शिवपुरी जैसे छोटे शहर को साहित्य जगत में पहचान दिलाने वाले राग व आग के अद्भुत कवि "श्री रामकुमार चतुर्वेदी चंचल" !

तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेई के साथ चंचल जी व उनका परिवार

दिनांक 8 अक्टूबर 1926 को तत्कालीन गुना जिले के मुंगावली कस्बे में जन्में श्री रामकुमार चतुर्वेदी जी पूर्व प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेई के सहपाठी रहे ! दोनों ने कवितायें लिखना लगभग साथ साथ ही शुरू किया था ! प्रधानमंत्री आवास में ही उनकी पुस्तक “शंख को टेरती बांसुरी” का लोकार्पण हुआ ! यह पुस्तक उन्होंने अपनी पत्नी कनक जी को समर्पित की, इन पंक्तियों के साथ –

आधी सदी के साथ बीती है,गागर कभी नहीं रीती है,आंसू भरे महाभारत में,गीतों की सेना जीती है !

उपर्युक्त समर्पण में आधी सदी का साथ, प्रेम की गागर भरीपूरी रहने का अहसास, फिर जीवन भर के कठिन संघर्षों में गीतों की सेना का जीतना, स्वयं में एक विलक्षण रूपक है ! एक स्थान पर वे अपना परिचय इन पंक्तियों से देते हैं –

मृत्तिका के पुत्र हैं, दीपक हमारा नाम,
ज्योति के संदेशवाही, दूत हम अभिराम !!
स्नेह से भरपूर अंतर, वर्तिका उद्दाम,
हम अँधेरे से करेंगे, भोर तक संग्राम !!

चंचल जी ने भारत छोडो आन्दोलन से प्रेरित होकर काव्य रचना के क्षेत्र में कदम रखा था, तो स्वाभाविक ही उनकी कविताओं में राष्ट्रीय जागरण, स्वदेशी को अपनाने, नवयुवकों में प्राण फूंकने और स्वतंत्रता को गुंजाने की भावना थी ! वीर रस की कवितायें लिखने के बावजूद वे प्रेम और समर्पण की रचनाएँ लिखने में भी तल्लीन रहे ! स्व. रामकुमार चतुर्वेदी चंचल एक मनोहारी गीतकार, ओजस्वी कवि और व्यक्तिगत जीवन में एक श्रेष्ठ इंसान थे ! गठा हुआ शरीर, दरमियाना कद, संयत वाणी और शाहिस्ता शैली में काव्यपाठ यह उनके मंचीय तेवर थे ! अपने जीवन के 75 वर्ष पूर्ण होने के बाद भी उनके काव्यपाठ की खनक यथावत रही !

प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यासकार श्री वृन्दावनलाल वर्मा ने उनके विषय में लिखा था –

चतुर्वेदी जी वादों के जाल से बहुत दूर हैं, वह कविता को जीवन के लिए समझते हैं ! जीवन और उसकी उन्मुक्तता पर घायल करने वाले अंकुश नहीं लगाते ! उनकी भाषा और भावों की सीधी चुभन, चुस्ती और ओजस्विता का मैं कायल हूँ ! उनकी बात समझने के लिए इधर उधर भटकना नहीं पड़ता ! इनकी कविताओं में मनोहर लय है ! मुझ सरीखे पाठकों के लिए लयवाली कवितायें, जिनमें लय के ऊपर कुछ और भी हो, प्रभावशाली लगती है ! कुछ मुक्तक भी हैं, पर वे कान में रमने की और जीभ पर बसने की शक्ति रखते हैं, क्योंकि इनके मुक्तकों में भी लय है !

जवानी चाँद पर आई हुई मालूम होती है,
हवा भी आज मदमाई हुई मालूम होती है,
दबी झीनी, गुलाबी, रेशमी मुस्कान ओठों में,
किसी की आँख शरमाई हुई मालूम होती है !

प्रेम की कोमल अनुभूतियों को अपनी कलम से उकेरने वाले चंचल जी ने यद्यपि कई अनूठे गीत रचे हैं, मगर उनका मूल स्वर राष्ट्रीय चेतना तथा मानवीय वेदना का ही रहा है ! अपनी एक कविता “मशाल कहाँ है” में स्वतंत्रता के बाद देश की राजनीति, समाज में व्याप्त आत्ममुग्धता को ललकारते हुए उन्होंने अपनी पीड़ा को इस प्रकार व्यक्त किया –

रख नहीं सके कमजोर हाथ उसको संभाल,
हमने तुमको सोंपी थी जो जलती मशाल,
तुम व्यस्त हो गए, स्वार्थसिद्धि के धंधों में,
सत्ता, कुर्सी, नोटों, वोटों के फंदों में,
सिद्धियाँ सभी बेमतलब सी हो जाती हैं,
पीढियां ही जब ऐयासी में खो जातीं हैं,
उत्तरदायित्व नहीं तो उत्तर मिले कहाँ,
धरती से अम्बर तक केवल जलाते सवाल,
रख नहीं सके कमजोर हाथ उसको संभाल,
हमने तुमको सोंपी थी जो जलती मशाल !

चंचल जी ने नीति और नैतिकता को अपनाया, राजनीति से कभी नहीं जुड़े ! साठ वर्षों तक समूचे देश के बड़े कवि सम्मेलनों में काव्यपाठ करने के साथ ही उन्होंने लालकिले के मंच से भी दर्जनों बार काव्यपाठ किया ! उनकी कविता की अनुगूंज उन नगरों और कस्बों तक भी पहुंची, जहाँ वे कभी काव्यपाठ को नहीं जा पाए –

मनुज पर यहाँ काल का है नियंत्रण,
किसी भी घड़ी टूट सकता प्रभंजन,
कि हर नाव चलती यहाँ डगमगाती,
हिलोरें उठाकर बुलाता बिसर्जन !

और वे भी राष्ट्र की नींव में विसर्जित हो गए दिनांक 6 मई 2003 को, अपनी कर्मभूमि शिवपुरी में, जहाँ शिवपुरी महाविद्यालय में न जाने कितने नवयुवकों को हिन्दी के प्राध्यापक के रूप में उन्होंने हिन्दी साहित्य में निष्णात किया !

साभार आधार श्री शेरजंग गर्ग का 2003 में लिखा गया एक आलेख

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