जातिगत आरक्षण - वरदान या वास्तविकता में साबित हो चुका श्राप ? – डॉ. सुधीर व्यास

★ क्या केवल कुछ उपजातियां ही अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों ,पदों पर कब्जा जमा रही हैं ?

★ क्या जातियों को पिछडे वर्ग की सूची में इसलिए शामिल किया जा रहा है कि वे सचमुच पिछड़ी और वंचित हैं या इसलिए कि उनकी शक्ति और प्रभावशीलता को देखते हुए राजनेताओं को ऐसा करना पड़ रहा है ?

वैसे तो सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यपालिका / संसद को निर्देश दिया था कि वह बराबर नजर रखें कि आरक्षण का वास्तविक लाभ किसे मिल रहा है लेकिन यह पैंतीस वर्ष पहले की बात है, पर आज भी यदि आप पूछें कि - "सामान्य श्रेणी की कितने प्रतिशत सीटें उन जातियों को मिल रही हैं, जिनके लिए पहले ही आरक्षण की व्यवस्था की गई ? "

तो हमें तो उत्तर ही नहीं मिलेगा बल्कि एक आरोप और मढ़ दिया जाएगा कि -

"यह सबकुछ पूरी आरक्षण नीति को संदेह के घेरे में डालने और इस प्रकार पिछड़े वर्गों द्वारा अंतहीन संघर्ष के बाद प्राप्त किए थोड़े-बहुत लाभों को भी हथिया लेने के एक मनुवादी षडयंत्र का हिस्सा है।"

वास्तविकता में इस जातिगत रूप में आरक्षण के कारण समानता के मौलिक संवैधानिक अधिकारों का भरपूर हनन हो रहा है ( भारतीय संविधान पार्ट 3 ,आर्टिकल 16 और विशेषकर 16(4) का हनन) 

इस प्रकार हम लगातार निम्न से निम्नतर स्तर पर उतरते जा रहे हैं और भारतीय "माल" की गुणवत्ता कि कोई बाजारी औकात नहीं रही, ना ही भारतीय जनता का, प्रशासन का स्तर सुधरा उलटे सरकारी कार्य-प्रणाली का कुशलता का स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है, जिसका अनारक्षित वर्ग के लोगों के साथ-साथ इन तथाकथित पिछड़े एवं तथाकथित वंचित वर्ग के लोगों पर भी पड़ रहा है। 

सार्वजनिक बहस का स्तर और बहस का पैमाना भी गिरता चला जा रहा है और ये स्थितियां जिस प्रकार अपरिहार्य बन गई हैं, उसी प्रकार इनका परिणाम भी परिहार्य है, जो निम्लिखित रूपों में हमारे सामने है -

1.) विधायिकाओं को सुविधा और आवश्यकता के अनुसार संचालित करनेवाले व्यक्ति की प्रकृति और प्रवृत्ति के रूप में।

2.) शिक्षण संस्थानों और सिविल सेवाओं में गिरते कुशलता-गुणवत्ता स्तर के रूप में।

3.) मतदान प्रणाली और विधायिकाओं के साथ-साथ सेवाओं का भी जाति के आधार पर विभाजन के रूप में।

4.) कुशलता-उत्कृष्टता पर एक संगठित हमले के रूप में।

इससे भारतीय हावात पर ऑर्टेगा गैसेट की बात सच साबित होती है कि -

पैमाने हटा दिए गए हैं ,

औसत दर्जा ही मानक पैमाना बन गया है ,

अभद्रता ही प्रमाणिकता बन गई है ,

अभित्रास (धमकी) ही दलील बन गई है ,

और हमला प्रमाण....।

सुप्रीम कोर्ट की तरफ से बार-बार कहे जाने के बाद भी क्रीमी लेयर का फॉर्मुला लागू करने से राजनीतिक दल घबराते हैं। राजनीति से लेकर सरकारी पदों पर एससी/एसटी, ओबीसी के अंदर के कुलीन वर्ग के लोगों का कब्जा है और ऐसे में वो लोग बिल्कुल नहीं चाहते कि क्रीमी लेयर फॉर्मूला लागू हो और एससी/एसटी और ओबीसी वर्ग के उन लोगों को फायदा होने लगे जो वाकई बेहद पिछड़े हुए हैं।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 10 अप्रैल 2008 को सरकारी धन से पोषित संस्थानों में 27% ओबीसी (OBC) कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही ठहराया. न्यायालय ने स्पष्ट रूप से अपनी पूर्व स्थिति को दोहराते हुए कहा कि "मलाईदार परत" को आरक्षण नीति के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए. 

क्या आरक्षण के निजी संस्थानों आरक्षण की गुंजाइश बनायी जा सकती है, सर्वोच्च न्यायालय इस सवाल का जवाब देने में यह कहते हुए कतरा गया कि निजी संस्थानों में आरक्षण कानून बनने पर ही इस मुद्दे पर निर्णय तभी लिया जा सकता है. समर्थन करनेवालों की ओर से इस निर्णय पर मिश्रित प्रतिक्रियाएं आयीं और तीन-चौथाई ने इसका विरोध किया..!!

ST / SC / OBC / SBC के क्रीमी लेयर यानि मलाईदार परत को पहचानने के लिए विभिन्न मानदंडों की सिफारिश की गयी, जो इस प्रकार हैं -

साल में 250,000 रुपये से ऊपर की आय वाले परिवार को मलाईदार परत में शामिल किया जाना चाहिए और उसे आरक्षण कोटे से बाहर रखा गया. इसके अलावा, डॉक्टर, इंजीनियर, चार्टर्ड एकाउंटेंट, अभिनेता, सलाहकारों, मीडिया पेशेवरों, लेखकों, नौकरशाहों, कर्नल और समकक्ष रैंक या उससे ऊंचे पदों पर आसीन रक्षा विभाग के अधिकारियों, उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों, सभी केंद्र और राज्य सरकारों के ए और बी वर्ग के अधिकारियों के बच्चों को भी इससे बाहर रखा गया. अदालत ने सांसदों और विधायकों के बच्चों को भी कोटे से बाहर रखने का अनुरोध किया है..!!

Note : अंत में बस इतना ही कह सकूंगा कि -

" किस काम का यह जातिगत आरक्षण जो आपसी समानता तो आरक्षित वर्गों में ही ना ला सका ... सिर्फ योग्य और योग्यता के सारे मापदंड पूरे करने वाले लोगों के भविष्य की हत्या करने के ही काम आता है, किस काम का यह जातिगत आरक्षण जो स्तरीयता की जगह औसत व निम्न स्तर की पैरवी कर देश की प्रगति, विकास व समृद्धि के साथ देशद्रोहिता की समझौतेबाज़ी करता है और निम्न स्तरीय समझौतेबाज़ राजनीति, सरकार व प्रशासन देता है,, किस काम का अब ये जातिगत आरक्षण ..?? "

वन्दे मातरम्

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