हिन्दू कौन – हिन्दू की परिभाषा : डॉ. धर्मवीर

कुछ महीनों पूर्व राजस्थान के एक समाचार पत्र के अजमेर संस्करण में एक समाचार छपा, जिसमें लिखा था- भारत सरकार को पता नहीं है, हिन्दू क्या होता है ? 

हुआ कुछ यूं कि एक सामाजिक कार्यकर्ता ने भारत सरकार के गृह मन्त्रालय से भारत के संविधान और कानून के परिप्रेक्ष में हिन्दू शब्द की परिभाषा पूछी ! गृह मन्त्रालय के केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी ने कहा है कि इसकी उनके पास कोई जानकारी नहीं है ! यह एक विडम्बना है कि दुनिया के सारे हिन्दूद्रोही मिलकर हिन्दू को समाप्त करने पर तुले हैं और इस देश में रहने वाले को पता नहीं है कि वह हिन्दू क्यों है और वह हिन्दू नहीं तो हिन्दू कौन है ? 

आज आप हिन्दू की परिभाषा करना चाहे तो आपके लिये असभव नहीं तो यह कार्य कठिन अवश्य है ! आज किसी एक आधार पर किसी भी हिन्दू नहीं कह सकते ! हिन्दू समाज की कोई मान्यता, कोई सिद्धान्त, कोई भगवान, कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे सभी हिन्दुओं पर समान लागू किया जा सके, या जो सभी को स्वीकार्य हो ! हिन्दू समाज की अनेक मान्यतायें परस्पर इतनी विरोधी हैं कि देखकर हैरत होती है ! ईश्वर को एक और निराकार मानने वाला भी हिन्दू है, तो अनेक साकार रूपों में उनकी पूजा करने वाला भी हिन्दू हैं ! वेद की पूजा करने वाले हिन्दू हैं, वेद की निन्दा करने वाले भी हिन्दू ! इतने कट्टर शाकाहारी हिन्दू हैं कि वे लाल मसूर या लाल टमाटर को मांस से मिलता-जुलता समझकर अपनी पाकशाला से भी दूर रखते हैं, इसके विपरीत काली पर बकरे, मुर्गे, भैसों की बलि देकर ही ईश्वर को प्रसन्न करने वाले मांसाहारी भी हिन्दू हैं ! केवल शरीर को ही अस्तित्व समझने वाले हिन्दू हैं, दूसरे जीव को ब्रह्म का अंश मानने वाले अपने को हिन्दू कहते हैं, ऐसी परिस्थिति में आप किन शब्दों में हिन्दू को परिभाषित करेंगे !

आज के विधान से जहाँ अपने को सभी अल्पसंख्यक घोषित कराने की होड़ में लगे हैं- बौद्ध, जैन, सिक्ख, राम-कृष्ण मठ आदि अपने को हिन्दू इतर बताने लगे हैं फिर आप हिन्दू को कैसे परिभाषित करेंगे ! परिभाषा करने का कोई न कोई आधार तो होना चाहिए ! सावरकर जी ने जो हिन्दू की परिभाषा दी, उसके अनुसार "आसिन्धू सिन्धु पर्यान्ता", जो सिन्धु प्रदेश से सागर के मध्य रहता है, उसे अपनी पुण्यभूमि पितृभूमि स्वीकार करता है, वह हिन्दू है | ऐसा कहकर  उन्होंने हिन्दू को व्यापक अर्थ देने का प्रयास किया है ! 

हिन्दू महासभा के प्रधान प्रो. रामसिंह जी से किसी ने प्रश्न किया- हिन्दू कौन है ? तो उन्होंने कहा हिन्दू-मुस्लिम दंगों में मुसलमान जिसे अपना शत्रु मानता है वह हिन्दू है ! राजनेता  और न्यायालयों में भी हिन्दू शब्द को एक जीवन पद्धति बताकर परिभाषित करने का यत्न किया था ! यह भी एक अधूरा प्रयास है ! हिन्दुओं की कोई एक जीवन पद्धति ही नहीं है ! हिन्दू संगठन की घोषणा करने वालों ने कहा- अनेकता में एकता हिन्दू की विशेषता ! लेकिन इतनी विविधता में क्या आप एकता कर सकते हैं ?

यदि अनेकता में एकता बन सकती तो आज मुसलमानों से भी अधिक संगठित हिन्दू को होना चाहिए परन्तु हिन्दू नाम एकता का आधार कभी नहीं बन सका ! हिन्दू-समाज में एकता की सबसे छोटी इकाई परिवार है, जिसमें व्यक्ति अपने को सुरक्षित मानता है ! हिन्दू-समाज की उससे बड़ी इकाई उसकी जाति है ! वह जाति के नाम पर आज भी संगठित होने का प्रयास करते हैं ! सामाजिक हानि-लाभ के लिये भी बड़ी इकाई जाति है, लेकिन कोई भी जाति हिन्दू-समाज का उत्तरदायित्व लेने के लिये तैयार नहीं होती ! 

जाति हिन्दू-समाज की एक इतनी मजबूत ईकाई है कि व्यक्ति यदि दूसरे धर्म को स्वीकार कर लेता है तो भी वह अपनी जाति नहीं छोड़ना चाहता, जो लोग ईसाई या मुसलमान भी हो गये, यदि वे समूह के साथ धर्मान्तरित हुए हैं तो वहाँ भी उनकी जाति, उनके साथ जाती है ! जाट हिन्दू भी है, जाट मुसलमान भी है, राजपूत हिन्दू भी है, राजपूत मुसलमान भी है ! गूजर हिन्दू भी है, गूजर मुसलमान भी है ! इस प्रकार आपको केवल जाति के आधार पर हिन्दू की परिभाषा करना कठिन होगा ! ऐसी परिस्थिति में हिन्दू की परिभाषा कठिन है परन्तु हिन्दू का अस्तित्व है तो परिभाषित भी होगा !

हिन्दू को परिभाषित करने के हमारे पास दो आधार बड़े और महत्त्वपूर्ण हैं- एक आधार हमारा भूगोल और दूसरा आधार है हमारा इतिहास ! हमारा भूगोल तो परिवर्तित होता रहा है, कभी हिन्दुओं का शासन अफगानिस्तान, ईरान तक फैला था तो आज पाकिस्तान कहे जाने वाले भूभाग को भी आप अपना नहीं कह सकते ! परन्तु हिन्दू के इतिहास में आप उसे हिन्दू से बाहर नहीं कर सकते ! भारत पाकिस्तान के विभाजन का आधार ही हिन्दू और मुसलमान था ! फिर हिन्दू की परिभाषा में विभाजन को आधार तो मानना ही पड़ेगा, उस दिन जिसने अपने को हिन्दू कहां और भारत का नागरिक बना, उस दिन वह हिन्दू ही था, आज हो सकता है वह हिन्दू न रहा हो ! हिन्दू कोई थोड़े समय की अवधारणा नहीं है ! हिन्दू शब्द से जिस देश और जाति का इतिहास लिखा गया है, उसे आज आप किसी और के नाम से पढ़ सकते हैं ! इस देश में जितने बड़े विशाल भूभाग पर जिसका शासन रहा है और हजारों वर्ष के लम्बे काल खण्ड में जो विचार पुष्पित पल्लवित हुये ! जिन विचारों को यहाँ के लोगों ने अपने जीवन में आदर्श बनाया, उनको जिया है, क्या उन्हें आप हिन्दू इतिहास से बाहर कर सकते हैं ? उस परंपरा को अपना मानने वाला क्या अपने को हिन्दू नहीं कहेगा ! हिन्दू इतिहास के नाम पर जिनका इतिहास लिखा गया, उन्हें हिन्दू ही समझा जायेगा ! वे जिनके पूर्वज हैं, क्या वे अपने को उस परंपरा से पृथक् कर पायेंगे ? 

भारत की पराधीनता के समय को कौन अच्छा कहेगा ! यह देश सात सौ वर्ष मुसलमानों के अधीन रहा, जो इस परिस्थिति को दुःख का कारण समझता है, वह हिन्दू है ! यदि कोई व्यक्ति इस देश में औरंगजेब के शासन काल पर गर्व करे तो समझा जा सकता है वह हिन्दू नहीं है ! इतिहास में शिवाजी, राणाप्रताप, गुरु गोविन्दसिंह जिससे लड़े वे हिन्दू नहीं थे और जिनके लिये लड़े थे वे हिन्दू हैं, क्या इसमें किसी को सन्देह हो सकता है ? देश-विदेश के जिन इतिहासकारों ने जिस देश का व जाति का इतिहास लिखा, उन्होंने उसे हिन्दू ही कहा था ! यही हिन्दू की पहचान और परिभाषा है !

आजकल के विद्वान् जिसको परम प्रमाण मानते हैं, ऐसे मैक्समूलर ने भारत के विषय में इस प्रकार अपने विचार प्रकट किये हैं- ‘‘मानव मस्तिष्क के इतिहास का अध्ययन करते समय हमारे स्वयं के वास्तविक अध्ययन में भारत का स्थान विश्व के अन्य देशों की तुलना में अद्वितीय है ! अपने विशेष अध्ययन के लिये मानव मन के किसी भी क्षेत्र का चयन करें, चाहे वह भाषा हो, धर्म हो, पौराणिक गाथायें या दर्शनशास्त्र, चाहे विधि या प्रथायें हों, या प्रारंभिक कला या विज्ञान हो, प्रत्येक दशा में आपको भारत जाना पड़ेगा, चाहे आप इसे पसन्द करें या नहीं, क्योंकि मानव इतिहास के मूल्यवान् एवं ज्ञानवान् तथ्यों का कोष आपको भारत और केवल भारत में ही मिलेगा !’’ 

दिसबर 1861 के द कलकत्ता रिव्यू का लेख भी पठनीय है- आज अपमानित तथा अप्रतिष्ठित किये जाने पर भी हमें इसमें कोई सन्देह नहीं है कि एक समय था जब हिन्दू जाति, कला एवं शास्त्रों के क्षेत्र में निष्णात, राज्य व्यवस्था में कल्याणकारी, विधि निर्माण में कुशल एवं उत्कृष्ट ज्ञान से भरपूर थी ! पाश्चात्य लेखक मि. पियरे लोती ने भारत के प्रति अपने विचार इन शब्दों में प्रकट किये हैं- ‘‘ऐ भारत ! अब मैं तुम्हें आदर सम्मान के साथ प्रणाम करता हूँ ! मैं उस प्राचीन भारत को प्रणाम करता हूँ, जिसका मैं विशेषज्ञ हूँ ! मैं उस भारत का प्रशंसक हूँ, जिसे कला और दर्शन के क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है ! ईश्वर करे तेरे उद्बोधन से प्रतिदिन ह्रासोन्मुख, पतित एवं क्षीणता को प्राप्त होता हुआ तथा राष्ट्रों, देवताओं एवं आत्माओं का हत्यारा पश्चिम आश्चर्य-चकित हो जाये ! वह आज भी तेरे आदिम-कालीन महान् व्यक्तियों के सामने नतमस्तक है !’’ 

अक्टूबर 1872 के द एडिनबर्ग रिव्यू में लिखा है- हिन्दू एक बहुत प्राचीन राष्ट्र है, जिसके मूल्यवान् अवशेष आज भी उपलध हैं ! अन्य कोई भी राष्ट्र आज भी सुरुचि और सभ्यता में इससे बढ़कर नहीं है, यद्यपि यह सुरुचि की पराकाष्ठा पर उस काल में पहुँच चुका था, जब वर्तमान सभ्य कहलाने वाले राष्ट्रों में सभ्यता का उदय भी नहीं हुआ था, जितना अधिक हमारी विस्तृत साहित्यिक खोंजें इस क्षेत्र में प्रविष्ट होती हैं, उतने ही अधिक विस्मयकारी एवं विस्तृत आयाम हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं !

पाश्चात्य लेखिका श्रीमती मैनिकग ने इस प्रकार लिखा है- ‘‘हिन्दुओं के पास मस्तिष्क का इतना व्यापक विस्तार था, जितनी किसी भी मानव में कल्पना की जा सकती है !’’ ये पंक्तियाँ ऐसे ही नहीं लिखी गई हैं ! इन लेखकों ने भारत की प्रतिभा को अलग-अलग क्षेत्रों में देखा और अनुभव किया ! भारतीय विधि और नियमों को मनुस्मृति आदि स्मृति ग्रन्थों में, प्रशासन की योग्यता एवं मानव मनोविज्ञान का कौटिल्य अर्थशास्त्र जैसे प्रौढ़ ग्रन्थों में देखने को मिलता है ! यह ज्ञान-विज्ञान हजारों वर्षों से भारत में प्रचलित है !

इतिहासकार काउण्ट जोर्न्स्ट जेरना ने भारत राष्ट्र की प्राचीनता पर विचार करते हुए लिखा है- ‘‘विश्व का कोई भी राष्ट्र सभ्यता एवं धर्म की प्राचीनता की दृष्टि से भारत का मुकाबला नहीं कर सकता !’’ भारतीय इतिहास में, तुलामान, दूरी का मान, काल मान की विधियों को देखकर विद्वान् दांतों तले उंगली दबा लेते है ! आप सृष्टि की काल गणना से असहमत हो सकते हैं , परन्तु भारतीय समाज में पढ़े जाने वाले संकल्प की काल गणना की विधि की वैज्ञानिकता से चकित हुए बिना नहीं रह सकते ! महाभारत, रामायण जैसे ऐतिहासिक ग्रन्थ पुराणों की कथाओं के माध्यम से इतिहास की परंपरा का होना ! हिन्दू समाज के गौरव के साक्षी हैं ! मनु के द्वारा स्थापित वर्ण-व्यवस्था और दण्ड-विधान श्रेष्ठता में आज भी सर्वोपरि हैं ! संस्कृति की उत्तमता में वैदिक संस्कृति की तुलना नहीं की जा सकती !

यहाँ का प्रभाव संसार के अनेक देशों द्वीप-द्वीपान्तरों में आज भी देखने को मिलता है ! यहाँ के दर्शन, विज्ञान, कला, साहित्य, धर्म, इतिहास, समाजशास्त्र ऐसा कौनसा क्षेत्र है, जिस पर हजारों वर्षों का गौरवपूर्ण चिन्तन करना अंकित है ! ये विचार जिस देश के हैं, उसे हिन्दू राष्ट्र कहते हैं और इन विचारों को जो अपनी धरोहर समझता है, वही तो हिन्दू है ! कोई मनुष्य लंगड़ा, लूला, अन्धा होने पर व्यक्ति नहीं रहता, ऐसा तो नहीं है ! नाम भी बदल ले तो दूसरा नाम भी तो उसी व्यक्ति का होगा ! वह वैदिक था, आर्य था, पौराणिक हो गया, बाद में हिन्दू बन गया, सारा इतिहास तो उसी व्यक्ति का है ! जिसे केवल अपने विचार, कला, कृतित्व पर ही गर्व नहीं, अपितु उसे अपने चरित्र पर भी उतना ही गर्व है ! तभी तो वह कह सकता है, यह विचार उन्ही हिन्दुओं का है जो इस श्लोक को पढ़ कर गर्व अनुभव करते हैं, यही इसकी परिभाषा है- 

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः | स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः || 

इस देश में पैदा हुए लोगों ने पीढ़ियों तक, अपने चरित्र के माध्यम से प्रथ्वी पर बसने वाले सभी मानवों को शिक्षित किया ! उन्होंने अपने व्यवहार से सिखाया, किसी को दण्ड देकर या अपने अधीन करके नहीं ! पहले खुद ऐसा आदर्श आचरण किया, कि उसे देखकर अन्य लोग भी प्रभावित हुए, व उन जैसे बनने को प्रवृत्त हुए ! सीधे शब्दों में कहें तो वह हिन्दू है, जो अपने आचरण से दूसरों को प्रभावित करता है, और जिनसे प्रभावित हुए लोग, अपने आचरण में भी वही गुण अपना कर स्वयं को धन्य मानते हैं ! श्रीराम शर्मा जी ने शायद यही सोचकर लिखा और कहा - हम सुधरेंगे - जग सुधरेगा !

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