बदला क्या है ? – विजय मनोहर तिवारी


(भारत के सीने में लगातार होने वाले इस्लामी आतंकवाद के गहरे घावों को सदियों से दुनिया ने अनदेखा किया | किन्तु अब जब यूरोप को भी यही दर्द झेलने को विवश होना पड़ रहा है, तब जाकर दुनिया की आँखें खुली हैं | दैनिक भास्कर के युवा सम्पादक श्री विजय मनोहर तिवारी ने एक पुस्तक लिखी है – प्रिय पाकिस्तान | यूंतो पुस्तक में सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर अनेक लेख हैं, किन्तु आतंकवाद पर लिखे इस लेख की छटा कुछ अलग ही है |)
कल्पना कीजिए कि ग्यारहवीं या सोलहवीं सदी में अखबार और इलेक्ट्रानिक मीडिया का अस्तित्व होता तो क्या होता ? अगर हमें उस वक्त की कुछ घटनाओं के कवरेज के वीडियो या सी.डी. आज हाथ लगते तो निश्चित ही पता चलता कि सोमनाथ, अयोध्या, मथुरा और वाराणसी आदि स्थानों पर विशाल मंदिरों के ध्वंस कि कथाएं भी इन दृश्यों से अलग नहीं रही होंगी, जो हमने अमरीका की वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की जुड़वां इमारतों की देखीं | जरा अपने दिमाग में वे दृश्य बनाईये कि कुछ मतान्ध लोग किसी भव्य मंदिर के शिखर पर चढ़े हथौड़े बरसा रहे हैं......, धीरे धीरे मंदिर को ध्वस्त किया जा रहा है, सुन्दर प्रतिमाएं मलबे के ढेर में चारों ओर बिखर रही हैं |
अब जो होता है, उसके लिए दिमाग पर जोर डालने की जरूरत नहीं है, क्योंकि सारे दृश्य टेलीवीजन पर लगातार दिखाई देते हैं | हमने देखा कि कैसे वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला बोला गया और कैसे वे इमारतें ताश के पत्तों की तरह भरभराकर जमीन पर मलबे में बदल गईं | इस विध्वंस के पीछे जिम्मेदार व्यक्तियों के जो चेहरे हमारे सामने आये हैं, कुछ बैसे ही चेहरे उन बीत चुकी सदियों ने देखे होंगे | केवल चहरे बदले हैं, प्रवृत्ति नहीं बदली | यह प्रवृत्ति विध्वंस की है और मानवता के पक्षधरों के लिए सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि यह प्रवृत्ति बाकायदा मजहब से खुराक पा रही है |
तब महमूद था, आज मुशर्रफ और मसूद हैं, कल कोई और होगा | तब औरंगजेब था, आज ओसामा है, कल कोई और होगा | चेहरे बदलते रहे | हैरत की बात है कि दुनिया का कोई मजहब दूसरे मतों को मानने वालों के साथ घृणा और बैर की सीख नहीं देता है, नाही यह सिखाता है कि दुनिया को केवल एक ही चश्मे से देखा जाए और कोई दूसरे चश्मे से देखने वाला मिले तो उसे जहन्नुम रसीद कर दिया जाए | पता नहीं इस्लाम में यह विकृति कहाँ से आ गई ? मजहब के आवरण में यह विकृति अपनी तमाम कुरूपता के साथ अब दुनिया भर में आतंकवाद और मौत की अकल्पनीय मिसालें प्रदर्शित कर रही है | दुर्भाग्यजनक यह भी है कि मजहब की स्याही से मौत की इबारतें लिखने वालों की आलोचना तो दूर की बात है, इस्लाम के अमनपसंद बुद्धिजीवी अपने मजहब के उजले पक्ष को सामने लाने की कोशिश तक नहीं कर रहे हैं, न ही इस करूँ विध्वंसलीला पर उनकी तरफ से शोक के दो शब्द सुनने को मिल रहे हैं | वे केवल मूक दर्शक बने हुए हैं | कहा जाता है कि मौन भी स्वीकृति और सहमति की ही अभिव्यक्ति होता है | क्या बुद्धिजीवी मुसलमानों की चुप्पी को इसी अर्थ में लिया जाए ?
ऐसे में आम धारण यह बन रही है कि जिहाद के नाम पर इस्लाम मूलतः हिंसा और फसाद, हमला और हत्या व आतंक और कब्जे की ओर प्रेरित और प्रोत्साहित करने वाला एक मजहब है, जिसका मूलतः अमन, तरक्की और आपसी प्यार मोहब्बत से कोई लेना देना नहीं है | आतंक की जीती जागती महीनें बाकायदा इस्लाम के नाम पर ही तो तैयार की जा रही हैं | कश्मीर के उस पार पाकिस्तान की आई.एस.आई. की सरपरस्ती में इस घिनौने काम को डेढ़ दशक से कौन अंजाम दे रहा है ?
महमूद सोमनाथ का मंदिर तोड़े, बाबर अयोध्या में मंदिर की जगह मस्जिद बनबाये, तैमूरलंग और नादिरशाह लूटपाट और कत्लेआम मचाएं, औरंगजेब मथुरा और बनारस के भव्य मंदिरों को ध्वस्त करवाए, इधर तालिबान बामियान के बुद्ध पर हमला बोले, ओसामा अमरीका में आतंक मचाये, मस्तगुल कश्मीर में मौत का तांडव रचे या मौलाना मसूद भारत के खिलाफ जहर उगले | ये सारी घटनाएँ एक ही सिलसिले का हिस्सा हैं | एक ऐसा सिलसिला जो बीती पंद्रह सदियों से जारी है | अरब के पार इस्लाम का फैलाव कुछ इसी सिलसिले में हुआ है | तब जिहादियों के हाथों में तलवारें थीं, हथौड़े और बारूद थे, जिनसे तोड़फोड़ और खून खराबे किये जाते थे | जबकि अब विमान हैं, बम हैं, मिसाइलें हैं | एक दुष्प्रवृत्ति के हाथ आकर तकनीक और ज्यादा खतरनाक रूपों में विनाश की परिभाषाएं रच रही है | दुनिया ने देखा कि कितने बीभत्स ढंग से न्यूयार्क और पेंटागन के विनाश को रचा गया | ऐसे में मुस्लिम बुद्धिजीवी बताएं कि जिहाद जैसे शब्द का वास्तविक अर्थ जानने के लिए दूसरे धर्म के अनुयाई किस मदरसे में जाएँ ?
अगर यह मान लिया जाए कि इस्लामी आतंकवादी संगठन जिहाद को गलत ढंग से परिभाषित और क्रियान्वित कर रहे हैं तो क्या बजह है कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान के अनेक मुस्लिम मजहबी नेता खुलेआम उन्हें शह दे रहे हैं और उनकी हाँ में हाँ मिला रहे हैं | यहाँ तक कि अब तो भारत में भी | उनके किये को कहीं भी गलत नहीं ठहराया जा रहा है | राजनैतिक, आर्थिक या सामाजिक मांगों को लेकर होने वाले हिंसक आन्दोलनों से भी यह प्रवृत्ति ज्यादा घातक है, क्योंकि राजनैतिक, आर्थिक या सामाजिक असमाताओं की मांगें पूरी होने पर ऐसे आन्दोलन खुद बा खुद दम तोड़ देते हैं, लेकिन यह तो कभी न ख़त्म होने वाला खूनी सिलसिला है | यह सिलसिला इस कोशिश में जारी रहने के लिए बाध्य कर दिया गया है कि बाक़ी दुनिया को भी हरे रंग में रंगना है | जैसे बाक़ी रंग तो ऊपर वाले ने बनाए ही नहीं हैं | वह हरा रंग बनाकर ही खामोश बैठ गया और हुक्म दे दिया कि दुनिया को इसी रंग में रंग दिया जाए | चाहे भूखों मरो, गोली खाओ, खुद का जीना हराम करो और दूसरे हजारों बेक़सूर लोगों को भी कष्ट देते रहो, दुनिया को जीते जी नरक बना डालो, लेकिन हरे परचम तले दुनिया को लाओ |
अल कायदा, हिजबुल्मुजाहिदीन, लश्करे तोईबा और लश्करे जब्बार ऐसे तमाम संगठन हैं, जो केवल आग फैलाने में एक से बढ़कर एक महारथी हैं | ये सारे संगठन जिहाद नाम के सूत्र में पिरोये हुए हैं और सबकेसब खुद को इस्लाम का झंडाबरदार बताते हैं | जहाँ उनकी चलती है, वहां वे तय करते हैं कि इस्लाम के अनुसार लोगों की जीवन शैली कैसी होनी चाहिए | वे तय करते हैं कि मुस्लिम महिलायें बुरका ही पहनेंगी और गैर मुस्लिम महिलाओं को अपने पहचान चिन्होने के साथ निकलना होगा | वे यह भी तय करते हैं कि कब और कहाँ इस्लाम खतरे में पड़ रहा है और इस आधार पर फिर वे अपने मुजाहिदीनों को तत्काल खून-खराबे पर उतार देते हैं | सरल सा सवाल है कि कश्मीर में इस्लाम खतरे में है या इन अनुयाईयों के कारण इस्लाम ही खतरा बन गया है ? जिसके चलते इस मुल्क की एकता अखंडता को नजर लग गई है |
पता नहीं वह कौन सा मजहब है जो आम आदमी और विकास से जुड़े मुद्दों से दूर रहकर केवल गले रेतने की शिक्षा देता है |
असल मुद्दों से भटके हुए और सोच से दिवालिया इन संगठनों की चले तो अपने आसपास ये जीते जी नरक को आकार दे दें | जहाँ वे हैं, वहां उन्होंने साक्षात नरक ही तो बना रखा है | अकेले एक ओसामा को लक्ष्य बनाने से क्या यह विनाशलीला रुक जायेगी ? क्या जिहाद और जिहाद के रास्ते पर जहरीले दिमाग लेकर खून खराबे पर उतारू मुजाहिदीनों का सिलसिला थम जाएगा ? अगर ऐसा है तो महमूद गजनवी, बाबर व औरंगजेब जैसों के कब्रों में सोते ही यह खूनी सिलसिला भी सदा के लिए उन्हीं नापाक कब्रों में सो जाना चाहिए था, लेकिन इतिहास साक्षी है कि ऐसा नहीं हुआ | आज मुस्लिम देशों या मुस्लिम बहुल इलाकों में सेकड़ों की संख्या में गाजरघांस की तरह फैले इस्लामिक संगठनों में ऐसे हजारों महमूद, तैमूर, बाबर और औरंगजेब भरे हुए हैं, जो न खुद शान्तिपूर्वक जीने में विश्वास करते हैं और ना ही दूसरों को जीने देने में |
उनके दिमागों में बड़ी तरकीब से जहर के बीज बोये जाते हैं | उन्हें मजहब के लिए जीने की नहीं, मरने और दूसरों को लूटने मारने की तालीम दी जाती है | मरने की स्थिति में लालच दिए जाते हैं | सीधे जन्नत के आकर्षक पॅकेज बताये जाते हैं और जीते जी लूट पर मजे करने के लालच दिए जाते हैं | दुनिया का कोई धर्म ऐसी शिक्षा नहीं देता और न ही इसके लिए कोई धन उपलब्ध कराता है, लेकिन यह दुनिया ही अलग है | यहाँ न केवल बाकायदा शिक्षा दी जाती है, बल्कि भरपूर धन भी उपलब्ध कराया जाता है | बरना ये संगठन जीवित किस बूते पर हैं ? उन्हें हथियार कौन देता है ? उन्हें रसद कौन मुहैया कराता है ? उनके महीनों लम्बे प्रशिक्षण की व्यवस्था कौन करता है ? और जो भी यह करता है, उसे क्या नहीं मालूम कि इस निवेश के बदले मिलना क्या है ? प्रेम, करुणा, शान्ति, विकास, अच्छी शिक्षा या बेहतर शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य या बरबादी, बेबसी, घृणा, मौत, पिछड़ापन .... आखिर हासिल क्या होना है ? क्या वे नहीं जानते कि यही धन और यही ऊर्जा वे अपने अपने मुल्कों की और अपने आवाम की रोजमर्रा की परेशानियों को हल करने में लगा सकते हैं ? क्या इससे परमात्मा खुश नहीं होगा ? और जिस ऊपर वाले की खिदमत में वे अपनी जिन्दगी तक दांव पर लगा देते हैं, वह क्या मौत और बर्बादी के ऐसे भीषण दृश्य देखकर खुश होता होगा ?
सवाल यह है कि यह रक्तरंजित सिलसिला आखिर कब तक चलेगा ? आखिर इस सिलसिले का मूल स्त्रोत कहाँ है ? कहाँ से वह भीषण ऊर्जा आती है, जो केवल विध्वंस की ओर ही बहना जानती है ? क्या उसके प्रवाह को किसी अच्छी दिशा में मोड़ा जा सकता है ? क्या उस प्रवृत्ति पर स्थायी प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है, जो लोगों में मजहबी जहर भरती है ? क्या यह संभव है कि कुछ ऐसे उपाय कर लिए जाएँ, ताकि आने वाली सदियाँ वह न देख सके जो बीत चुकी सदियों ने सोमनाथ, अयोध्या, मथुरा और वाराणसी में देखा और हमारी इस बदकिस्मत सदी ने अपनी शुरूआत में ही अमरीका में देख लिया ? सदियों से भारत के सनातन धर्म ने अपने भीतर तमाम मत मतान्तरों के बाबजूद बाक़ी सम्प्रदायों के साथ शान्तिपूर्वक रहना सिखाया है | अकारण या मूर्खतापूर्ण कारणों से मरने मारने का कोई पाठ किसी ग्रन्थ में किसी ने नहीं जोड़ा | धर्मं प्रचार के लिए यहाँ से भी साधू सन्यासी बाहर गए, लेकिन हाथों में तलवार लेकर नहीं, दिल और दिमाग में अपार करुणा और प्रेम लेकर | साफ़ साफ़ शब्दों में जिओ और जीने दो का सन्देश यहीं से प्रसारित हुआ | और केवल दूसरे मनुष्यों को ही जीने देने को नहीं कहा गया, समस्त प्राणियों के सुखी जीवन की कामनाएं की गईं | क्या अब भी दुनिया को इन संदेशों से कोई सीख नहीं लेनी चाहिए ? मरो और मारने दो, मिटो और मिटाने दो की प्रवृत्ति आखिर किस तरह के धर्म की स्थापना दुनिया में करना चाहती है ? क्यों उसे कोई मजहब खुराक दे रहा है ?


दुनिया देख रही है कि बदला कुछ नहीं है | सवाल भी वही हैं, सिलसिला भी वही है और इस खूंरेज सिलसिले का स्त्रोत भी वही है | विध्वंस का यह सिलसिला सोमनाथ, अयोध्या, मथुरा, वाराणसी होकर पाकिस्तान बनवा गया, कश्मीर की घाटी को अशांत कर गया, मुम्बई को धमाके सुना गया, बामियान के बुद्ध को अपमानित कर गया और अब यूरोप तक पहुँच गया | “ईमानवालों” का वह “ऊपरवाला” ही जाने कि इसके अगले निशाने कहाँ हैं ? कमसेकम अब तो अमरीका की समझ में आ जाना चाहिए कि ऐसे मामले किसी भी देश के आतंरिक मामले नहीं हुआ करते और अकेले एक ओसामा का अंत सदियों पुरानी इस समस्या का अंत नहीं है |

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