अजूबा – सौर ऊर्जा की मदद से सूखा प्रभावित क्षेत्रों में भी पानी उत्पन्न हो सकता है ? – तान्या सिंह




महाराष्ट्र के सतारा जिले के एक अर्द्ध शुष्क क्षेत्र में एक भूखंड आज न केवल हरा भरा है, बल्कि वहां पूरी तरह से विकसित 20 सुन्दर वृक्ष भी खड़े हैं ! आपको जानकर हैरत होगी कि इन पेड़ों को उगाने के लिए, बीज बोने के बाद विकसित करने तक के लिए पानी सौर ऊर्जा की मदद से वहां की सूखी मिट्टी से ही प्राप्त हुआ है ।

यह सफल प्रयोग करने वाले निम्बकर कृषि अनुसंधान संस्थान Nimbkar Agricultural Research Institute (NARI) के निदेशक डॉ अनिल राजवंशी कहते हैं कि – “1970 के दशक में अमेरिका में अपनी पीएचडी करने के बाद मैं भारत वापस आया ! मेरा कार्य अधिकाँशतः पानी के सौर आसवन पर केन्द्रित था ! सौर ऊर्जा के साथ क्या क्या किया जा सकता है, यह शोध करते करते मैंने पाया कि यदि रेगिस्तान में एक छोटा छेद कर उसे प्लास्टिक से ढक दिया जाए तो सौर ऊर्जा द्वारा तपने के साथ उस छेद में प्रतिदिन एक कप पानी जमा हो जाता है ! यह बात वर्षों तक मेरी स्मृति में सुरक्षित रही !”

1981 में डा राजवंशी अपनी शिक्षा का उपयोग ग्रामीण भारत के विकास के लिए करने के उद्देश्य से भारत वापस लौटे और “नारी” (निम्बकर कृषि अनुसंधान संस्थान) की स्थापना की तथा उसके माध्यम से ऊर्जा और सतत विकास का काम प्रारम्भ कर दिया।

उस समय को याद करते हुए वे कहते हैं कि - "मैं इस अत्यंत शुष्क और आंशिक रूप से अर्द्ध शुष्क क्षेत्र में 1980 में आया था। कुछ समय बाद 1980 के दशक में ही भारत सरकार ने व्यापक पैमाने पर वृक्षारोपण कार्यक्रम का आयोजन किया। लेकिन बोये गए देशी पेड़ों के बहुत से बीजों में से बहुत कम ही उगकर पेड़ बन पाए ! अधिकाँश बीज नष्ट हो गए ।“ 

अतः डॉ. राजवंशी ने अपनी पढाई के दौरान प्राप्त ज्ञान का उपयोग करने का निश्चय किया और उन्होंने 1988 में सौर ऊर्जा की मदद से आसवित जल का उपयोग कर पेड़ विकसित करने की दिशा में काम शुरू कर दिया | प्रयोग का आधार था कि मिट्टी में कुछ ना कुछ नमी रहती है, और पौधें की जड़ें ऑस्मोसिस की मदद से इस पानी का उपयोग करती हैं | ऑस्मोसिस एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें एक विलायक (इस मामले में जल), एक अर्द्ध पारगम्य झिल्ली के माध्यम से कम घुलनशील पदार्थ वाले क्षेत्र से अधिक घुलनशील पदार्थ वाले क्षेत्र की ओर प्रवाहित होता है ।

ऑस्मोसिस के माध्यम से जड़ें मिट्टी से पानी को अवशोषित करती हैं । लेकिन अर्द्ध शुष्क और शुष्क क्षेत्रों में, मिट्टी पानी को इतना कसकर जकड़ती है कि कमजोर ओस्मोटिक क्षमता के कारण बीज उसे ग्रहण नहीं कर पाता ।

कैसे किया गया यह प्रयोग ?

नारी परिसर की बंजर भूमि में 0.9m X 0.9m X 0.6m के पांच गड्ढ़े खोदे गए । इन गड्ढों को Soil Water Evaporation Stills (SWES) से ढक दिया गया – ढका गया यह झुका हुआ कांच गड्ढे के साथ रखी पानी संग्रह की बोतलों के साथ जोड़ा गया ।

गड्ढ़े पर पड़ने वाली सूरज की रोशनी ने मिट्टी को गर्म किया और मिट्टी के पानी को सुखाया, यह पानी ढके गए कांच पर पानी की बूंदों के रूप में एकत्र होकर बोतलों में गिरता रहा ।

इन SWES के साथ तीन प्रयोग किये गए । बोतलों में एकत्रित पानी हर सुबह पौधों को दिया गया ।

प्रयोग 1 में, कुछ पौधों को पानी बराबर मात्रा में दिया गया ।

प्रयोग 2 में, पौधों के दूसरे सेट को SWES से सात दिन में एकत्र पानी सप्ताह में एक दिन दिया गया ।

और प्रयोग 3 में, पौधों को बारिश से ही पानी मिला । पेड़ों के विकास व्यास, पौधे की ऊंचाई और मृत्यु दर का तिमाही आंकलन किया गया । और परिणाम असाधारण थे।

अगर एक SWES से 4 पौधों को पानी दिया गया तो औसतन 70-80 मिलीलीटर की औसत से प्रत्येक पौधे को सींचा गया , और SWES द्वारा इस प्रकार सिंचित पौधों के जीवित रहने की दर 100% थी । प्रयोग 1 में पेड़ों की विकास दर प्रयोग 3 की तुलना में अधिक था।

डॉ राजवंशी के अनुसार, शुष्क क्षेत्रों में मिट्टी से पानी का उत्पादन एक पुरानी तकनीक है और इसका रेगिस्तान में मानव अस्तित्व के लिए एक रणनीति के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है । हालांकि, इसके दैनंदिन उपयोग और मौसमी बदलाव, आदि के सम्बन्ध में सीमित जानकारी है |

उनका कहना है कि "हमने पानी पाने के लिए हर दिन गड्ढों का इस्तेमाल किया और पाया कि वह पौधे के लिए पर्याप्त है । मिट्टी और मिट्टी में विद्यमान नमी गरम होती है, उसे अन्य किसी प्रकार से नहीं पाया जा सकता ! किन्तु हमने उसका पौधों के लिए उपयोग कर दिखाया । सबसे खराब मौसम में भी पेड़ विकसित हुए । आज, हम जिस जगह है, वह किसी समय पूरी तरह से बंजर थी, किन्तु अब वहां 15-20 पूर्ण विकसित पेड़ है। अब वे विशाल से और विशाल होते जा रहे हैं ।“

डॉ राजवंशी पिछले तीन दशकों से ग्रामीण विकास के क्षेत्र में काम कर रहे है। उनका जन्म लखनऊ में हुआ तथा आईआईटी कानपुर से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में अपनी स्नातक और मास्टर डिग्री प्राप्त करने के बाद वे अमेरिका गए और फ्लोरिडा विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की ।

उन्होंने दो वर्ष तक फ्लोरिडा विश्वविद्यालय में अध्यापन भी किया और फिर भारत वापस आये ! डॉ राजवंशी का मानना ​​है कि महाराष्ट्र के कई क्षेत्रों में सूखे की बिगड़ती स्थिति में इस तकनीक का किसी न किसी रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है और इस क्षेत्र के लोगों की मदद की जा सकती है । ना केवल पौधों को विकसित करने के लिए, बल्कि लोगों को पर्याप्त पेयजल उपलब्ध कराने के लिए भी ।

साभार आधार लिंक - https://in.news.yahoo.com/experiment-using-glass-cover-sun-100003317.html?soc_src=social-sh&soc_trk=fb

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