कश्मीर की अंतिम हिन्दू रानी



अटल जी ने कश्मीर समस्या के सन्दर्भ में एक जुमला बोला – इंसानियत, जम्हूरियत, कश्मीरियत ! इस जुमले को मोदी जी ने भी लपका और तुर्कीबतुर्की उसे दोहरा दिया ! इंसानियत और जम्हूरियत को तो कभी बाद के लिए रखते हैं, और आईये चर्चा करते हैं कश्मीरियत की ! आखिर है क्या यह कश्मीरियत ? सच कहा जाए तो इसमें निहित है, प्रारम्भ में हिन्दू शैविज्म और बाद के मुस्लिम काल में सूफी रहस्यवाद की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत ! दुर्भाग्य से जुमलेबाजी में कोई भी कश्मीरियों को इसे याद दिलाने का प्रयास नहीं कर रहा, जिस दिन कश्मीरी स्वयं को अपनी विरासत से जोड़ लेंगे वहां अमन चैन शांति खुदबखुद स्थापित हो जाएगी । पर उसके लिए राजनैतिक दलों को सामूहिक प्रयत्न करने होंगे ! पर क्या यह संभव है ?

कई बार मामूली और साधारण दिखाई देनी वाली बातें इतनी बड़ी हो जाती हैं, कि उसका असर पीढ़ियों तक रहता है ! अतः इतिहास को विस्मृत करना अविवेकपूर्ण होता है ! कुछ इसी भावभूमि पर श्री राकेश कौल ने एक उपन्यास लिखा है - The Last Queen of Kashmir ! 

उपन्यास के कथानक का प्रारम्भ तेरहवीं सदी से होता है, जब वैदिक शिक्षा के महान कश्मीरी केंद्र शारदापीठ के प्रमुख संत देवस्वामी ने कश्मीर के सिंहासन के स्वाभाविक उत्तराधिकारी, लद्दाख के राजकुमार रिन्चिना द्वारा हिन्दू धर्म में दीक्षित करने के अनुरोध को बेदर्दी से ठुकरा दिया था, उसी का दूरगामी परिणाम है आज की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ।

राकेश कौल ने अपने इस भव्य ऐतिहासिक उपन्यास में उन दोनों के बीच हुए संवाद का मार्मिक चित्रण किया है, साथ ही इसका वर्णन भी कि किस प्रकार चौदहवीं सदी आते आते इस्लाम के पदार्पण के साथ कश्मीर अराजकता और अव्यवस्था की चपेट में आया और वैदिक सभ्यता का पालना क्षत विक्षत होता गया ।

स्थानीय भाषा के वाक्यांशों के साथ वैदिक श्लोकों के उपयोग ने इस मध्ययुगीन कथानक को अत्यंत सजीव, प्रभावशाली और विश्वसनीय बना दिया है । लेकिन साहित्यिक अलंकरण से अधिक उल्लेखनीय यह है कि कहीं भी लेखकीय कल्पना ने ऐतिहासिक तथ्यों के साथ छेडछाड नहीं की है ! इस कारण वह अधिक वास्तविक प्रतीत होता है ।

पुस्तक में विस्तार से उल्लेख है कि कैसे व्यक्तिगत विश्वासघात, राजनीतिक साज़िश और विध्वंसक धार्मिक अतिवाद के चलते, कश्मीर के मार्गदर्शक सिद्धांत - 'ज्ञान और चेतना के माध्यम से सत्य, सौंदर्य और आनंद' का रूपांतरण संकीर्ण, कठोर और विदेशी कट्टर पंथी विचारधारा में हो गया ।

उपन्यास की नायिका है कश्मीर के राजा रामचंद्र की युवा, सुंदर और व्यावहारिक बेटी कोतरनी, जिसकी आँखों के सामने उसके पिता की हत्या तिब्बती बोथा रिन्चिना द्वारा कर दी गई । सदमे में डूबी कोतरनी को कश्मीर के हितों की रक्षा के नाम पर आंशिक रूप से पश्चाताप में डूबे रिन्चिना से शादी को विवश होना पडता है। लेकिन जल्द ही रिन्चिना को समझ में आ जाता है कि राजकुमारी कोतरनी से विवाह के बाद भी उसे जनस्वीकृति नहीं मिली है, उसे बाहरी ही माना जा रहा है । इस स्थिति को बदलने के लिए वह देवस्वामी के पास जाता है और हिंदू धर्म में दीक्षित करने के लिए आग्रह करता है । देवस्वामी द्वारा अपमानित रिन्चिना चतुर शाह मीर के प्रभाव में आकर इस्लाम को स्वीकार कर लेता है और इस प्रकार कश्मीर में पहला मुस्लिम शासक बनता है।

सौभाग्य से रिन्चिना को धार्मिक गुरु के रूप में उदार सूफी बुलबुल कलंदर प्राप्त होते हैं, जिन्हें कश्मीरी आज भी उनकी दिव्य अंतर्दृष्टि के लिए आदर और सम्मान से स्मरण करते हैं : बुलबुल का नजरिया सार्वभौमिक था, उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि कौन किस मजहब को मानता है, सचमुच इस्लाम में इस तरह के नायाब चमकदार शख्सियत बिरले ही हैं । 

जबकि शाह मीर, जिसने इतिहास के उस मोड़ पर कश्मीर घाटी में इस्लाम का मार्ग प्रशस्त किया, 1313 में अपने रिश्तेदारों और अनुयायियों के साथ स्वदगबर से आया हुआ एक शरणार्थी था ! अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने की राह में सबसे बड़ी वाधा थे, बुलबुल कलंदर जो बहुलवादी परिवेश को मानने वाले थे तथा इस्लाम के आक्रामक तेवरों को सख्त नापसंद करते थे ।

अपनी नकली विनम्रता और चालाकी से शाह मीर धीरे धीरे अपना प्रभाव बढाता गया और राज्य का प्रमुख सेनापति बन बैठा और उसके बाद की कहानी तो वही है, जो आमतौर पर इस्लाम की पहचान है - राजनीतिक हत्याओं का दौर । शाहमीर के वैवाहिक प्रस्ताव को स्वीकार करने के स्थान पर कोतरनी ने भी 17 जुलाई, 1339 को आत्महत्या कर ली और शाह मीर ने कश्मीर में वह मुस्लिम राजवंश स्थापित किया, जिसमें आगे चलकर कुख्यात दुलुचा और सिकंदर बुतशिकन जैसे वंशज हुए जो कश्मीर में हिंदू धर्म को नष्ट कर देने को उद्यत हुए । उसके बाद तो देखते ही देखते महज 100 वर्षों में, कश्मीर का जनसांख्यिकी संतुलन बदल गया था।

आजकल कश्मीर में जो कुछ भी घट रहा है, वह केवल इतिहास दोहराया जा रहा है ।

19 जनवरी, 1990 को दुलुचा और सिकंदर के भूत एक बार फिर कश्मीर में लौट आए। शीतकालीन रात में कश्मीर में मस्जिदों से कानून और व्यवस्था को ठेंगा दिखाते हुए स्पष्ट घोषणा की गई - कश्मीर में अगर रहना है, अल्लाह-ओ-अकबर कहना है, यहाँ क्या चलेगा, निजाम-ए-मुस्तफा; "असी गच्ची पाकिस्तान, बताओ रोअस ते बतानेव सान ( हम पाकिस्तान चाहते हैं, हिन्दू महिलाओं के साथ-साथ, लेकिन उनके पुरुषों के बिना)।

हो सकता है शारदापीठ और बाबा कलंदर की भावना अभी भी मौन रूप में घाटी में मौजूद हो लेकिन मुखर तो शाह मीर और कट्टरपंथी सिकंदर ही है ।

हिंदू शैविज्म और सूफी रहस्यवाद की कश्मीरी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की याद दिलाने की जरूरत है । बेनजीर भुट्टो ने एक बार कहा था कि हमारी पांच हजार साल पुरानी संस्कृति है, कोई तो पूछे कि वह पांच हजार साल पुरानी संस्कृति कौन सी थी ? क्या कश्मीरी स्वयं को अपने 5000 साल पहले के पूर्वजों से जोड़ पाएंगे, जो स्वाभाविक ही हिन्दू ही थे ? केवल और केवल तभी कश्मीर शांत हो सकता है, इसे समझना और उन्हें समझाना जरूरी है । लेकिन यह महज जुमलेबाजी से संभव नहीं !

तो कैसा लगा “कश्मीर की अंतिम रानी” उपन्यास का यह सफ़र ?

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें