कश्मीर पर सरकार का माकूल नजरिया - प्रमोद भार्गव


केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह की दो दिवसीय यात्रा और मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के साथ हुई पत्रकार वार्ता से यह निष्कर्ष आसानी से निकाल सकते हैं कि केंद्र सरकार का जहां कश्मीर पर नजारिया बदल रहा है, वहीं महबूबा भी कट्टरपंथियों और अलगाववादियों के विरुद्ध कड़ा रुख अपनाने को तत्पर दिखाई देने लगी हैं। एक पत्रकार ने जब उनसे प्रष्न किया कि ‘वे 2010 में जब विपक्ष की नेता थीं, तो उन्होंने नागरिकों की मौत का विरोध किया था, किंतु अब सत्ता में आने के बाद बड़े पैमाने पर लोग मारे गए हैं, इस पर आपका नजरिया बदला हुआ क्यों है ?‘ इस प्रश्न को सुनते ही महबूबा उबल पड़ीं और उन्होंने सख्त लहजे में उत्तर दिया कि ‘हिंसा के लिए राज्य के सिर्फ 5 फीसदी लोग जिम्मेदार हैं, जबकि 95 फीसदी अमन चाहते हैं। जो लोग सुरक्षा बलों की कार्यवाही में मारे गए हैं, वे दूध या टाफी खरीदने सेना के पास नहीं गए थे, बल्कि सुरक्षाबलों पर पत्थरों से हमला करने गए थे। दूसरे 2010 में माछिल में फर्जी मुठभेड़ हुई थी, तीन नागरिक मारे गए थे। जबकि इस बार बुरहान वानी समेत तीन आतंकी मारे गए हैं। इसलिए 2010 की तुलना 2016 के हालात से नहीं की जा सकती है।‘ कश्मीर में सरकार फारूख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, मुफ्ती मोहम्मद सईद या फिर कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद की रही हो अलगाववादियों और आतंकियों के विरुद्ध महबूबा जैसा कड़ा और स्पष्ट रवैया किसी का दिखाई नहीं दिया है। इससे लगता है, राज्य सरकार भी पाकिस्तान से आयातित आतंक से आजिज हो गई है, नतीजतन वह अब इस समस्या के स्थाई हल की ओर बढ़ रही है। 

राजनाथ सिंह ने भी मानवीय दृष्टिकोण व नरम रुख अपनाते हुए कहा कि ‘ यदि कश्मीर का भविष्य सुरक्षित नहीं है तो भारत का भविष्य भी सुरक्षित नहीं है।‘ शायद इसीलिए उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की कश्मीरियत, इंसानियत और जम्हूरियत की नीति दोहराने के संकेत दिए। साथ ही स्थानीय नागरिकों की मांग पर ‘पैलेट गन‘ का विकल्प खोजने की बात भी कही। क्योंकि इस बंदूक से निकले छर्रों से कई लोगों की आंखों की रोशनी चली गई है। लिहाजा अब सरकार भीड़ पर काबू पाने के लिए ‘पावा गोले‘ के इस्तेमाल पर विचार कर रही है। ये गोले अश्रु गैस और मिर्ची गौलों से कहीं ज्यादा असरकारी होंगे। इसकी चपेट में आने वाले प्रदर्षनकारी कुछ समय के लिए कुछ भी नहीं कर सकने के लिए अक्षम जैसे हो जाएंगे। इन गोलों का रासायनिक नाम ‘पेलारगोनिक एसिड विनाइल एमाइड‘ है। इन गोलों का परीक्षण पिछले एक साल से सीएसआईआर की लखनऊ प्रयोगशाला की लैब में इंडियन इंस्टीट्यूट आफ टाक्सिकोलाजी रिसर्च द्वारा जारी है। पावा गोलों का उत्पादन मध्य प्रदेश के ग्वालियर में स्थित बीएसएफ की टियर स्मोक यूनिट कर रही है। 

सरकार के इस बदले नजरिए की शुरूआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की जन्मस्थली भाबरा से भटके कश्मीरी युवाओं को एक मार्मिक संदेश देने के साथ कर दी थी। मोदी ने कहा था के ‘मुट्ठीभर लोग कश्मीर की परंपरा को ठेस पहुंचा रहे हैं। वे युवा, जिनके हाथ में लैपटाप, किताब और क्रिकेट का बल्ला होना चाहिए था, उनके हाथ में अपने ही देश के सैनिकों पर हमला बोलने के लिए पत्थर थमाए जा रहे हैं।‘ इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कि महबूबा मुफ्ती ने कहा है कि ‘सुरक्षा बलों की कार्यवाही में मारे गए लोग सेना के निकट दूध या टाफी खरीदने नहीं गए थे।‘ मोदी के सुर में सुर मिलाने का यह नजारिया स्पष्ट संकेत है कि केंद्र और राज्य सरकार समस्या के समाधान की ओर बढ़ रही हैं। 

दरअसल कश्मीरी युवाओं के हाथ में जो पत्थर हैं, वे पाक के नापाक मंसूबे का विस्तार है। पाक की अवाम में यह मंसूबा पल रहा है कि ‘हंस के लिया है पाकिस्तान, लड़के लेंगे हिंदुस्तान।‘ इस मकसदपूर्ती के लिए मुस्लिम कोम के उन गरीब और लाचार युवाओं को इस्लाम के बहाने आतंकवादी बनाने का काम किया, जो अपने परिवार की आर्थिक बदहाली दूर करने के लिए आर्थिक सुरक्षा चाहते थे। पाक सेना के वेश में यही आतंकी अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण रेखा को पार कर भारत-पाक सीमा पर छद्म युद्ध लड़ रहे हैं। कारगिल युद्ध में भी इन छद्म बहरुपियों की मुख्य भूमिका थी। इस सच्चाई से पर्दा खुद पाक के पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल एवं पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई के सेवानिवृत्त अधिकारी शाहिद अजीज ने ‘द नेशनल डेली अखबार‘ में उठाते हुए कहा था कि ‘कारगिल की तरह हमने कोई सबक नहीं लिया है। हकीकत यह है कि हमारे गलत और जिद्दी कामों की कीमत हमारे बच्चे अपने खून से चुका रहे हैं। कमोबेश आतंकवादी और अलगाववादियों की शह के चलते यही हश्र कश्मीर के युवा भोग रहे हैं।‘ अजीज की यह पीड़ा इस्लाम के सच्चे नागरिक की पीड़ा है। 

इन भटके युवाओं को राह पर लाने के नजरिए से केंद्र सरकार, भाजपा और पीडीपी प्रमुख महबूबा में जो बेचैनी दिखाई दे रही है, उससे यह अनुभव किया जा सकता है कि सरकार कश्मीर में शान्ति बहाली के लिए प्रतिबद्ध है। भाजपा के महासचिव और जम्मू-कश्मीर के प्रभारी राम माधव ने भी कश्मीर में उल्लेखनीय काम किया है। उन्होंने भटके युवाओं में मानसिक बदलाव की दृश्टि से पटनीटाप में युवा विचारकों का एक सम्मेलन आयोजित किया। इसे सरकारी कार्यक्रमों से इतर एक अनौपचारिक वैचारिक कोशिश माना जा रहा है। लेकिन सबसे बड़ा संकट सीमा पार से अलगाववादियों को मिल रहा बेखौफ प्रोत्साहन है। जो काम पहले दबे-छुपे होता था, वह खुले तौर पर डंके की चोट होने लगा है। कश्मीर में कुछ समय पहले अलगाववादियों के हुए एक सम्मेलन में आतंकवादियों ने न केवल मंच साझा किया, बल्कि भाषण भी दिए। यही वे लोग हैं, जो युवाओं को सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी के लिए उकसाते हैं। इस पत्थरबाजी में अब तक चार हजार जवान घायल हो चुके हैं। दरअसल राजनीतिक प्रक्रिया और वैचारिक गोष्ठियों में यह हकीकत भी सामने लाने की जरूरत है कि जो अलगाववादी अलगाव का नेतृत्व कर रहे हैं, उनमें से ज्यादातर के बीबी-बच्चे कश्मीर की सरजमीं पर रहते ही नहीं हैं। इनके दिल्ली में घर हैं और इनके बच्चे देश के नामी स्कूलों में या तो पढ़ रहे हैं, या फिर विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों में नौकरी कर रहे हैं। इस लिहाज से सवाल उठता है कि जब उनका कथित संघर्ष कश्मीर की भलाई के लिए हैं तो फिर वे इस लड़ाई से अपने बीबी-बच्चों को क्यों दूर रखे हुए हैं। केवल आम नागरिकों के बच्चों को ही क्यों पत्थरबाजी के लिए उकसा रहे हैं। यह सवाल हाथ में पत्थर लेने वाले युवा अलगाववादियों से पुछ सकते हैं ?

कश्मीर में शान्ति बहाली के लिए अटलबिहारी वाजपेयी की नीति को आगे बढ़ाने की बात नरेंद्र मोदी भी कर चुके हैं। महबूबा मुफ्ती भी यही चाहती हैं। लेकिन उनकी दबी इच्छा यह भी है कि राजनीतिक प्रक्रिया में संभव हो तो अलगाववादियों और पाकिस्तान को भी शामिल कर लिया जाए। किंतु सरकार को चाहिए की वह पाक को तो पूरी तरह नजरअंदाज करे ही, अलबत्ता कांग्रेस समेत जो अन्य महत्वपूर्ण दल हैं, उनको जरूर साथ ले। असंतुष्ट युवा और हुर्रियत नेताओं से भी संवाद कायम करने में कोई हर्ज नहीं है। लेकिन इस बातचीत में यह पूरा ख्याल रखा जाए कि देश की संप्रभुता को खतरे में डालने वाला कोई समझौता न हो ? हां स्वायत्तता में बढ़ोत्तरी औैर रोजगार से संबंधित कोई पैकेज देने या कश्मीर में आईटी कंपनी स्थापित करने के बारे में भी सरकार सोच सकती है ?

दरअसल अटलबिहारी वाजपेयी कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत जैसे मानवतावादी हितों के संदर्भ में कश्मीर का सामाधान चाहते थे। लेकिन पाकिस्तान के दखल के चलते परिणाम शून्य रहा। इसके उलट आगरा से जब परवेज मुशर्रफ पाकिस्तान पहुंचे तो कारगिल में युद्ध की भूमिका रच दी। अटलजी की नीति दो टूक और स्पष्ट नहीं थी। डा मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भी इसी ढुलमुल नीति को अमल में लाने की कोशिश होती रही है। वास्तव में जरूरत तो यह है कि कश्मीर के आतंकी फन को कुचलने और कश्मीर में शान्ति बहाली के लिए मोदी पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव से प्रेरणा लें। वे राव ही थे, जिन्होंने कश्मीर और पंजाब में बढ़ते आतंक की नब्ज को टटोला और अंतरराष्ट्रीय ताकतों की परवाह किए बिना पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह और सेना को उग्रवाद से मुकाबले के लिए लगा दिया। पाकिस्तान को बीच में लाने की इसलिए भी जरूरत नहीं हैं, क्योंकि वहां के आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदिन के सरगना सैयद सलाहउद्दीन ने कश्मीर के मुद्दे के परिप्रेक्ष्य में भारत को परमाणु यूद्ध की धमकी दी है। बुरहान वानी भी इसी संगठन से जुड़ा था। दरअसल आतंक से ग्रस्त होने के बावजूद पाकिस्तान की यह विडंबना है कि उसकी भारत विरोधी रणनीति में आतंकी भागीदार हैं। जब किसी नीति अथवा रणनीति में आतंकी खुले तौर से भागीदार हों तो पाक से भला कश्मीर मुद्दे पर बात कैसे संभव है ?


प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कालोनी
शिवपुरी म.प्र.
मो. 09425488224
फोन 07492 232007


लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।





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