स्वर्ग और नर्क - स्वामी विवेकानंद


गीता के उपदेश अनुसार आत्मा सुख दुःख से परे अजर अमर अविनाशी है तो फिर स्वर्ग नर्क की कल्पना क्यों ? मृत्यु के पश्चात स्वर्ग में सुख और नर्क में दुःख भोगने की बात शास्त्रों में कैसे आई ? यह विरोधाभाष क्यों ? बैसे तो यह विषय युगों से चला आ रहा है और संभवतः आगे भी जारी ही रहेगा, फिर भी प्रस्तुत आलेख में उद्धृत स्वामी विवेकानंद जी के आत्मा और परमात्मा विषयक विचार पठनीय और मननीय है | -

आँखें बाह्य संवेदनाएं मेरे पास लाती हैं और संवेदक नाड़ियाँ उसे मस्तिष्क में ले जाती हैं | आँखें देखने का साधन नहीं हैं, वे उसकी केवल बाहरी यंत्र हैं, क्योंकि देखने का जो वास्तविक साधन है, उसको यदि नष्ट कर दिया जाए तो बीस आँखें होते हुए भी मैं तुममें से किसी को नहीं देख पाऊंगा | इस यंत्र – चक्षु के पीछे यथार्थ चक्षुरेंद्रिय है | सब प्रकार की विषयानुभूतियों के लिए इसी प्रकार समझाना चाहिए | नासिका घ्राणेन्द्रिय नहीं है, वह तो यंत्र मात्र है, घ्राणेन्द्रिय उसके पीछे है | 

पर इतना ही पर्याप्त नहीं है | मान लो मैं तुमसे कुछ कह रहा हूँ, और तुम बड़े ध्यान से मेरी बात सुन रहे हो | इसी समय यहाँ एक घंटा बजता है, किन्तु शायद तुम उसकी ध्वनी को नहीं सुन पाते | यह शब्द तरंग तुम्हारे कान में पहुंचकर कान के परदे में आघात करती है, नाडीयों के द्वारा यह संवाद मस्तिष्क में पहुंचा, पर फिर भी तुम उसे नहीं सुन सके | ऐसा क्यों ? मन इन्द्रिय से युक्त नहीं था | जिस समय मन इन्द्रियों से प्रथक रहता है, उस समय इन्द्रियों द्वारा लाये गए किसी भी संवाद को ग्रहण नहीं करता | जब मन उनसे युक्त होता है, तभी उसे ग्रहण करता है | 

एक और वस्तु आवश्यक है | अन्दर से प्रतिक्रिया होना चाहिए | मन की जो स्थिति यह प्रतिक्रिया भेजती है, उसे बुद्धि कहते हैं | मन भी केवल वाहक है, वह इस विषय की संवेदना को और भी आगे ले जाकर बुद्धि को ग्रहण कराता है | बुद्धि उसके सम्बन्ध में निश्चय करती है | बुद्धि को भी उसे फिर और भीतर ले जाकर शरीर के राजा ‘आत्मा’ के पास पहुँचाना होता है | उसके पास पहुँचाने पर फिर वह आदेश देती है – “हाँ, यह करो” या “न करो” | तब जिस क्रम से वह विषय संवेदना केंद्र में गयी थी, ठीक उसी क्रम से वह बहिर्यंत्र में आती है – पहले बुद्धि में, उसके बाद मन में, फिर मस्तिष्क केंद्र में और अंत में बहिर्यंत्र में, तभी विषय ज्ञान की क्रिया पूरी होती है |

बहिर्यंत्र मनुष्य की स्थूल देह में अवस्थित हैं, जबकि हिन्दू शास्त्र के अनुसार मन और बुद्धि सूक्ष्म शरीर में | ईसाई शास्त्र उसे ही आध्यात्मिक शरीर कहते हैं | आत्मा इन सबके अतीत है | स्थूल शरीर में मामूली कारण से ही क्षोभ उत्पन्न हो जाता है और वह विनष्ट हो जाता है | किन्तु सूक्ष्म शरीर इतनी आसानी से नष्ट नहीं होता, किन्तु वह भी कभी सबल तो कभी दुर्बल रहता है | शरीर में बल रहने पर मन भी सबल रहता है | वृद्ध लोगों का मनोबल इसीलिये कमजोर हो जाता है | जैसे शरीर में उन्नति, अवनति होती है बैसे ही मन में भी | अतः मन आत्मा नहीं है | क्योंकि आत्मा कभी जीर्ण या क्षतिग्रस्त नहीं होती |

मान लो एक कैमरा है और एक पर्दा | जिस प्रकार सचल कैमरे से सचल किरणें निकलकर अचल परदे पर चित्र उत्पन्न करती हैं उसी प्रकार जिस वस्तु पर मन और बुद्धि द्वारा ले जाई गईं संवेदनाएं स्थापित श्रेणीबद्ध और एकत्रीभूत होती हैं, उसी को मनुष्य की आत्मा कहते हैं | हमने अब तक यही देखा कि पहले तो यह स्थूल देह है, उसके पीछे हैं इन्द्रियाँ, फिर मन, तत्पश्चात बुद्धि और बुद्धि के भी पीछे आत्मा | द्वैतवादी कहते हैं कि आत्मा सगुण है, अर्थात भोग, सुख, दुःख आदि सभी यथार्थ में आत्मा के धर्म हैं, पर अद्वैतवादी कहते हैं कि वह निर्गुण है, उसमें ये धर्म नहीं हैं |

जगत में धर्म संबंधी जो बातें सुनी जाती हैं, सब बच्चों की सी बातें हैं | प्रत्यक्षानुभूति ही धर्म का सार है | जब तक यह उपलव्धि तुम्हे नहीं होती, तब तक तुममें और नास्तिक में कोई भेद नहीं है | नास्तिक तो फिर भी निष्कपट होते हैं, किन्तु जो कहता है कि “मैं धर्म में विश्वास करता हूँ, किन्तु उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति की चेष्टा नहीं करता”, वह निश्चय ही निष्कपट नहीं है |

कुत्ता या भेडीया जिस चाव से भोजन करता है, उस तरह कौन मनुष्य कर सकता है ? इसका कारण यह है कि हमारी समस्त कार्य प्रवृत्ति इन्द्रियों में नहीं है – वह बुद्धि में है – आत्मा में है, पर कुत्ते के प्राण इन्द्रियों में ही पड़े रहते हैं |

अब प्रश्न आता है आत्मा के पुनर्जन्म का | शंका उठती है कि हमें अपने जन्म जन्मान्तर की बातें याद क्यों नहीं रहतीं ? इस पर यह पूछा जा सकता है कि क्या इसी जन्म की सब बीती घटनाएँ हम याद रख सकते हैं ? तुममें से कितनों को अपने बचपन की सब घटनाएँ स्मरण हैं ? किसी को नहीं | यदि अस्तित्व स्मृति पर निर्भर माना जाए तो कहना पडेगा कि शिशु रूप में तुम्हारा अस्तित्व ही नहीं था | अतः यह कहना निरी मूर्खता है कि हम पुनर्जन्म को तभी स्वीकारेंगे, जब हम उसे स्मरण रख सकें | उस समय का मस्तिष्क अब नहीं है – वह बिलकुल नष्ट हो गया है और एक नए मस्तिष्क की रचना हुई है | अतीतकाल के संस्कारों का जो समष्टिभूत फल है, वही हमारे मस्तिष्क में आया है – उसी को लेकर मन हमारे शरीर में अवस्थित है |

हर व्यक्ति की ज्ञानार्जन क्षमता भिन्न होती है | इससे सिद्ध होता है कि हम सब अपने प्रथक ज्ञान भण्डार के साथ आये हैं | हम मृत्यु का भय सर्वत्र देख पाते हैं | पर क्यों ? अभी पैदा हुआ मुर्गी का बच्चा चील को आते देख अपनी माँ के पास भाग जाता है | उसने कहाँ से और कैसे सीखा कि चील मुर्गी के बच्चों को खा जाती है | अंडे से अभी अभी निकली बतख पानी में क्यों कूद पड़ती है और तैरने लगती है ? लोग कहते हैं कि यह जन्मजात प्रवृत्ति है | पर यह जन्मजात प्रवृत्ति है क्या ? मान लो एक बच्चे ने पियानो बजाना सीखना शुरू किया | पहले उसे प्रत्येक परदे की ओर नजर रखकर अँगुलियों को चलाना पड़ता है, पर कुछ समय अभ्यास हो जाने के बाद अंगुलियाँ अपने आप ठीक ठीक स्थानों पर चलने लगती हैं, वह स्वाभाविक हो जाता है | 

एक समय जिसमें ज्ञानपूर्वक इच्छा को लगाना पड़ता है, उसमें जब सहज क्रिया संपन्न होने लगे, उसीको स्वाभाविक ज्ञान कहते हैं | मनुष्य अथवा पशु में जिसे हम जन्मजात प्रवृत्ति कहते हैं, वह अवश्य पूर्ववर्ती कार्य का क्रम संकोच भाव होगा | पूर्ववर्ती कार्य से यह संस्कार आया था और यह अब भी विद्यमान है |

नख का शरीर के साथ जैसा सम्बन्ध है, वैसा ही देह का ज्ञान के साथ | नख शरीर का अंग विशेष है, जिसे सैंकड़ों बार काटे जाने के बाद भी शरीर का कुछ नहीं विगड़ता | ठीक इसी प्रकार, यह शरीर सेंकडों बार नष्ट होने पर भी ज्ञान युग युगांतर तक बचा रहता है | किन्तु यह ज्ञान भी कभी अविनाशी नहीं हो सकता, क्योंकि यह परिवर्तनशील है, उसका ह्रास है, वृद्धि है | और जो परिवर्तनशील है, वह कभी अविनाशी नहीं हो सकता | यह ज्ञान एक सृष्ट पदार्थ है, इसीसे यह स्पष्ट है कि इससे परे, इससे श्रेष्ठ एक दूसरा पदार्थ अवश्य है |

ज्ञान के ह्रास का एक उदाहरण स्वामी जी ने इस प्रकार दिया – 

किसी समय देवराज इंद्र शूकर बनकर अपनी शूकरी के साथ कीचड़ में रहते थे – उस शूकरी से उनके बहुत से बच्चे भी पैदा हुए | वे बड़े सुख से समय व्यतीत कर रहे थे, किन्तु देवता उनकी दुरावस्था देखकर उनके पास आकर बोले – “आप देवराज हैं, समस्त देवगण आपके शासन के अधीन हैं | फिर आप यहाँ क्यों हैं ?” परन्तु इंद्र ने उत्तर दिया – मैं बड़े मजे में हूँ | मुझे स्वर्ग की परवाह नहीं, ये शूकरी और ये बच्चे जब तक हैं, तब तक स्वर्ग आदि कुछ नहीं चाहिए | देवगण यह सुनकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए – उन्हें कुछ ना सूझ पडा | कुछ दिन बाद उन्होंने एक संकल्प लिया कि वे एक के बाद एक सब बच्चों को मार डालेंगे | जब सभी बच्चे मार डाले गए, तब भी इंद्र कातर होकर विलाप ही करते रहे | तब देवताओं ने उनकी शूकर देह को भी चीर डाला | तब इंद्र उस शूकर देह से बाहर होकर हंसने और सोचने लगे – “मैं भी कैसा भयंकर स्वप्न देख रहा था ! कहाँ मैं देवराज, और कहाँ इस शूकर देह को ही एकमात्र जन्म समझ बैठा था ?

(मुझे लगता है देवराज इंद्र शूकर रूप में नर्क ही भोग रहे थे स्वर्ग समझकर, समझ और दृष्टि का ही तो अंतर है न)

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