गांधी वध और डा. राम मनोहर लोहिया – शंकर शरण




गांधीजी की हत्या का उल्लेख इस भोलेपन, या दुष्टता, से होता है मानो हत्या करने वाला पागल जुनूनी था। यह सच नहीं है। स्वयं हत्या के मुकदमे की सुनवाई करने वाले न्यायाधीश जी. डी. खोसला ने बिलकुल उलटा लिख छोड़ा है। वैसे भी, हत्या का कोई मुकदमा कभी भी मोटिव को दरकिनार कर नहीं तय होता। गांधीजी की हत्या की चर्चा में इस बिन्दु को जतन-पूर्वक क्यों छिपाया गया है?

इस प्रश्न की गंभीरता समझने की जरूरत है। उदाहरणार्थ, डॉ. राम मनोहर लोहिया के विचार देखें। उन्होंने लिखा, ‘‘देश का विभाजन और गाँधीजी की हत्या एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक पहलू की जांच किए बिना दूसरे की जांच करना समय की मूर्खतापूर्ण बर्बादी है।’’ यह कठोर कथन क्या दर्शाता है?

लोहिया ने गांधीजी को विभाजन और उस से लाखों लोगों की मौत का सीधा जिम्मेदार माना है। ध्यान रहे, लोहिया गांधी के निकट सहयोगी थे। वे लिखते हैं कि विभाजन होने पर लाखों मरेंगे, यह गांधीजी जानते थे, फिर भी उन्होंने उसे नहीं रोका। बल्कि नेहरू की मदद में कांग्रेस कार्यसमिति को विभाजन स्वीकारने के लिए खुद तैयार किया-इसे लोहिया ने गाँधी का ‘अक्षम्य’ अपराध माना है। 

तब इस अपराध का क्या दंड होता? सब से अच्छा दंड उन्हें अपनी सहज मृत्यु तक जीवित रहने देना था। लेकिन यदि गोडसे ने लाखों हजारों निरीह भारतीयों की मौत का, उन के प्रति विश्वासघात का, बदला लिया; तो इसे सही रूप में तो रखा ही जाना चाहिए! अन्यथा, ऊपर डॉ. लोहिया और क्या कह रहे हैं?

लोहिया के इन शब्दों पर गंभीरता से विचार करें। विभाजन से ‘‘दंगे होंगे, ऐसा तो उन्होंने (गांधीजी ने) समझ लिया था, लेकिन जिस जबर्दस्त पैमाने पर दंगे वास्तव में हुए, उस का उन्हें अनुमान था, इस में मुझे शक है। अगर ऐसा था, तब तो उन का दोष अक्षम्य हो जाता है। दरअसल उन का दोष अभी भी अक्षम्य है। अगर बँटवारे के फलस्वरूप हुए हत्याकांड के विशाल पैमाने का अन्दाज उन्हें सचमुच था, तब तो उन के आचरण के लिए कुछ अन्य शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ेगा।’’

यह लोहिया ने सन 1967 में लिखा था, यानी किसी क्षणिक आवेग में नहीं। बीस वर्ष बाद, सोच-समझ कर, ठंढे दिमाग से। गांधी के प्रति सम्मान का ध्यान रखते हुए उन्होंने उन कटु शब्दों का उल्लेख नहीं किया, जो उन के मन में आए होंगे। किंतु वह शब्द छल, अज्ञान, हिन्दुओं-सिखों के प्रति विश्वासघात, बौद्धिक दिवालियापन, जैसे ही हो सकते हैं। इसलिए, जिस भावना के वशीभूत होकर गोडसे ने गांधीजी को दंडित किया, उस हत्या को गलत मानते हुए भी, उसे जुनूनी हत्यारा नहीं, बल्कि क्षुब्ध ‘भ्रमित देशभक्त’ कहना होगा। यानी, जो स्वयं गांधीजी चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह और ऊधम सिंह जैसों को कहा करते थे।

वैसा न करके नाथूराम गोडसे को मात्र ‘जुनूनी हत्यारा’ या ‘हिन्दू सांप्रदायिक’ घोषित करने में मूर्खता की गई है। बल्कि राजनीतिक चतुराई! दुर्भाग्यवश, हमारे बौद्धिक परिदृश्य पर छाई रही है। जिस किसी को ‘गांधी के हत्यारे’ कहकर निंदित किया जाता है, जबकि विभाजन की विभीषिका से उस के संबंध की कभी जांच नहीं होती। क्योंकि जैसे ही यह जांच होगी, जिसे लोहिया ने जरूरी माना था, वैसे ही गोडसे का रूप भी बदल जाएगा । यदि लोहिया की बातों पर विचार किया जाए, तब गोडसे के प्रति भाव भी सही धरातल पर आएगा, आना चाहिए। गोडसे में कोई पागलपन नहीं, बल्कि देशभक्ति, राष्ट्रीय आत्मसम्मान और न्याय भावना थी, जो अदालत में दिए गए उस के शान्त, विस्तृत बयान से स्पष्ट होता है। हमारे राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग ने गोडसे के साथ न्याय नहीं किया है, यह भी सामने आना चाहिए। 

साभार आज दिनांक 2 अगस्त 2016 के नया इण्डिया में प्रकाशित एक लेख के अंश 

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