क्रन्तिकारी कोष के रचयिता अमर क्रान्तिकारी कवि, जिन्हें सरकार ने नहीं माना स्वतंत्रता संग्राम सेनानी !


यह कहानी है एक ऐसे कवि की जिसने 16 महाकाव्य सहित 124 पुस्तकों का सृजन किया। जिसने अपनी पुस्तकें स्वयं के खर्चे पर प्रकाशित कराने के लिए अपनी ज़मीन ज़ायदाद बेच दी। जिसने अपनी पुस्तकें पूरे देश भर में घूम-घूम कर लोगों तक पहुँचायीं और अपनी पुस्तकों की 5 लाख प्रतियाँ बेची, लेकिन अपने लिए कुछ नहीं रखा। जो धनराशि मिली वह शहीदों के परिवारों के लिए चुपचाप समर्पित करता रहा। महाकवि होने के बाद भी जिसकी यह आकांक्षा रही कि उसे कवि या महाकवि नहीं बल्कि 'शहीदों का चारण' के नाम से पहचाना जाये। उन्होंने गुनगुनाया –

यह सच है दाग गुलामी के, उनने लोहू से धोए हैं,
हम लोग बीज बोते उनने, धरती में मस्तक बोए हैं।
इस पीढ़ी में, उस पीढ़ी के
मैं भाव जगाया करता हूँ।
मैं अमर शहीदों का चारण
उनके यश गाया करता हूँ।

ऍसा व्यक्तित्व प्रचार का भूखा नहीं होता और न उसका प्रचार हुआ। व्यक्तिगत स्तर पर भी नहीं और शासन स्तर पर भी नहीं। लेकिन मुझे पूर्ण विश्वास है आने वाली पीढियाँ इस महान व्यक्तित्व के धनी, क्रान्तिकारियों के गुणगान करने और देशसेवा का व्रत लेने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी महाकवि श्रीकृष्ण सरल को श्रृद्धा के साथ याद करेंगी और उनकी कालजयी देशभक्तिपूर्ण कविताओं को गुनगुनायेंगी।

श्रीकृष्ण सरल – एक ऐसा नाम जो कहने को तो मात्र एक शिक्षक, किन्तु मुख्य भूमिका इतिहासकार एवं साहित्यकार की रही । उन्होंने 16 महाकाव्यों की रचना कर एक अनूठा कीर्तिमान बनाया। क्रांतिकारियों की कथाओं को जन-जन तक पहुंचाने की धुन में श्री सरल ने अपनी पत्नी श्रीमती नर्मदा सरल के आभूषण भी अपने ग्रंथों की भेंट चढ़ा दिए थे। राष्ट्रभक्ति के लिए जानबूझ कर निर्धनता एवं परेशानियों को न्योता दिया। सारा जीवन तंगी और संघर्षों में गुजारते हुए उन्होंने सारी सम्पत्ति अपने महान लक्ष्य को समर्पित कर दी। उनके जीवन का ध्येय था "मांग कर कोई वस्तु नहीं लेना'। बाल्यकाल में परीक्षा देते समय उनके पेन की निब टूट गयी, उन्होंने परीक्षा माचिस की तीली से लिखकर दी, पर पेन नहीं मांगा। बिलासपुर में दो दिन निराहार रहे। पैसा नहीं था, खाने का सामान कहां से खरीदते, क्योंकि पुस्तक नहीं बिकी। स्कूल बंद हो गया, छुट्टी पड़ गई। रोटी नसीब नहीं हुई। जब स्कूल खुले तो कविता सुनाकर, शहीदों के संस्मरण सुनाकर पुस्तकें बेचीं। बच्चों को संस्कार देना वे उचित समझते थे, इसीलिए स्कूल-स्कूल जाकर पुस्तकें बेचकर शहीदों की स्मृतियां अमर करते रहे। 

श्री सरल में क्रांतिकारियों के प्रति अनुराग बचपन से ही था। जब "राजगुरु' को अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर ले जाया जा रहा था, तब सरल जी 12 वर्ष के थे। भीड़ ने "वन्देमातरम्' के नारे लगाए तो रेल में से राजगुरु ने भी नारे लगाए। यह देखकर अंग्रेज सिपाहियों ने राजगुरु को धकेल दिया इस पर बालक सरल ने अंग्रेज सिपाही के सर पर एक पत्थर दे मारा। फिर क्या था बालक को बुरी तरह पीटा गया। सब लोग उन्हें मृत समझकर छोड़कर चले गए, क्योंकि ट्रेन चल दी थी। जीवनपर्यन्त उस पिटाई के घाव उनके शरीर पर बने रहे, जिन्हें वे गर्व से अपने लिए "पदक' मानते थे। 

श्री सरल ने राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन के कहने पर युवाओं को संदेश देने के उद्देश्य से क्रांतिकारियों के जीवन पर महाकाव्य का लेखन शुरू किया। इन काव्यों के सृजन में प्रामाणिकता लाने के उद्देश्य से उन्होंने पूरा जीवन यायावरी में बिताया। सुभाष चन्द्र बोस पर महाकाव्य लिखने से पूर्व उन्होंने 10 देशों की यात्रा कर दुर्लभ संस्मरण एवं छायाचित्र एकत्रित किए, जो भारतीय इतिहास के अनूठे दस्तावेज हैं। भगतसिंह पर जब महाकाव्य लिखा तो भगतसिंह की माता विद्यावती देवी ने उन्हें चन्द्रशेखर पर भी महाकाव्य लिखने को कहा। भगत सिंह का उनके द्वारा किया गया वर्णन –

वत्स! दो बातें न की उसने कभी स्वीकार,
स्वयं का गुण-गान, या फिर शत्रु की ललकार।

श्री सरल के पूर्वज स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे, उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते हुए बलिदान दिया था। इसी वंश में 1 जनवरी, 1919 को गुना जिले (मध्य प्रदेश) के अशोक नगर में पं. भगवती प्रसाद बिरथरे एवं यमुना देवी के यहां इस यशस्वी बालक का जन्म हुआ था। श्री सरल ने गुना के साहित्यिक वातावरण से दिशा प्राप्त की। काव्य सृजन प्रतिभा तो उनमें 10 वर्ष की आयु से दिखने लगी थी। विभिन्न क्रांतिकारियों के सान्निध्य का लाभ भी उन्हें मिलता रहा। उनके जीवन में ऐसे अवसर भी आए जब मौत खुद छाता तानकर उनकी सुरक्षा करती रही। वे भालुओं के झुण्ड में घिर गए, शेर के पंजे से घायल हुए, चीन में गुण्डों ने घेर लिया। नौ बार हृदयाघात हुआ पर हर आघात के बाद वे एक महाकाव्य पूरा करते रहे। दिन में नगर-नगर जाकर भारी पुस्तकें उठाकर बेचते, फिर रात को लिखते।

श्री सरल अकेले ऐसे कवि हैं, जिन्हें अपनी क्रांतिकारी कविताओं के कारण दो बार जेल जाना पड़ा। 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन में श्री सरल ने खुलकर भाग लिया। रोचक बात यह है कि उनके द्वारा अनुशंसित व्यक्ति तो पेंशन पा गए, पर श्री सरल को शासन ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नहीं माना। यहां तक कि उनकी अंत्येष्टि में शासन/प्रशासन का कोई भी प्रतिनिधि तक नहीं पहुंचा। 

श्रीकृष्ण सरल का जन्म ०१ जनवरी १९१९ ई० को मध्य प्रदेश के अशोक नगर में हुआ। इनके पिता का नाम श्री भगवती प्रसाद तथा माता का नाम यमुना देवी था। सरल जी शासकीय शिक्षा महा विद्यालय, उज्जैन में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत रहे। सरल जी ने अपना सम्पूर्ण लेखन भारतीय क्रांतिकारियों पर ही किया है। क्रांतिकारियों पर उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं जिनमें पन्द्रह महाकाव्य हैं। साहित्य अकादमी मध्य प्रदेश द्वारा श्रीकृष्ण सरल के नाम पर कविता के लिए "श्रीकृष्ण सरल पुरस्कार" प्रति वर्ष प्रदान किया जाता है। 

शौर्य, वीरता के अमर गायक श्री श्रीकृष्ण सरल का निधन 2 सितम्बर २०००ई० को 81 वर्ष की अवस्था में उज्जैन में हो गया। अमर शहीदों के चारण की भूमिका का बखूबी निर्वाह करते हुए मृत्यु से एक सप्ताह पूर्व उन्होंने सुभाष चन्द्र बोस के जीवन पर आधारित उपन्यास "अक्षर-अक्षर इतिहास' पूर्ण किया। श्री सरल ने देश के नौजवानों में जोश, उत्साह एवं देशभक्ति का भाव फूंकने के जितने व्यक्तिगत प्रयास किए, वह कार्य कई संस्थाएं मिलकर भी नहीं कर सकीं। 

उनके आदर्श ही उनके सिद्धांत रहे। उनका कहना था कि मेरे आराध्य क्रांतिकारी जब जंगलों में भूखे-प्यासे भटके तो मैं क्यों अभावों में नहीं जी सकता? उन्होंने क्रांतिकारी जीवन का व्रत ले लिया, 40 वर्ष तक घी-दूध नहीं खाया। डबलरोटी पानी में डुबो कर खा लेते थे। मजदूरों के होटलों में सस्ते में भोजन करते। ।' श्री सरल द्वारा रचित क्रांतिकारी साहित्य की अनूठी बेजोड़ कृतियां एक देशभक्त की राष्ट्र अर्चना कही जा सकती हैं। "जीवित शहीद' की उपाधि से सम्मानित श्री सरल को सच्ची श्रद्धाञ्जलि यही होगी कि ऐसे प्रयास किए जाएं ताकि उनका कार्य जन-जन तक पहुंचे। 

सरल जी का सबसे महत्वपूर्ण कार्य "क्रांतिकारी कोष" की रचना 

श्रीकृष्ण सरल जी की काव्य रचनाएँ जितनी महत्वपूर्ण हैं, उससे कहीं अधिक दुष्कर कार्य उन्होंने किया है, देश भर में घूमघूमकर भारत के अज्ञात व बेनाम क्रांतिकारियों के संस्मरण संजोने का ! उनके द्वारा लिखित "क्रांतिकारी कोष" भारत के क्रांतिकारी इतिहास का दुर्लभ ग्रन्थ है ! लेकिन दुर्भाग्य से "देदी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल" की मिथ्या आत्म प्रवंचना ने उस दुर्लभ दस्तावेज को प्रचारित प्रसारित नहीं होने दिया ! प्रस्तुत है सरल जी के उस अमूल्य सत्कृत्य का एक अंश -

बिहार के आरा जिले में सन 1942 के आन्दोलन ने बहुत उग्र रूप धारण कर लिया ! महिलायें भी मैदान में कूद पडीं और तोड़फोड़ के कामों में भाग लेने लगीं ! सरकारी कर्मचारियों ने भी आन्दोलनकारियों का बहुत सहयोग किया ! अध्यापक वर्ग ने अपने विद्यार्थी वर्ग को उकसाया ही, वे स्वयं भी आन्दोलन में भाग लेने लगे ! 

एक स्कूल मास्टर थे जग्गूलाल ! 5 सितम्बर को तोड़फोड़ का नेतृत्व करते हुए वे अखाड़े में कूद पड़े ! उनके साथ एक विशाल जुलूस निकला, जिसने कई दफ्तरों में आग लगा दी और खजाने तथा हथियार खानों पर अधिकार कर लिया ! जब मास्टर जग्गूलाल किसी भी प्रकार कब्जे में आते दिखाई नहीं दिए तो उनके घर को उड़ाने के लिए डायनामाईट लगा दिए गए ! अपने परिवार बालों की जान बचाने के लिए मास्टर साहब ने अपनी गिरफ्तारी दे दी ! 

पुलिस स्टेशन पर ले जाकर मास्टर जग्गूलाल को इतनी अमानुषिक यातनाएं दी गईं कि उस सदमे में उनके पिता का प्राणांत हो गया ! मास्टर साहब के भाई कपिलदेव को अंग्रेज पुलिस ने गोली मार दी ! उन्हें इतने से ही संतोष नहीं हुआ उन्होंने कपिलदेव का पेट फाड़कर उसकी आतें बाहर खींच लीन ! पुलिस स्टेशन के मार्ग में जो भी दिख जाता उसे गोली मार दी आती ! 

घोडादई स्थान पर एक कवि श्री कैलाश सिंह ने ओजस्वी राष्ट्रीय कवितायें सुनाकर लोगों को उत्तेजित किया ! अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार करके खुलते हुए पानी में बार-बार डुबाया, जब तक कि उनकी जान न निकल गई ! 

ऐसे एक नहीं अनगिनत संस्मरण संजोये हैं श्रीकृष्ण सरल जी ने अपनी इस अमर कृति "क्रांतिकारी कोष" में !

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