एक अकिंचन की राम कहानी - मित्र मंडली

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बचपन में अम्मा ने दो कहानियां सुनाईं थीं, एक दुनिया की सबसे लम्बी कहानी, और दूसरी सबसे छोटी कहानी ! देखा जाए तो दोनों ही कहानियां का फलसफा...


बचपन में अम्मा ने दो कहानियां सुनाईं थीं, एक दुनिया की सबसे लम्बी कहानी, और दूसरी सबसे छोटी कहानी ! देखा जाए तो दोनों ही कहानियां का फलसफा एक ही है ! सबसे लम्बी कहानी – एक कमरे में गेंहूं भरे थे ! कमरे में एक रोशनदान भी था ! उससे एक चिड़िया अन्दर आई, उसने गेंहूं का एक दाना उठाया और उड़ गई – फुर्र ! चिड़िया रोशनदान से फिर अन्दर आई, एक गेंहू का दाना उठाया और उड़ गई – फुर्र ! चिड़िया तब तक आती रहेगी, जब तक कमरे में एक भी गेंहू का दाना शेष है ! हर बार आयेगी और उड़ जाती रहेगी फुर्र ! है न सबसे लम्बी कहानी ?

अब सबसे छोटी कहानी – एक था राजा, एक थी रानी, दोनों मर गए ख़तम कहानी ! 

दोनों कहानियों में एक समानता है कि वे हमारे जीवन को ही प्रतिबिंबित करती हैं ! सोचता हूँ कि जीवन आखिर है क्या ? पैदा हुए, शादी हुई, बच्चे किये ओ मर गए ! फिर चिड़िया की तरह अगले जन्म में वापस आये, फिर वही पुनरावृत्ति ! फिर पैदा हुए, शादी हुई, बच्चे किये ओ मर गए ! अनंत काल तक चलने वाली पुनरावृत्ति ! हो सकता है कि कभी मनुष्य रूप में आई चिड़िया, तो कभी किसी और प्राणी के रूप में ! चिड़िया आती रहेगी और उड़ती रहेगी, फुर्र !

फिर काहे की जीवन गाथा लिखना ? पर दाना तो उठाना है न, तभी तो कहानी चलेगी ! सो आज लिखता हूँ अपनी मित्र मंडली की गाथा !

मेरा विश्वविद्यालय का पंजीयन क्रमांक है S – 69/320 ! अर्थात 1969 में महाविद्यालय जीवन प्रारम्भ हुआ ! कक्षा 11 के सहपाठी मित्रों में से ओम प्रकाश मंगल व ओम प्रकाश भार्गव तो ग्वालियर इंजीनियरिंग कोलेज में रवाना हो गए ! ओम प्रकाश जैन, महेश चौकसे व त्रिवेंद्रेश्वर गुप्ता साथ रहे ! इसी सत्र में पहली वार संघ से परिचय हुआ ! घर के नजदीक रहने वाले मोहन लाल गोयल ने मुझे शाखा ले जाना शुरू किया ! मोहन जी आज आराम से वकालत कर रहे हैं और मैं ??? 

शाखा जाना शुरू हुआ तो सम्बन्ध आया तत्कालीन नगर प्रचारक उदय जी काकिर्डे और जिला प्रचारक सूर्यकांत जी केलकर से ! मूलतः ग्वालियर निवासी उदय जी ने अपनी इंजीनियरिंग की पढाई पूर्ण कर तीन वर्ष का समय संघ कार्य के लिए देने का निश्चय किया था ! यह अलग बात है कि वे बाद में पांच वर्ष संघ प्रचारक रहे ! उदय जी के बड़े भाई श्रीकृष्ण त्रिम्ब्यक काकिर्डे भी तब से अब तक सतत संघ कार्य से जुड़े हुए हैं ! और उदय जी पुणे में तीन ट्रांसफार्मर फेक्टरियों के मालिक हैं !

सूर्यकांत जी और दिनेश गौतम

इसी प्रकार सूर्यकांत जी केलकर अपनी ओवरसीयर की नौकरी छोड़कर संघ प्रचारक बने थे ! उन दिनों श्योपुर भी संघ कार्य की दृष्टि से शिवपुरी में ही सम्मिलित था और केलकर जी यहाँ के जिला प्रचारक ! मुस्लिम बहुल श्योपुर में संघ कार्य करना किसी चुनौती से कम नहीं था, किन्तु एक हिन्दू महासभाई सरदार गुलाब सिंह व प्रतिष्ठित व्यवसाई हुकुम चन्द्र जी सर्राफ को अपना सहयोगी बनाकर केलकर जी ने तत्व निष्ठ स्वयंसेवकों की एक पूरी फ़ौज श्योपुर में खडी कर दिखाई ! यह अलग बात है कि इसके लिए उन्हें अनेक झगड़े झंझटों में भी उलझना पड़ा, लाठियां भी चलानी पडीं ! उन दिनों श्योपुर में विधि कक्षाएं नहीं थीं, अतः एलएलबी के विद्यार्थी अध्ययन के लिए शिवपुरी ही आते थे ! 

सार्वजनिक जीवन के इस प्रारम्भिक काल में ये दोनों ही मेरे प्रमुख मार्गदर्शक बने और तात्या टोपे शाखा मेरी पहली शाखा ! शाखा उन दिनों जनसंघ के एक वरिष्ठ नेता बाबू भैया के बाड़े में लगती थी ! बाबूभैया पुर्व में कोलारस विधानसभा का चुनाव भी लड़कर पराजित हो चुके थे व नगर के प्रमुख आढ़तिया थे ! शाम के समय अनेक किसान बैलगाड़ियां उनके बाड़े में ही खडी करते थे, इस कारण शाखा लगाने में असुविधा होने लगी ! इसे देखते हुए पास के ही एक मैदान को साफ़ कर वहां शाखा लगाना शुरू किया गया ! मैं उस शाखा का पहला मुख्य शिक्षक बना !

इसके साथ ही मेरी मित्र मंडली बनना शुरू हुई ! मेरे पहले मित्र बने दिनेश गौतम ! दुबले पतले दिनेश बेहद फुर्तीले और चुस्त दुरुस्त थे ! शिवपुरी के नजदीक ही एक गाँव है पिपरसमा, दिनेश वहीं के मूल निवासी थे ! अपने ग्रामीण परिवेश और वाक्पटुता के कारण वे अन्य ग्रामीण विद्यार्थियों में एक प्रकार से रिंग लीडर थे ! हम उम्र दिनेश ने मुझे प्रारम्भ से ही बड़े भाई जैसा मान दिया ! वे शिवपुरी महाविद्यालय में आर्ट के विद्यार्थी थे और मैं साईंस का, अतः हमारा मिलना जुलना केवल संघ स्थान पर ही होता था ! 

कोलेज में उन दिनों छात्रसंघ के सीधे चुनाव होते थे, अर्थात अध्यक्ष, महासचिव आदि पदों के लिए सब विद्यार्थी वोट डालते थे ! एक छोटी मोटी विधायक चुनाव जैसी गहमा गहमी होती थी, उन चुनावों में ! प्रचारक द्वय ने महाविद्यालयीन छात्रों में संघ कार्य विस्तार के लिए चुनावों में भाग लेने की प्रेरणा दी ! 69-70 के चुनाव में गोपाल कृष्ण डंडौतिया महासचिव पद के लिए खड़े हुए, किन्तु असफलता हाथ लगी ! उन्हें युवक कांग्रेस से सम्बंधित हरिवल्लभ शुक्ला से पराजित होना पडा ! अध्यक्ष पद पर कब्जा जमाया कांग्रेस के ही गोपाल गंभीर ने ! 70-71 का चुनाव कुछ अधिक तैयारी से लड़ा गया ! युवक कांग्रेस की ओर से रूपकिशोर वशिष्ठ मैदान में थे ! उनका सामना करने के लिए विद्यार्थी परिषद् की ओर से गोपाल सिंघल को उतारा गया ! गोपाल जी सिंघल तृतीय वर्ष शिक्षित संघ स्वयंसेवक व लोहे के व्यापारी थे ! महा विद्यालय के एक वरिष्ठ व सबके लिए आदरणीय प्राध्यापक चंद्रपाल सिंह सिकरवार के छोटे भाई रमेश सिंह सिकरवार पूर्व में अध्यक्ष रह चुके थे ! उस दौरान उन पर अनेक आरोप भी लगे थे, व एक प्रतिष्ठित परिवार की छात्रा की आत्महत्या चर्चित हुई थी ! रमेश सिकरवार के साथ दिनेश गौतम का झगडा हुआ, मारपीट हुई ! तत्कालीन दादा कहे जाने वाले शिवाजी राव पंवार से भी गर्मागर्मी हुई ! वातावरण आरपार का बन गया ! 

जहाज की छत को बनाया गया होर्डिंग -

उत्साह का आलम यह था कि चुनाव के एक दिन पूर्व लगभग 100 कार्यकर्ता लोहारपुरा के एक कबाड़ी की दूकान से एक पुराने पानी के जहाज की छत उठा लाये ! विशेष बात यह है कि यह छत लगभग दो किलोमीटर तक हाथों हाथ उठाकर लाई गई ! किसी वाहन पर तो वह लाई नहीं जा सकती थी ! छत की इस यात्रा को सैंकड़ों नागरिकों ने जिज्ञासा व कौतुहल से देखा ! इस छत को स्थानीय अग्रवाल धर्मशाला के सामने रखा गया ! तत्कालीन जनसंघ विधायक सुशील बहादुर अष्ठाना बहुत अच्छे पेंटर थे ! कार्यकर्ताओं ने उस छत को पहले पेंट किया और उस पर फिर सुशील जी ने गोपाल कृष्ण सिंघल को जिताने की अपील लिखी ! सबसे ऊपर काव्य प्रतिभा के धनी जनसंघ कार्यकर्ता मोतीलाल जी द्वारा लिखी गईं पंक्तियाँ थीं –

वर्षों की जो जमी गन्दगी, कल की दूर, बचे कुछ छींटे,
स्वच्छ वायु को दूषित करने फिरते हैं ये पैर घसीटे !

समझने वालों को इशारा काफी था कि ये पंक्तियाँ किसकी तरफ इशारा कर रही हैं ! उसके बाद रातों रात वह छत उठाकर महाविद्यालय के अन्दर एक पेड़ के सहारे खडी कर दी गई ! अगली सुबह मतदान के लिए जब छात्र कालेज पहुंचे तो इस विचित्र होर्डिंग को देखकर अचंभित रह गए ! वोट डालने बाद में जाते, पहले इस होर्डिंग के सामने खड़े होकर हँसी मजाक करते, ठहाके लगाते ! स्वाभाविक ही युवक कांग्रेस प्रत्यासी रूप भाई ने कालेज प्रशासन से इसकी शिकायत की ! पर कोई भी हटवाता कैसे ? दो चार लोग तो उसे हिलाने में भी असमर्थ थे ! चुनाव निबटा और उसके तुरंत बाद, फिर सौ कार्यकर्ता जुटे और नारेबाजी के साथ वह छत वापस यथास्थान पहुंचाई गई |

घोषित होने के पहले ही परिणाम सबके सामने स्पष्ट था ! गोपाल सिंघल की शानदार जीत हुई ! महाविद्यालय में संघ स्वयंसेवकों की धाक भी जम गई ! श्योपुर से वकालत पढ़ने आये रमाशंकर भारद्वाज, गोपाल डंडौतिया, गोपाल सिंघल, और उनसे जूनियर दिनेश गौतम, अशोक पांडे व कुछ अन्य हम लोग ! सब एक दूसरे के पूरक थे ! आत्मीयता की डोर में बंधे !

दिनेश गौतम –

1971 में जब मैं प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग को इंदौर पहुंचा दिनेश गौतम व अशोक पांडे द्वितीय वर्ष के लिए साथ थे ! हम लोगों के सम्बन्ध और प्रगाढ़ हो गए ! शिक्षा वर्ग से लौटकर हम और अधिक उत्साह से कार्य में जुट गए ! दिनेश पुरानी शिवपुरी में विजयवर्गीय के बाड़े में रहते थे ! वही उनके साथ उनके चचेरे भाई गणेश गौतम व अशोक पांडे का भी आवास था ! मेरा अक्सर वहां जाना आना होता था ! गणेश के हाथ से बनी उड़द की दाल व मोटी मोटी रोटी अक्सर खाने को मिलती ! गाँव से आये घर में तैयार किये गए घी से चुपड़ी उन रोटियों का स्वाद आज भी स्मरण है ! तभी एक दुर्घटना घटी ! 

समय और संयोग से किस प्रकार भविष्य की रूपरेखा बनती है, इसका स्पष्ट उदाहरण है यह घटना ! जैसा कि मैंने लिखा दिनेश और उनके चचेरे भाई गणेश साथ साथ रहते थे ! किन्तु तभी गाँव में हुए पारिवारिक विवाद के बाद दिनेश गौतम, अशोक पांडे व कुछ अन्य मित्रों का गणेश के बड़े भाई परमानंद मास्टर जी से झगडा हुआ ! परिणाम स्वरुप गणेश भी दिनेश से प्रथक रहने लगे, इतना ही नहीं तो वह संघ के स्थान पर कांग्रेस के नजदीक हो गये ! और यही वह घटना थी, जिसने गणेश का भाग्य बदल दिया ! अगर यह घटना न घटती तो वह न तो कांग्रेस के नजदीक जाते और नही आगे चलकर विधायक बनते ! जीवन भर दिनेश के प्रभामंडल में अपने आपको अभिव्यक्त भी न कर पाते !

अमरनाथ यात्री
गोपाल सिंघल और गोपाल डंडौतिया

1971 – 72 का महाविद्यालयीन चुनाव जब हुआ, तब तक मैं विद्यार्थी परिषद् का संगठन मंत्री घोषित हो चुका था ! इस चुनाव में विद्यार्थी परिषद् की ओर से गोपाल कृष्ण डंडौतिया अध्यक्ष पद का चुनाव लडे और विजई हुए ! रूप किशोर वशिष्ठ दोबारा चुनाव लड़कर पराजित हुए ! इसी वर्ष डॉ. ओम नागपाल विद्यार्थी परिषद् के प्रांतीय अध्यक्ष व गोपाल डंडौतिया महामंत्री बने ! किन्तु 1972 – 73 के चुनाव में एक गलती हुई ! गोपाल जी ने पुनः स्वयं चुनाव लड़ने का निर्णय लिया ! इस बार वातावरण बदला हुआ था ! लगातार पराजित होते रहने के कारण रूप किशोर वशिष्ठ जी के साथ सहज सहानुभूति थी, जिसका पूरा फायदा उन्होंने उठाया ! इस बार विजय रूप भाई की हुई ! 

दिनेश और मेरी घनिष्ठता और बढ़ती गई ! मैं पूरी तरह उनके प्रभामंडल से अभिभूत हो चुका था ! विद्यार्थी परिषद् के नगर उपाध्यक्ष शिवकुमार गोयल के साथ अशोक सिंह भदौरिया नामक एक कोलेज छात्र ने मारपीट कर दी ! अशोक भदौरिया गणेश गौतम का मित्र था तथा उसके पिताजी एसडीओपी पुलिस भी थे ! दिनेश ने इसका बदला लेने की ठानी ! कोलेज में मौक़ा देखकर उस पर हमला कर दिया गया ! लेकिन वह भी अकेला नहीं था ! गणेश गौतम व एक स्थानीय दादा महेश पापी अचानक वहां आ धमके ! इन लोगों ने साईकिल की चैन व लोहे की रोड से जबाब दिया ! जब वे लोग एक कार्यकर्ता को जमीन पर पटककर उसे साईकिल की चैनों से पीट रहे थे, किस्मत का मारा, मैं भी वहां जा पहुंचा ! मैंने महेश पापी को रोकने की कोशिश की और बदले में दो चैन अपनी पीठ पर भी झेली ! मुझ पर उसने प्रहार तो कर दिया, किन्तु अपनी गलती मानकर वे सब तुरंत वहां से रवाना भी हो गए !

घटना आई गई हो गई, किन्तु शाम होते होते, मेरे पास जिला संघचालक बाबूलाल जी शर्मा वकील साहब का बुलावा पहुंचा ! उनके बेटे दीपक, अशोक भदौरिया के नजदीकी मित्र थे ! बाबूलाल जी ने मुझे बताया कि इस झगड़े के दौरान अशोक भदौरिया के गले से चार तोले की सोने की चैन गायब हो गई थी, तथा वह हम लोगों पर लूट का आरोप लगा रहा था ! मैंने वकील साहब को कहा कि यह कैसे संभव है, मेरे सामने तो घटना स्थल पर अशोक भदौरिया था भी नही, केवल महेश पापी और गणेश गौतम थे ! हो सकता है कि झगड़े के दौरान चैन कहीं गिर गई हो ! हम लोग तो यह कर नहीं सकते ! वकील साहब को मेरी बात पर पूरा भरोसा था, और उनकी बात पर एसडीओपी भदौरिया को ! अतः मामला आगे नहीं बढ़ा ! (बाद में जब मीसाबंदी के रूप में हम लोग ग्वालियर जेल में रहे, तब ज्ञात हुआ कि चैन वाकई लूटी भी गई थी और वाकायदा ठिकाने भी लगाई गई थी ! जिन महाशय ने यह कारनामा अंजाम दिया, वे बाद में वकील बने और स्वर्गवासी हुए !)

दिनेश से मित्रता के चलते ही मुझे ग्रामीण जीवन को नजदीक से देखने का मौक़ा मिला ! उनकी बहिन की शादी में श्रमदान किया तो अद्भुत अनुभव हुआ ! पूरा गाँव ही नहीं तो आसपास के कई गांवों के लोग सपरिवार भोजन में उपस्थित हुए ! गाँव की लगभग हर गली में पंगत लगी हुई थी ! मैं भी परोस कार्य में सहयोग करने लगा ! मैं पूड़ी लेकर चला, पत्तल में पूड़ी रखी हुई थीं फिर भी आग्रह किया जा रहा था कद्देऊ माने और रखो ! मैं परेशान ! दूसरी बार सब्जी लेकर चला तो फिर यही अनुभव – कद्देऊ ! मालूम हुआ कि लोग खाते कम हैं, बांधकर ज्यादा ले जाते हैं ! मैंने भी झल्लाकर कहना शुरू कर दिया – नहीं कद्दू नहीं है, पूड़ी है, और आगे बढ़ता रहा ! इसे गरीबी का कारण नहीं कहा जा सकता, यह मानसिकता ही थी और था अधिकार भाव ! उन्हें इसमें कुछ गलत भी नहीं लग रहा था ! दिनेश की कुछ कथा अब आगे भी आयेगी तब तक दूसरे मित्र की ओर बढ़ते हैं !

गोपाल कृष्ण डंडोतिया –

अपने हंसमुख स्वभाव के कारण वे मित्रों के सहज ही पारिवारिक मित्र बन जाते हैं ! छोटों के साथ छोटे और बड़ों के साथ बड़े ! उनके महाविद्यालयीन चुनाव की चर्चा तो ऊपर हो ही चुकी है, अब कुछ अन्य बातें ! कई परतों वाला अद्भुत चरित्र है, गोपाल जी का ! कभी लगता है कि वे एक रंगीन मिजाज व्यक्ति हैं, तो अगले ही पल लगता है कि उनसे ज्यादा आध्यात्मिक प्राणी शायद ही कोई हो ! कभी बेहद कठोर तो कभी अतिशय कोमल ! कभी बेहद आलसी तो कभी बेहद कर्मठ ! 70 से 75 तक अनेक बार सुबह उनको जगाने का अवसर मिला ! यह सुबह कई बार तो दोपहर 12 – 1 बजे भी होती थी ! उठते ही पहले चाय की फरमाईश और फिर चाय पीते पीते हांक लगाना – मुन्ना पानी भरा क्या ?

मुन्ना अर्थात उनके छोटे भाई भुवन कृष्ण डंडौतिया ! अब वे भी स्थापित वकील हैं ! लेकिन उन दिनों गोपाल जी से ग्यारह वर्ष छोटे होने के कारण किशोर ही थे ! पानी भरने का मतलब शौचालय का डिब्बा भरना ! उसके बाद शुरू होती थी गोपाल जी की दिनचर्या ! गर्मी के दिनों में भरी दोपहरी में रजाई ओढ़कर छत पर सोने वाले अनूठे इंसान ! लेकिन यही गोपाल जी विद्यार्थी परिषद् के जिला सम्मेलन में बर्तन मांजते भी मैंने देखे !

हिन्दी अंग्रेजी मराठी पर पूर्ण अधिकार रखने वाले गोपाल जी को अध्ययन का भी पर्याप्त शौक रहा है ! ज्ञानपीठ पुरष्कार प्राप्त साहित्यिक पुस्तकें हों, अथवा इब्ने सफी या सुरेन्द्र मोहन पाठक के जासूसी उपन्यास, समान रूचि से पढ़ते उन्हें देखा है मैंने ! 

शिवपुरी के हनुमान मंदिर पर एक मुसलमान राम कथा वाचक आया करते थे – राजेश मोहम्मद रामायणी ! हम लोग उन्हें सुनने जाते तो दूर मंदिर की छत पर बैठकर सुनते, जहाँ कोई हमें देखे नहीं ! हालत ही ऐसी हो जाया करती थी ! मानो कोई रोने की प्रतियोगिता हो रही हो ! रामायण का कोई भी प्रष्ठ वे बिना आंसू के नहीं पढ़ सकते ! यही दशा टीवी सीरियल देखते समय हो जाया करती है ! 

पैतृक संपत्ति के बटवारे का प्रसंग आया, तो पिताजी से कह दिया कि मुझे नहीं चाहिए, दोनों छोटे भाईयों के नाम कर दो ! इतना ही नहीं तो खुद किराए के मकान में रहने पहुँच गए ! 

क्रमशः

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एक अकिंचन की राम कहानी - मित्र मंडली
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