कांग्रेस का डूबता जहाज और सत्ता बिहीन नेतृत्व की बेचारगी !


कांग्रेस में राहुल गांधी की ताजपोशी की सुगबुगाहट के बीच पांच राज्यों में विद्रोह का तूफ़ान उठ खड़ा हुआ है ! इन पांच राज्यों में से चार राज्य तो ऐसे हैं, जहाँ अगले दो वर्षों में चुनाव भी हैं । विद्रोहियों की एक ही शिकायत है, केन्द्रीय नेतृत्व के साथ संवादहीनता !

अभी कल की ही बात है, त्रिपुरा में कांग्रेस के 10 विधायकों में से छः ने तृणमूल कांग्रेस का दामन थाम लिया और हालत यह बनी कि कांग्रेस वहां मुख्य विपक्षी पार्टी का तमगा भी लुटा बैठी ! अब तक नेता प्रतिपक्ष रहे सुदीप रॉय बर्मन भी पार्टी छोड़ने वालों में शामिल थे !

उत्तराखंड में विभाजन का शोर भी थमा तो तब, जब वहां कोर्ट ने हस्तक्षेप किया, अन्यथा तो सरकार जा ही चुकी थी । हाल ही में उत्तराखंड कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय ने सार्वजनिक रूप से कहा कि अगर शीर्ष नेतृत्व ने पार्टी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा जारी रखी तो प्रदेश में कांग्रेस का बैसा ही हश्र होगा जैसा कि केंद्र में संप्रग सरकार का हुआ था । ध्यान देने योग्य बात है कि उपाध्याय को मुख्यमंत्री हरीश रावत का नजदीकी माना जाता रहा है, और उनका बयान राज्य में बदलते समीकरणों का संकेत है ।

कई लोगों का मानना है कि उपाध्याय राज्यसभा टिकट न मिलने के कारण रावत से नाराज चल रहे हैं । राज्यसभा टिकट रावत के एक अन्य वफादार प्रदीप टमटा को दिया गया है । शायद इसकी ही अभिव्यक्ति करते हुए उपाध्याय ने कहा कि सरकार में बैठे लोगों को कार्यकर्ताओं की आवाज सुनना चाहिए । क्योंकि मुख्यमंत्री स्वयं भी एक कांग्रेस कार्यकर्ता ही है अतः उन्हें कार्यकर्ताओं के मन को समझना चाहिए ।

जब उनसे यह पूछा गया कि वे अपने विचारों को सार्वजनिक क्यों कर रहे हैं, उपाध्याय ने कहा कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं को पता तो होना चाहिए कि उनका अध्यक्ष उनके लिए लड़ रहा है। आप और हम सब जानते हैं कि दिल्ली में बैठे बड़े नेताओं ने कार्यकर्ताओं के लिए कितना काम किया है । 

लगातार कौने में बैठे बैठे उकता चुके अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव गुरुदास कामत ने स्तीफा देकर मुंबई में डूबती कांग्रेस की तली में एक और बड़ा छेद कर दिया । कामत का इस्तीफा मुंबई कांग्रेस अध्यक्ष संजय निरूपम के साथ लम्बे समय से चली आ रही उनकी लंबी लड़ाई का नतीजा माना जा रहा है । कई लोगों का यह भी मानना है कि वे इस बात से भी आहत थे कि राहुल का सम्पूर्ण समर्थन संजय निरुपम के साथ रहा ।

मेघालय में भी असंतुष्ट विधायक और नेता आलाकमान की प्रतिक्रिया के इंतजार में दुबले हो रहे थे ! लम्बे इंतज़ार के बाद कहीं जाकर आज कांग्रेस नेतृत्व ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सचिव भूपेन बोरा को अगरतला भेजा है ! वे विभाजन के बाद की स्थिति का जायजा लेंगे । 

मेघालय कांग्रेस के अध्यक्ष डी डी लपांग ने कहा कि उन्होंने विधायकों के विचारों से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल जी को अवगत करा दिया है और मुख्यमंत्री मुकुल संगमा के खिलाफ विद्रोह को रोकने के लिए उठाये जाने वाले कदमों का इंतज़ार कर रहे हैं ।

नई पार्टी के गठन की घोषणा के बाद अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने अनुसूचित जनजाति मोर्चे के अध्यक्ष अजीत जोगी को उनके पद से हटा दिया है । हालांकि कांग्रेस महासचिव और छत्तीसगढ़ के प्रभारी बी के हरिप्रसाद ने अजीत जोगी के जाने को "अच्छा छुटकारा" बताया है । किन्तु लम्बे समय तक कांग्रेस की बागडोर संभाले रहे जोगी अंततः कांग्रेस को ही नुक्सान पहुचाएंगे यह तो जाना माना तथ्य है । 

पिछले दो वर्षों में कांग्रेस छोड़ने वाले शीर्ष नेताओं की लंबी सूची है - हरियाणा में चौधरी बीरेंद्र सिंह, तमिलनाडु में जयंती नटराजन और जी के वासन; बोचा सत्यनारायण और डी श्रीनिवास आंध्र प्रदेश में, उत्तराखंड में विजय बहुगुणा, अरुणाचल प्रदेश में कलिखो पुल, महाराष्ट्र में कामत, असम हिमंत बिस्वा सरमा, छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी और बेनी प्रसाद वर्मा उत्तर प्रदेश में।

पार्टी भले ही जाहिरा तौर पर इन बाहर गए नेताओं को ज्यादा तबज्जो न प्रदर्शित करे, किन्तु आतंरिक चर्चाओं में दिल का गुबार फूट ही निकलता है, जैसे कि वरिष्ठ नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी के मुंह से निकला - '2014 हार के बाद हम उम्मीद कर रहे थे कि पार्टी का पुनर्गठन होगा और पार्टी अपने नए एजेंडे और नए नेतृत्व के साथ कार्यकर्ताओं को यह संकेत देगी कि अपनी गलतियों को सुधारा जा रहा है । किन्तु ऐसा नहीं हुआ है ... किसी न किसी कारण से निर्णय लेने में कमी रह गई । "

लेकिन अभी भी ज्यादा देर नहीं हुई है, उन्होंने कहा । हो सकता है कि देरी का एक कारण आम सहमति न बन पाना हो । किन्तु यह पार्टी के सभी वरिष्ठ सदस्यों की जिम्मेदारी है कि वह सही फैसला लेने के लिए नेतृत्व को सक्षम बनाए । यह एकदम सही समय है जब नेतृत्व को ऊपर से लेकर नीचे जिला और बूथ स्तर तक फेरबदल करना चाहिए, उन्होंने कहा।

इन सब घटनाओं से यह तो पता चलता ही है कि सत्ता की गोंद हटने के बाद सत्ता के आदी रहे कांग्रेसियों को अपने साथ बांधे रखने में पार्टी नेतृत्व को भारी मसक्कत करनी पड़ रही है, और मजा यह कि इतनी मशक्कत के वे बेचारे भी आदी नहीं है !

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