''अंतिम क्रिया का हक'' विभाजन के दौरान एक सिख परिवार की कहानी !


यह कहानी देश के बंटवारे से शुरू होती है। जो हिस्सा पाकिस्तान बना, वहां मुसलमानों की अधिकता के कारण माहौल खराब होता देख अनेक हिन्दू और सिख परिवारों ने महिलाओं और बच्चों के साथ अपना कीमती सामान उस पार के रिश्तेदारों के पास भेज दिया था। दो बीघे जमीन के मालिक सरदार रतनसिंह डेरा गाजी खां के पास एक गांव में रहते थे। वाहे गुरु ने काफी मन्नतों के बाद बुढ़ापे में उन्हें एक बेटा दिया था। उसका नाम था वतनसिंह। यद्यपि रतनसिंह के मुसलमानों से अच्छे सम्बन्ध थे; पर काफी समय से सब तरफ गूंज रहे ‘पाकिस्तान जिन्दाबाद’ के नारों से उनकी नींद भी उड़ गयी थी।

1947 की बैसाखी पर रतनसिंह ने वतन का विवाह पड़ोसी गांव की सुखवंत से किया था; पर उसके हाथों की मेंहदी सूखने से पहले ही विभाजन हो गया। सब तरफ भगदड़ मच गयी। लोग अपने खेत, मकान और दुकानें छोड़कर भारत की तरफ भागने लगे। रतनसिंह भी जरूरी सामान बैलगाड़ी में लादकर चल दिये। उनकी इच्छा थी कि वे किसी भी तरह अमृतसर पहुंच जाएं। फिर जैसी वाहे गुरु की मरजी।

डेरा गाजी खां से अमृतसर 500 कि.मी. दूर था। रास्ता खतरों से भरा था। अतः कभी वे रात में चलते, तो कभी दिन में। फिर भी तीसरे दिन उन पर हमला हो गया। उसमें रतनसिंह मारे गये और सुक्खी का अपहरण हो गया। वतन और उसकी मां अर्थात बेबे पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। जैसे-तैसे उन्होंने चिता बनायी। रतनसिंह का शव उस पर रखकर आग लगायी और चल दिये। ऐसी कहानी सिर्फ वतनसिंह की ही नहीं थी। लाखों लोग इससे भी अधिक कष्ट उठाकर भारत पहुंचे थे।

अमृतसर पहुंचकर अपनी जान की ओर से तो वे निश्चिंत हो गये; पर आगे क्या होगा, कुछ पता नहीं था। वतनसिंह के लिए अब सबसे पहला काम सुक्खी की तलाश था। उसने सोचा कि वह फिर से उधर जाए; पर बेबे नहीं मानी। बुढ़ापे में अपने पति को खोने के बाद वह बेटे को खतरे में डालना नहीं चाहती थी।

अब वतन को सुबह से शाम तक एक ही काम था। वह नियमित रूप से अमृतसर के शरणार्थी शिविरों में जाता था। शायद कहीं सुक्खी मिल जाए। दो महीने इसी तरह बीत गये। विभाजन के समय लाखों महिलाओं के साथ दुराचार हुआ था। मुल्ला-मौलवियों और पैसे वालों ने कई-कई महिलाएं रख लीं। उन हमलावरों ने भी कई दिन तक नोचकर सुक्खी को एक जमींदार को बेच दिया। जमींदार की पहले से दो बीवियां थीं। उसने सुक्खी को निकाह का प्रस्ताव दिया; पर वह तैयार नहीं हुई। अतः जमींदार ने उसे अपने नौकरों के हवाले कर दिया। वे उससे दुराचार करते थे और उसे पीटते भी थे। सुक्खी ने कई बार जमींदार और उसकी बीवियों के आगे हाथ जोड़े; पर सब व्यर्थ।
लेकिन उस राक्षसी माहौल में कुछ अच्छे लोग भी थे। वे चाहते थे कि जो लोग भारत जाना चाहते हैं, उन्हें यथाशीघ्र वहां पहुंचा दिया जाए। उन्होंने ऐसे लोगों के लिए शिविर बना रखे थे। एक बार वह जमींदार किसी काम से बाहर गया था। मौका पाकर उसकी बीवियों ने सुक्खी को उस शिविर में पहुंचा दिया। वहां से अगले दिन वह सेना की सुरक्षा में अमृतसर पहुंच गयी।

इधर दो-ढाई महीने धक्के खाकर वतन भी निराश हो गया। शरणार्थी शिविर भी बंद हो रहे थे। भारत सरकार उन शरणार्थियों को देश के अलग-अलग भागों में बसा रही थी। उनके शिविर के कुछ लोग उ.प्र. में बरेली भेजे जा रहे थे। वह भी अपनी मां के साथ उसी दल में शामिल हो गया। चलते समय उसने शरणार्थी कार्यालय में अपना और बेबे का एक फोटो छोड़ दिया, जिससे सुक्खी उन्हें पहचान सके।

बरेली आकर दो महीने तो खुद को संभालने में ही लग गये। पुराने शहर वाले हिस्से में सैकड़ों मकान खाली थे। इनके मालिक भारत छोड़कर पाकिस्तान जा चुके थे। अतः सरकार इन्हें उधर से आये हिन्दू और सिखों को आवंटित कर रही थी। दो कमरे का ऐसा ही एक मकान वतन के हिस्से में भी आ गया।

बरेली नगर लकड़ी और बांस के फर्नीचर के निर्माण और बिक्री का एक बड़ा केन्द्र है। कुछ दिन बाद एक फर्नीचर वाले ने वतन को काम पर रख लिया। मकान के पास कुछ खाली जमीन पड़ी थी। बेबे ने वहां एक तंदूर लगा लिया। पड़ोस की महिलाएं अपने घर से गुंथा हुआ आटा लाकर बेबे से रोटी और परांठे बनवा लेती थीं। उन्हीं में से कुछ बेबे अपने लिए भी रख लेती थी। कुछ दिन बाद बेबे वहां पंजाबी तड़केदार दाल और सब्जी भी रखने लगी। इससे फर्नीचर वालों के पास काम करने वाले मजदूर और बाहर से आये व्यापारियों को एक रुपये में भरपेट भोजन मिलने लगा। अतः ‘बेबे दा तंदूर’ चल निकला। एक दिन बरेली के नगरपालिका अध्यक्ष पुराने शहर में घूमते हुए वहां आये। बेबे ने नीबूपानी से उनका सत्कार किया। बेबे के संघर्ष की कहानी सुनकर उन्होंने सौ रु. की रसीद काटकर वह जगह बेबे को ही आवंटित कर दी।

क्षमा करें पाठक मित्रो, तूफान मेल गाड़ी की तरह हम कई महत्वपूर्ण प्रसंगों को छोड़कर आगे बढ़ गये हैं। इसलिए अब कुछ चर्चा उनकी भी कर लें।

बरेली में जब वतन का ठिकाना हो गया, तो उसने अमृतसर के शरणार्थी कार्यालय को चिट्टी लिखी। कुछ ही दिन में वहां से जवाब भी आ गया। उसमें लिखा था कि सुक्खी यहां सुरक्षित है। वतन और बेबे की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। वतन उसी रात चलकर तीसरे दिन अमृतसर पहुंच गया। वतन और सुक्खी मिले, तो बहुत देर तक रोते ही रहे। सुक्खी को आज ही पता लगा कि जिस हमले में उसका अपहरण हुआ था, उसमें उसके ससुर जी भी मारे गये थे। खैर, अब क्या हो सकता था ? अगले दिन दोनों बरेली के लिए चल दिये। बरेली पहुंचे, तो अब रोने की बारी बेबे और सुक्खी की थी; लेकिन रोते भी तो कितनी देर तक ? अब जिंदगी को आगे बढ़ाना था। अतः सुक्खी भी मां के साथ तंदूर में हाथ बंटाने लगी।

लेकिन इस बीच एक समस्या आ गयी। हमलावरों के कब्जे के दौरान सुक्खी के साथ कई बार बलात्कार हुआ था। उनमें से न जाने किसके संसर्ग से वह गर्भवती हो गयी। इसके लक्षण स्पष्ट नजर आ रहे थे। बेबे और वतन ने पूछा, तो उसने सारी बात कह दी। ऐसी दुर्घटना की शिकार हजारों निर्दोष महिलाएं हुई थीं। इसलिए दोनों ने सुक्खी को निःसंकोच स्वीकार कर लिया; पर उन्होंने यह सावधानी रखी कि बात बाहर न जाए।

कुछ दिन में सुक्खी आसपास की महिलाओं के घर आने-जाने लगी। ऐसी ही गपशप में एक दिन उसके मुंह से वह बात निकल गयी, जिसके लिए बेबे और वतन ने मना किया था। बस फिर क्या था ? जल्दी ही यह बात फैल गयी। कई महिलाएं सुक्खी को चरित्रहीन कहने लगीं। कुछ ने बेबे से उसके पेट की सफाई कराने को कहा। एक-दो ने तो धमकी ही दे दी कि यदि ऐसा नहीं हुआ, तो उन्हें मोहल्ला छोड़ना होगा। बेबे चुप रहकर इस अंधड़ को गुजर जाने देना चाहती थी; पर विघ्नसंतोषियों ने उसे टस से मस न होते देख पंचायत बुला ली। इस पर बेबे ने भी आसपास के शरणार्थी परिवारों और शहर के बड़े गुरुद्वारे में सम्पर्क कर कुछ लोगों को बुला लिया।

सुक्खी को इस समय सातवां महीना लग चुका था। अतः उसे घर छोड़कर वे दोनों पंचायत में पहुंचे। पंचायत में कई तरह की बातें कही गयीं। बेबे और वतन चुपचाप सुनते रहे। जब बेबे का नम्बर आया, तो खड़े होकर उसने वाहे गुरुजी की जयकार बुलाई और बोली, ‘‘भाइयो और बहनो, आप लोग यहां के पुराने बाशिंदे हैं और हम शरणार्थी। आपने हमें रहने का ठौर-ठिकाना दिया। मेहनत करके इज्जत से दाल-रोटी खा सकें, ऐसा माहौल दिया। इसके लिए हम आपके कर्जदार हैं; लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि हम आपकी हर सही-गलत बात मान लेंगे।

आप लोग मेरी बहू के बारे में जो उल्टा-सीधा कह रहे हैं, वह सब झूठ है। उस पर जो बीती है, वह आप नहीं समझ सकते। यदि उसे सुख की चाह होती, तो वहीं रह जाती; लेकिन वो अपनी जान पर खेल कर भाग आयी। क्यों.. ? सिर्फ इसलिए कि उसे अपना धर्म और परिवार प्यारा है। कई औरतें मजबूरी में मुसलमान बनी भी हैं; पर मेरी सुक्खी ने ऐसा नहीं किया।

कुछ लोग उसके पेट की सफाई की बात कह रहे हैं। मैं बता देना चाहती हूं कि मैं एक औरत हूं और मां भी। मेरे जिन्दा रहते ये नहीं हो सकता। वतन मेरा अकेला बेटा है। जब हमने सारी बात जानकर सुक्खी को अपनाया है, तो उसके होने वाले बच्चे को भी अपनाएंगे। उसे वो सब हक देंगे, जो पहले बच्चे को मिलते हैं। ये हमारा घरेलू मसला है, आप इसमें दखल न दें।’’

बेबे का चेहरा गुस्से से लाल हो रहा था। वह आगे बोली, ‘‘ये बात ठीक है कि हम आप लोगों के बीच रह रहे हैं; पर ये न भूलो कि हम किसी की कृपा पर जिन्दा नहीं हैं। सुबह-शाम की रोटी हम अपनी मेहनत से खा रहे हैं। जब हम आये थे, तो हम खाली हाथ थे; पर हमने भीख नहीं मांगी। हम आज तक इज्जत से जिए हैं और आगे भी ऐसे ही जिएंगे। इसके बावजूद यदि किसी ने हमें परेशान किया, तो ध्यान रहे, वाहे गुरु का आशीर्वाद और ये कृपाण हमेशा मेरे साथ रहती है।’’

इतना कहकर बेबे ने कमर से बंधी अपनी कृपाण निकाल कर लहरा दी। जोर से ‘बोले सो निहाल, सत्श्री अकाल’ और ‘वाहे गुरुजी का खालसा, वाहे गुरुजी की फतह’ का उद्घोष किया और बैठ गयी। पंचायत में सन्नाटा छा गया। अधिकांश महिलाएं और शरणार्थी परिवार खुलकर बेबे का पक्ष लेने लगे। अतः बिना किसी निर्णय के पंचायत उठ गयी।

दो महीने बाद सुक्खी ने एक सुंदर बेटे को जन्म दिया। बेबे ने मोहल्ले भर में लड्डू बांटे। महीने भर बाद तीनों ने बड़े गुरुद्वारे में जाकर मुख्य गं्रथी जी से बच्चे का नामकरण करने को कहा। ग्रंथी जी ने उसका नाम अमरसिंह रख दिया। अगले पांच साल में वतन को पहले एक बेटी संतोष और फिर एक बेटे समरसिंह की प्राप्ति हुई। बेबे और सुक्खी ने सबको अच्छे संस्कार दिये। अमर को उन्होंने कभी यह नहीं लगने दिया कि वह वतन का नहीं, किसी और का बेटा है।

कुछ साल बाद वतन ने ‘बेबे दा तंदूर’ बंद करा दिया और वहां फर्नीचर बनवाने लगा। आठ-दस साल में उसका काम काफी बढ़ गया। अतः उसने बड़े बाजार की बांसमंडी में एक दुकान ले ली। वह उसका नाम अपने पिताजी के नाम पर रखना चाहता था; पर बेबे पीछे की बजाय आगे देखना चाहती थीं। उनके कहने पर दुकान का नाम ‘दो भाई फर्नीचर स्टोर’ रखा गया।

अगले बीस साल में अमर और समर अपने पिता के दाहिने और बाएं हाथ बन गये। इससे उनका कारोबार तेजी से बढ़ा। उन्होंने सिविल लाइन्स में एक बड़ी कोठी बना ली। फिर उनके भी विवाह और बाल-बच्चे हुए। बेबे ने अपने परिवार को खूब फलते-फूलते देखा और एक दिन अपनी उम्र पूरी कर वे चल बसीं।

वतनसिंह ने क्रमशः फर्नीचर के दो शोरूम और खोल लिये; पर काम का मुख्य केन्द्र ‘दो भाई फर्नीचर स्टोर’ ही रहा। तीनों लोग सुबह एक साथ यहां आते थे और शाम को इसी तरह वापस जाते थे। बेबे कहती थीं कि साथ खाने से प्यार बढ़ता है। इसलिए सुबह का नाश्ता और रात का खाना तीनों एक साथ ही खाते थे। बाजार में कई लोगों को अमरसिंह के जन्म की कथा मालूम थी; पर दोनों भाइयों में तकरार की बात कभी किसी ने नहीं सुनी।

किसी ने लिखा है, ‘‘तेरे मन कुछ और है, दाता के कुछ और।’’ एक दिन वतन रात में सोया, तो सुबह उठा ही नहीं। रात में किसी समय उसे दिल का तेज दौरा पड़ा, और बस..। सुक्खी बेटी के घर गयी हुई थी। सुनते ही वह दौड़ी-दौड़ी आयी; पर तब तक तो सब समाप्त हो चुका था।

अंतिम यात्रा से पहले कुछ धार्मिक क्रियाओं के लिए जब अमर आगे बढ़ा, तो कुछ लोगों ने आपत्ति खड़ी कर दी। उनका कहना था कि यद्यपि वतनसिंह ने दोनों में कभी कोई भेद नहीं किया, फिर भी सच तो यही है कि अमरसिंह उसका पुत्र नहीं है। वह सुक्खी का बेटा तो है; पर वतन का नहीं। यदि उसका दूसरा बेटा न होता, तब तो कोई बात नहीं थी; पर जब उसका औरस पुत्र है, तो अंतिम क्रिया उसे ही करनी चाहिए।

सुक्खी अंदर बैठी थी। उसे लगा कि यदि इस समय वह नहीं बोली, तो दोनों भाइयों के बीच स्थायी दीवार खड़ी हो जाएगी। उसे वह पंचायत याद आयी, जहां बेबे ने अपने तर्कों और तलवार से सबका मुंह बंद कर दिया था। सुक्खी को लगा कि जैसा साहस उस समय बेबे ने दिखाया था, वैसा ही आज उसे दिखाने की जरूरत है।

बेबे को याद कर सुक्खी का चेहरा लाल हो गया। वह बाहर आकर बोली, ‘‘सरदार जी की अंतिम क्रिया कौन करेगा, यह तय करने वाले हम और आप कौन हैं ? यह बात तो बेबे ने अमरसिंह के जन्म से पहले ही तय कर दी थी। भरी पंचायत में उन्होंने कहा था कि बेटा हो या बेटी, पर उसे वह सब हक मिलेंगे, जो पहले बच्चे को मिलते हैं। इसलिए सरदार जी की अंतिम क्रिया अमर ही करेगा।’’ वहां उपस्थित लोग चुप रह गये।

इस बात को कई साल हो गये। अब तो सुक्खी भी नहीं रही; पर बड़े बाजार में दो भाइयों के प्रेम की कहानी कहता ‘दो भाई फर्नीचर स्टोर’ आज भी है। अमरसिंह, समरसिंह और उनके बच्चे अब भी एक साथ दुकान पर आते हैं। वहां दीवार पर बेबे, वतनसिंह और सुक्खी के चित्र लगे हैं। कोई उनसे पूछे, तो वे अपनी सफलता का श्रेय बेबे के साहस, वतनसिंह के परिश्रम और सुक्खी के त्याग को देते हैं।


लेखक परिचय- 
विजय कुमार
शिक्षा : एम.ए. राजनीति शास्त्र, मेरठ विश्वविद्यालय जीवन यात्रा : जन्म 1956, संघ प्रवेश 1965, आपातकाल में चार माह मेरठ कारावास में, 1980 से संघ का प्रचारक। 2000-09 तक सहायक सम्पादक, राष्ट्रधर्म (मासिक)। सम्प्रति : विश्व हिन्दू परिषद में प्रकाशन विभाग से सम्बद्ध एवं स्वतन्त्र लेखन पता : संकटमोचन आश्रम, रामकृष्णपुरम्, सेक्टर - 6, नई दिल्ली - 110022

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें