अमरीका में डोनाल्ड ट्रंप के नायक बनने के पीछे मूल कारण इस्लाम के प्रति आमजन का बदला रवैया !

आज के नया इण्डिया समाचार पत्र में हरिशंकर व्यास जी ने डोनाल्ड ट्रंप के अमरीकी राष्ट्रपति बनने की संभावना के कारणों की विषद मीमांसा की है ! कल तक बात थी कि आंतकवादिय़ों का मजहब नहीं होता। अब निष्कर्ष है कि मजहब ही आंतकी पैदा कर रहा है और इसलिए सह- अस्तित्व संभव नहीं है। प्रस्तुत है उनका बेबाक विश्लेषण -

अमेरिका में और कुछ हद तक में इस्लाम की बॉडी स्केनिग होने लगी है। अब वहा बिन लादेन, अल कायदा या बगदादी मुद्दा नहीं है बल्कि आम मुसलमान और मुस्लिम आबादी मुद्दा है। वहां धर्म पर विचार है। धर्म को मानने वाले बंदों की एंट्री रोकने की सोच है। मुसलमान की आवाजाही रोको, मस्जिदों पर निगरानी रखो और सच उगलवाने के लिए यातना देने की जरूरत की बात अकेले डोनाल्ड ट्रंप की नहीं है बल्कि आम आबादी से भी है। जर्मनी की लाइपजिग यूनिवर्सिटी ने हाल में एक सर्वे-अध्ययन किया। इस अनुसार जर्मनी के 40 फीसदी से अधिक लोगों ने कहा कि मुसलमानों को जर्मनी आने से रोके। बीते दो सालों में जर्मनी में मुसलमानों को नापसंद करने या उन पर शक करने की लोगों में प्रवृत्ति बढ़ी है। अध्यय़न में मुसलमानों के खिलाफ बढ़ती घृणा और इस कारण अति दक्षिणपंथी विचारधारा फैलने की बात भी कही गई है। यह उन तमाम देशों की प्रतिनिधी हकीकत है जहां 2001 के 9/11 से पहले मुसलमानों का खुले हाथ स्वागत होता था। जहां ईसाईयत-इस्लाम में यह भाईचारा था कि अब्राहम के वंशज है।

वह दौर खत्म है। अब एक दूसरे के प्रति वैसी ही नफरत है जैसे क्रूसेड के दौर में थी। यों हिंदू, यहूदी या चीन के मंगोलाईड चेहरे भी इस्लाम की चिंता में है लेकिन अमेरिका, योरोप के ईसाई देशों में मामला बहुत गहरी नफरत वाला बन रहा है। डोनाल्ड ट्रंप, पुतिन, औलांदो के सुरक्षा तंत्र ने, पश्चिमी विचारवानों ने इस्लाम की जो स्केनिंग की है उसका निचोड यही माना जाने लगा है कि मजहब जड है। सो मुसलमानों को न आने दो। कल तक बात थी कि आंतकवादिय़ों का मजहब नहीं होता। अब निष्कर्ष है कि मजहब ही आंतकी पैदा कर रहा है और इसलिए सह- अस्तित्व संभव नहीं है।

15 साल पहले इन देशों में बिन लादेन और अल कायदा के लड़ाके अरब भूमि के चेहरे थे। इन देशों ने बिन लादेन की चुनौती को विदेशी दुश्मन के नाते लिया। दूर के वे कबीलाई दुश्मन थे जिन्होने अमेरिका के खिलाफ उसकी जंगखोरी के कारण नफरत पाली हुई थी। जार्ज डब्ल्यू बुश- टोनी ब्लेयर ने जब अफगानिस्तान-पाकिस्तान के तालिबानियों को दुश्मन मान कर उनके खिलाफ सेना उतारी थी तो अमेरिका-यूरोप के लिए वह एक जंग थी ।

वह मानसिकता आज बदली है। क्यों? वजह अमेरिका-योरोप के समाज को लगा यह सदमा है कि उनके अपने मुस्लिम नागरिक जिहादी हुए है। इन देशो को अफगानिस्तान, नाईजीरिया, यमन, सीरिया, लीबिया, इराक में खलिफाई राज का सपना पाले जेहादियों की चिंता जो है सो है उससे अधिक चिंता यह है कि उनके घर में होम ग्रोन याकि घर में पैदा हुए रेड़िकल इस्लाम के जिहादी है! इन योरोपीय देशों को पता ही नहीं था कि उनके घर में जिहाद का सुषुप्त ज्वालामुखी बना हुआ है। जो ब्रिटेन में, अमेरिका में पैदा हुए है और जिनके घर-परिवार ने दो-दो,तीन-तीन पीढ़ियों से ईसाईयत की सभ्यता-संस्कृति के असर में सांस ली है, उसमें भी यदि बगदादी के खलिफाई सेनानी है, तो ऐसा तो फिर मजहब की बदौलत ही है।

तभी पश्चिम अब वैसा नहीं है जैसा दस,पद्रह साल पहले था। खलिफाई इस्लामी स्टेट के लिए ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी आदि देशों से गए मुस्लिम नौजवानों ने योरोप और अमेरिका की सोच की बुनियाद बदली है। इन देशों के नेताओं, नियंताओं और थिंक-टैंक से ले कर मीडिया सब में बतौर धर्म इस्लाम की समग्रता से स्केनिग हो रही है। इनका धर्म पर फोकस है। उस फोकस में एक छोर पर डोनाल्ड ट्रंप है तो दूसरे छोर पर हिलेरी क्लिंटन, केमरान या पुतिन है। हां, पुतिन को डोनाल्ड ट्रंप से कम न माना जाए। चेचेन्या के जेहादियों को पुतिन और रूसी नेताओं ने जैसे कुचला है और सीरिया पर बमबारी करते हुए तुर्की को उसने जैसे हडकाया हुआ है वह पुतिन और रूस की इस्लाम सोच का प्रमाण है।

ये सब मानने लगे हंै कि इस्लाम वैसा नहीं है जैसा वे सोचे बैठे थे। इस्लाम में कुछ ऐसी बात है कि न्यूयार्क में जन्मा,औरलेंडा में पढ़ा-लिखा-कामकाजी बना अफगान लडका भी वैसा व्यवहार करेगा जैसा खैबर के दर्रे के मदरसे में तैयार हुआ आंतकी लड़का करता है। परिवेश, माहौल भले अफगानिस्तान का हो या अमेरिका का, बुनावट और सोच क्योंकि मजहबी है तो सोचना होगा कि ऐसे मजहब को कैसे हैंडल किया जाए।

अफगानिस्तान-पाकिस्तान के मदरसे से तैयार तालिबानी और अमेरिका के औरलेंडो के मुस्लिम नौजवान मुतिन की एक सी हकीकत जैसे उदाहरण अमेरिका और पश्चिमी देशों के अनेक है। इन चेहरों पर जब विचार होता है तो अपने आप इस्लाम की स्केनिग होने लगती है और फिर पूरे समुदाय को ले कर बहस छिड़ती है कि इनका क्या करे!

जाहिर है ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, जर्मनी, स्पेन आदि योरोपीय देशों और अमेरिका में आज वह सोचा जा रहा है जिसकी उन्होने खुद कल्पना नहीं की थी। सोचते-सोचते बहस को इस मुकाम पर पहुंचा दिया है कि मुसलमान को अमेरिका में, जर्मनी में नहीं आने दिया जाए। उन पर निगरानी रहे। अमेरिका में सुझाव यहां तक है कि हाथ, गले या पांव पर पट्टा बांध कर निगरानी करनी पड़े तो हर्ज नहीं है। क्यों अफगान मुतिन को एफबीआई ने शक के बावजूद ओझल होने दिया?

सो इस्लाम की स्केनिग के साथ योरोप और अमेरिका में यह राय बनी है कि जो चलता आया है वह नहीं चलेगा। अब इस्लाम के प्रति एक नीति बने। न गोलमोल बात और न इधर-उधर की बात। तभी डोनाल्ड ट्रंप बतौर नायक राष्ट्रपति उम्मीदवार बन गए है।

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