही पास होता है | उसका नाम है मृत्यु |” 

क्या आप जानते हैं कि उक्त शब्द किसके हैं ?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक प.पू. श्री गुरूजी व उनके बाद बालासाहब देवरस जी के सहयोगी रहे आबाजी को जीवन के अंतिम दो वर्ष में शारीरिक कष्टों का सामना करना पडा | उनके पैर की हड्डी टूट गई | उस अवस्था में भी उन्होंने मद्रास की यात्रा की | अंत में उन पर लकवे का आक्रमण हुआ, शरीर का दाहिना हिस्सा बलहीन हो गया | फिर भी वे बाएं हाथ से लिखकर पत्राचार करते रहे | ऐसे वह कर्मयोगी कार्यकर्ता थे | अंत तक स्थिर और पूर्ण शांत | 

गुरूजी की आध्यात्मिक धारणा का कुछ अंश आबा जी में भी संचारित हुआ था | उनकी दैनन्दिनी के अंतिम प्रष्ठ पर उनके द्वारा लिखी हुईं हैं उत्कट देशभक्ति की प्रतीक उक्त चार पंक्तियाँ ! शायद उनके जीवन का अंतिम लेखन और अंतिम सन्देश |

निहित स्वार्थ की खातिर रातदिन संघ को कोसने वाले क्या समझेंगे संघ स्वयंसेवकों की इस जीवटता को, संघ प्रचारकों की इस परंपरा को ?

उन दिनों डाक्टर जी काफी बीमार थे और आबाजी थत्ते डाक्टरी पढ़ रहे थे। एक स्वयंसेवक के नाते आबाजी उनके हाल-चाल पूछने उनके घर गए थे। डाक्टर जी की पहचानने की शक्ति बहुत अलौकिक थी। आबाजी का हाथ थामकर डाक्टर जी ने कहा, "देखो, एक डाक्टर जा रहा है, तो क्या हुआ, दूसरा आ गया है।' बस उसी दिन से आबाजी थत्ते संघ कार्य हेतु निकल पड़े-जीवनभर के लिए।

दीप से दीप जलाने की यह परंपरा ही देश और समाज को दिशा दे सकती है !

सरसंघचालक श्री गुरुजी और फिर बालासाहब देवरस के प्रवास में उनकी छाया की तरह साथ रहने वाले डा. वासुदेव केशव (आबाजी) थत्ते का जन्म 24 नवम्बर, 1918 को हुआ था। उनका पालन स्टेट बैंक में कार्यरत उनके बड़े भाई अप्पा जी और भाभी वाहिनी थत्ते ने अपने पुत्र की तरह किया। 1939 में बड़े भाई की प्रेरणा से वे मुंबई की प्रसिद्ध शिवाजी पार्क शाखा में जाने लगे। 

मुंबई से एम.बी.बी.एस. पूर्ण कर आबाजी ने प्रचारक बनने का संकल्प लिया। अतः 1944-45 में श्री बालासाहब देवरस ने उन्हें नागपुर बुला लिया। वस्तुतः बालासाहब के मन में उनके बारे में कुछ और योजना थी। अतः सर्वप्रथम उन्हें बड़कस चौक में डा. पांडे के साथ चिकित्सा कार्य करने को कहा गया।

बालासाहब चाहते थे कि श्री गुरुजी के साथ कोई कार्यकर्ता सदा रहे। अतः पहले उन्होंने आबाजी को पर्याप्त चिकित्सा का अनुभव लेने दिया। इसके बाद उन्हें शाखा विस्तार के लिए बंगाल में शिवपुर भेजा गया। उन दिनों बंगाल में संघ का काम नया था। अतः महाराष्ट्र से ही वहां प्रचारक भेजे जाते थे; पर आबाजी के प्रयास से शिवपुर से स्थानीय प्रचारक भी निकलने लगे।

1950 में संघ से प्रतिबन्ध हटने के बाद बालासाहब ने आबाजी को श्री गुरुजी के साथ रहने को कहा। इस दायित्व को निभाते हुए आबाजी ने पहले श्री गुरुजी और फिर बालासाहब के साथ लम्बे समय तक प्रवास किया। आबाजी ने इस दौरान न जाने कितने महत्वपूर्ण प्रसंग देखे और सुने; पर इनको उन्होंने कभी व्यक्त नहीं किया। श्री गुरुजी के निधन के बाद जब बालासाहब ने प्रवास प्रारम्भ किया, तो आबाजी ने उनके साथ रहते हुए एक कड़ी की भूमिका निभाई और देश भर में प्रमुख कार्यकर्ताओं से उन्हें मिलवाया।

श्री गुरुजी के साथ आबाजी सभी जगह जाते थे। अतः वे दोनों इतने एकरूप हो गये थे कि यदि किसी समारोह में किसी कारण से गुरुजी नहीं पहुंच सके और आबाजी पहुंच गये, तो गुरुजी की उपस्थिति मान ली जाती थी। बालासाहब के देहांत के बाद उन्हें 'अखिल भारतीय प्रचारक प्रमुख' बनाया गया। इसके साथ ही ग्राहक पंचायत, सहकार भारती, राष्ट्र सेविका समिति तथा अन्य महिला संगठनों से समन्वय बनाने का काम भी उनके जिम्मे था।

आबाजी संपर्क करने में कुशल थे तथा काम के व्यस्तता में से समय निकालकर नागपुर के कार्यकर्ताओं से मिलते रहते थे। अपने संपर्कों को जीवन्त बनाये रखने के लिए वे प्रवास के दौरान लगातार पत्र-व्यवहार भी करते रहते थे। आपातकाल के बाद जब संघ विचार की अनेक संस्थाओं को देशव्यापी रूप दिया गया, तो आबाजी के इन संपर्कों का बहुत उपयोग हुआ। 27 नवम्बर 1995 को उन्होंने अपने क्रियाशील जीवन से विराम लिया और चिर विश्रांति को प्रस्थान किया |

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