रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा - भाग 5

विश्‍वासघात

प्रयाग की एक धर्मशाला में दो-तीन दिन निवास करके विचार किया गया कि एक व्यक्‍ति बहुत दुर्बलात्मा है, यदि वह पकड़ा गया तो सब भेद खुल जाएगा, अतः उसे मार दिया जाये । मैंने कहा - मनुष्य हत्या ठीक नहीं । पर अन्त में निश्‍चय हुआ कि कल चला जाये और उसकी हत्या कर दी जाये । मैं चुप हो गया । हम लोग चार सदस्य साथ थे । हम चारों तीसरे पहर झूंसी का किला देखने गये । जब लौटे तब सन्ध्या हो चुकी थी । उसी समय गंगा पार करके यमुना-तट पर गये । शौचादि से निवृत्त होकर मैं संध्या समय उपासना करने के लिए रेती पर बैठ गया । एक महाशय ने कहा - "यमुना के निकट बैठो" । मैं तट से दूर एक ऊँचे स्थान पर बैठा था । मैं वहीं बैठा रहा । वे तीनों भी मेरे पास आकर बैठ गये । मैं आँखें बन्द किये ध्यान कर रहा था । थोड़ी देर में खट से आवाज हुई । समझा कि साथियों में से कोई कुछ कर रहा होगा । तुरन्त ही फायर हुआ । गोली सन्न से मेरे कान के पास से निकल गई ! मैं समझ गया कि मेरे ऊपर ही फायर हुआ । मैं रिवाल्वर निकालता हुआ आगे को बढ़ा । पीछे फिर देखा, वह महाशय माउजर हाथ में लिए मेरे ऊपर गोली चला रहे हैं ! कुछ दिन पहले मुझसे उनका झगड़ा हो चुका था, किन्तु बाद में समझौता हो गया था । फिर भी उन्होंने यह कार्य किया । मैं भी सामना करने को प्रस्तुत हुआ । तीसरा फायर करके वह भाग खड़े हुए । उनके साथ प्रयाग में ठहरे हुए दो सदस्य और भी थे । वे तीनों भाग खड़े हुए । मुझे देर इसलिये हुई कि मेरा रिवाल्वर चमड़े के खोल में रखा था । यदि आधा मिनट और उनमें से कोई भी खड़ा रह जाता तो मेरी गोली का निशाना बन जाता । जब सब भाग गये, तब मैं गोली चलाना व्यर्थ जान, वहाँ से चला आया । मैं बाल-बाल बच गया । मुझ से दो गज के फासले पर से माउजर पिस्तौल से गोलियाँ चलाईं गईं और उस अवस्था में जबकि मैं बैठा हुआ था ! मेरी समझ में नहीं आया कि मैं बच कैसे गया ! पहला कारतूस फूटा नहीं । तीन फायर हुए । मैं गद्‍गद् होकर परमात्मा का स्मरण करने लगा । आनन्दोल्लास में मुझे मूर्छा आ गई । मेरे हाथ से रिवाल्वर तथा खोल दोनों गिर गये । यदि उस समय कोई निकट होता तो मुझे भली-भांति मार सकता था । मेरी यह अवस्था लगभग एक मिनट तक रही होगी कि मुझे किसी ने कहा, 'उठ !' मैं उठा । रिवाल्वर उठा लिया । खोल उठाने का स्मरण ही न रहा । 22 जनवरी की घटना है । मैं केवल एक कोट और एक तहमद पहने था । बाल बढ़ रहे थे । नंगे पैर में जूता भी नहीं । ऐसी हालत में कहाँ जाऊँ । अनेक विचार उठ रहे थे ।

इन्हीं विचारों में निमग्न यमुना-तट पर बड़ी देर तक घूमता रहा । ध्यान आया कि धर्मशाला में चलकर ताला तोड़ सामान निकालूँ । फिर सोचा कि धर्मशाला जाने से गोली चलेगी, व्यर्थ में खून होगा । अभी ठीक नहीं । अकेले बदला लेना उचित नहीं । और कुछ साथियों को लेकर फिर बदला लिया जाएगा । मेरे एक साधारण मित्र प्रयाग में रहते थे । उनके पास जाकर बड़ी मुश्किल से एक चादर ली और रेल से लखनऊ आया । लखनऊ आकर बाल बनवाये । धोती-जूता खरीदे, क्योंकि रुपये मेरे पास थे । रुपये न भी होते तो भी मैं सदैव जो चालीस पचास रुपये की सोने की अंगूठी पहने रहता था, उसे काम में ला सकता था । वहां से आकर अन्य सदस्यों से मिलकर सब विवरण कह सुनाया । कुछ दिन जंगल में रहा । इच्छा थी कि सन्यासी हो जाऊं । संसार कुछ नहीं । बाद को फिर माता जी के पास गया । उन्हें सब कह सुनाया । उन्होंने मुझे ग्वालियर जाने का आदेश दिया । थोड़े दिनों में माता-पिता सभी दादीजी के भाई के यहां आ गये । मैं भी पहुंच गया ।

मैं हर वक्‍त यही विचार किया करता कि मुझे बदला अवश्य लेना चाहिए । एक दिन प्रतिज्ञा करके रिवाल्वर लेकर शत्रु की हत्या करने की इच्छा में गया भी, किन्तु सफलता न मिली । इसी प्रकार उधेड़-बुन में मुझे ज्वर आने लगा । कई महीनों तक बीमार रहा । माता जी मेरे विचारों को समझ गई । माता जी ने बड़ी सान्त्वना दी । कहने लगी कि प्रतिज्ञा करो कि तुम अपनी हत्या की चेष्‍टा करने वालों को जान से न मारोगे । मैंने प्रतिज्ञा करने में आनाकानी की, तो वह कहने लगी कि मैं मातृऋण के बदले में प्रतिज्ञा कराती हूँ, क्या जवाब है ? मैंने उनसे कहा - "मैं उनसे बदला लेने की प्रतिज्ञा कर चुका हूँ ।" माता जी ने मुझे बाध्य कर मेरी प्रतिज्ञा भंग करवाई । अपनी बात पक्की रखी । मुझे ही सिर नीचा करना पड़ा । उस दिन से मेरा ज्वर कम होने लगा और मैं अच्छा हो गया ।

पलायनावस्था

मैं ग्राम में ग्रामवासियों की भांति उसी प्रकार के कपड़े पहनकर रहने लगा । देखने वाले अधिक से अधिक इतना समझ सकते थे कि मैं शहर में रह रहा हूँ, सम्भव है कुछ पढ़ा भी होऊँ । खेती के कामों में मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया । शरीर तो हष्‍ट-पुष्‍ट था ही, थोड़े ही दिनों में अच्छा-खासा किसान बन गया । उस कठोर भूमि में खेती करना कोई सरल काम नहीं । बबूल, नीम के अतिरिक्‍त कोई एक-दो आम के वृक्ष कहीं भले ही दिखाई दे जाएँ । बाकी यह नितान्त मरुभूमि है । खेत में जाता था । थोड़ी ही देर में झरबेरी के कांटों से पैर भर जाते । पहले-पहल तो बड़ा कष्‍ट प्रतीत हुआ । कुछ समय पश्‍चात् अभ्यास हो गया । जितना खेत उस देश का एक बलिष्‍ठ पुरुष दिन भर जोत सकता था, उतना मैं भी जोत लेता था । मेरा चेहरा बिल्कुल काला पड़ गया । थोड़े दिनों के लिये मैं शाहजहाँपुर की ओर घूमने आया तो कुछ लोग मुझे पहचान भी न सके ! मैं रात को शाहजहाँपुर पहुँचा । गाड़ी छूट गई । दिन के समय पैदल जा रहा था कि एक पुलिस वाले ने पहचान लिया । वह और पुलिस वालों को लेने के लिए गया । मैं भागा, पहले दिन का ही थका हुआ था । लगभग बीस मील पहले दिन पैदल चला था । उस दिन भी पैंतीस मील पैदल चलना पड़ा ।

मेरे माता-पिता ने सहायता की । मेरा समय अच्छी प्रकार व्यतीत हो गया । माताजी की पूँजी तो मैंने नष्‍ट कर दी । पिताजी से सरकार की ओर से कहा गया कि लड़के की गिरफ्तारी के वारंट की पूर्ति के लिए लड़के का हिस्सा, जो उसके दादा की जायदाद होगी, नीलाम किया जाएगा । पिताजी घबड़ाकर दो हजार के मकान को आठ सौ में तथा और दूसरी चीजें भी थोड़े दामों में बेचकर शाहजहाँपुर छोड़कर भाग गए । दो बहनों का विवाह हुआ । जो कुछ रहा बचा था, वह भी व्यय हो गया । माता-पिता की हालत फिर निर्धनों जैसी हो गई । समिति के जो दूसरे सदस्य भागे हुए थे, उनकी बहुत बुरी दशा हुई । महीनों चनों पर ही समय काटना पड़ा । दो चार रुपये जो मित्रों तथा सहायकों से मिल जाते थे, उन्हीं पर ही गुजर होता था । पहनने के कपड़े तक न थे । विवश हो रिवाल्वर तथा बन्दूकें बेचीं, तब दिन कटे । किसी से कुछ कह भी न सकते थे और गिरफ्तारी के भय के कारण कोई व्यवस्था या नौकरी भी न कर सकते थे ।

उसी अवस्था में मुझे व्यवसाय करने की सूझी। मैंने अपने सहपाठी तथा मित्र श्रीयुत सुशीलचन्द्र सेन, जिनका देहान्त हो चुका था, की स्मृति में बंगला भाषा का अध्ययन किया । मेरे छोटे भाई का जन्म हुआ तो मैंने उसका नाम सुशीलचन्द्र रखा । मैंने विचारा कि एक पुस्तकमाला निकालूं, लाभ भी होगा । कार्य भी सरल है । बंगला से हिन्दी में पुस्तकों का अनुवाद करके प्रकाशित करवाऊँगा । अनुभव कुछ भी नहीं था । बंगला पुस्तक 'निहिलिस्ट रहस्य' का अनुवाद प्रारम्भ कर दिया । जिस प्रकार अनुवाद किया, उसका स्मरण कर कई बार हंसी आ जाती है । कई बैल, गाय तथा भैंस लेकर ऊसर में चराने के लिए जाया करता था । खाली बैठा रहना पड़ता था, अतएव कापी-पैंसिल साथ ले जाता और पुस्तक का अनुवाद किया करता था । पशु जब कहीं दूर निकल जाते तब अनुवाद छोड़ लाठी लेकर उन्हें हकारने जाया करता था । कुछ समय के लिए एक साधु की कुटी पर जाकर रहा । वहाँ अधिक समय अनुवाद करने में व्यतीत करता था । खाने के लिए आटा ले जाता था । चार-पाँच दिन के लिए आटा इकट्ठा रखता था । भोजन स्वयं पका लेता था । अब पुस्तक ठीक हो गई, तो 'सुशील-माला' के नाम से ग्रन्थमाला निकाली । पुस्तक का नाम 'बोलशेविकों की करतूत' रखा । दूसरी पुस्तक 'मन की लहर' छपवाई । इस व्यवसाय में लगभग पांच सौ रुपये की हानि हुई । जब राजकीय घोषणा हुई और राजनैतिक कैदी छोड़े गए, तब शाहजहाँपुर आकर कोई व्यवसाय करने का विचार हुआ, ताकि माता-पिता की कुछ सेवा हो सके । विचार किया करता था कि इस जीवन में अब फिर कभी आजादी से शाहजहाँपुर में विचरण न कर सकूँगा, पर परमात्मा की लीला अपार है । वे दिन आये । मैं पुनः शाहजहाँपुर का निवासी हुआ ।

पं० गेंदालाल दीक्षित

आपका जन्म यमुना-तट पर बटेश्‍वर के निकट 'मई' ग्राम में हुआ था । आपने मैट्रिक्यूलेशन (दसवां) दर्जा अंग्रेजी का पास किया था । आप जब ओरैया जिला इटावा में डी० ए० वी० स्कूल में टीचर थे, तब आपने शिवाजी समिति की स्थापना की थी, जिसका उद्देश्य था शिवाजी की भांति दल बना कर लूटमार करवाना, उसमें से चौथ लेकर हथियार खरीदना और उस दल में बांटना । इसकी सफलता के लिए आप रियासत से हथियार ला रहे थे जो कुछ नवयुवकों की असावधानी के कारण आगरा में स्टेशन के निकट पकड़ लिए गए थे । आप बड़े वीर तथा उत्साही थे । शान्त बैठना जानते ही न थे । नवयुवकों को सदैव कुछ न कुछ उपदेश देते रहते थे । एक एक सप्‍ताह तक बूट तथा वर्दी न उतारते थे । जब आप ब्रह्मचारी जी के पास सहायता लेने गए तो दुर्भाग्यवश गिरफ्तार कर लिए गए । ब्रह्मचारी के दल ने अंग्रेजी राज्य में कई डाके डाले थे । डाके डालकर ये लोग चम्बल के बीहड़ों में छिप जाते थे । सरकारी राज्य की ओर से ग्वालियर महाराज को लिखा गया । इस दल के पकड़ने का प्रबन्ध किया गया । सरकार ने तो हिन्दुस्तानी फौज भी भेजी थी, जो आगरा जिले में चम्बल के किनारे बहुत दिनों तक पड़ी रही । पुलिस सवार तैनात किए फिर भी ये लोग भयभीत न हुए । विश्‍वासघात में पकड़े गए । इन्हीं का एक आदमी पुलिस ने मिला लिया । डाका डालने के लिए दूर एक स्थान निश्‍चित किया गया, जहां तक जाने के लिए एक पड़ाव देना पड़ता था । चलते-चलते सब थक गए, पड़ाव दिया गया । जो आदमी पुलिस से मिला हुआ था, उसने भोजन लाने को कहा, क्योंकि उसके किसी निकट सम्बंधी का मकान निकट था । वह पूड़ी बनवा कर लाया । सब पूड़ी खाने लग गए । ब्रह्मचारी जी जो सदैव अपने हाथ से बनाकर भोजन करते थे या आलू अथवा घुइयां भून कर खाते थे, उन्होंने भी उस दिन पूड़ी खाना स्वीकार किया । सब भूखे तो थे ही, खाने लगे । ब्रह्मचारी जी ने एक पूड़ी ही खाई उनकी जबान ऐंठने लगी और जो अधिक खा गए थे वे गिर गए । पूरी लाने वाला पानी लेने के बहाने चल दिया । पूड़ियों में विष मिला हुआ था । ब्रह्मचारी जी ने बन्दूक उठाकर पूरी लाने वाले पर गोली चलाई । ब्रह्मचारी जी का गोली चलाना था कि चारों ओर से गोली चलने लगी । पुलिस छिपी हुई थी । गोली चलने से ब्रह्मचारी जी के कई गोली लगीं । तमाम शरीर घायल हो गया । पं० गेंदालाल जी की आँख में एक छर्रा लगा । बाईं आँख जाती रही । कुछ आदमी जहर के कारण मरे, कुछ गोली से मारे गए, इस प्रकार 80 आदमियों में से 25-30 जान से मारे गए । सब पकड़ कर ग्वालियर के किले में बन्द कर दिए गए । किले में हम लोग जब पण्डित जी से मिले, तब चिट्ठी भेजकर उन्होंने हमको सब हाल बताया । एक दिन किले में हम लोगों पर भी सन्देह हो गया था, बड़ी कठिनता से एक अधिकारी की सहायता से हम लोग निकल सके ।

जब मैनपुरी षड्यन्त्र का अभियोग चला, पण्डित गेंदालालजी को सरकार ने ग्वालियर राज्य से मँगाया । ग्वालियर के किले का जलवायु बड़ा ही हानिकारक था । पण्डित जी को क्षय रोग हो गया था । मैनपुरी स्टेशन से जेल जाते समय ग्यारह बार रास्ते में बैठ कर जेल पहुंचे । पुलिस ने जब हाल पूछा तो उन्होंने कहा - "बालकों को क्यों गिरफ्तार किया है ? मैं हाल बताऊँगा ।" पुलिस को विश्‍वास हो गया । आपको जेल से निकाल कर दूसरे सरकारी गवाहों के निकट रख दिया । वहाँ पर सब विवरण जान रात्रि के समय एक और सरकारी गवाह को लेकर पण्डित जी भाग खड़े हुए । भाग कर एक गांव में एक कोठरी में ठहरे । साथी कुछ काम के लिए बाजार गया और फिर लौट कर न आया, बाहर से कोठरी की जंजीर बन्द कर गया । पण्डित जी उसी कोठरी में तीन दिन बिना अन्न-जल बन्द रहे । समझे कि साथी किसी आपत्ति में फंस गया होगा, अन्त में किसी प्रकार जंजीर खुलवाई । रुपये वह साथ ही ले गया था । पास एक पैसा भी न था । कोटा से पैदल आगरा आए । किसी प्रकार अपने घर पहुँचे । बहुत बीमार थे । पिता ने यह समझ कर कि घर वालों पर आपत्ति न आए, पुलिस को सूचना देनी चाही । पण्डित जी ने पिता से बड़ी विनय-प्रार्थना की और दो-तीन दिन में घर छोड़ दिया । हम लोगों की बहुत खोज की । किसी का कुछ पता न पाया, दिल्ली में एक प्याऊ पर पानी पिलाने की नौकरी कर ली । अवस्था दिनों दिन बिगड़ रही थी । रोग भीषण रूप धारण कर रहा था । छोटे भाई तथा पत्‍नी को बुलाया । भाई किंकर्त्तव्यविमूढ़ ! वह क्या कर सकता था ? सरकारी अस्पताल में भर्ती कराने ले गया । पण्डित जी की धर्मपत्‍नी को दूसरे स्थान में भेजकर जब वह अस्पताल आया, तो जो देखा उसे लिखते हुए लेखनी कम्पायमान होती है ! पण्डित जी शरीर त्याग चुके थे । केवल उनका मृत शरीर मात्र ही पड़ा हुआ था । स्वदेश की कार्य-सिद्धि में पं० गेंदालाल जी दीक्षित ने जिस निःसहाय अवस्था में अन्तिम बलिदान दिया, उसकी स्वप्‍न में भी आशंका नहीं थी । पण्डित जी की प्रबल इच्छा थी कि उनकी मृत्यु गोली लगकर हो । भारतवर्ष की एक महान आत्मा विलीन हो गई और देश में किसी ने जाना भी नहीं ! आपकी विस्तृत जीवनी 'प्रभा' मासिक पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है । मैनपुरी षड्यन्त्र के मुख्य नेता आप ही समझ गए थे । इस षड्यन्त्र में विशेषताएं ये हुईं कि नेताओं में से केवल दो व्यक्‍ति पुलिस के हाथ आए, जिनमें गेंदालाल दीक्षित एक सरकारी गवाह को लेकर भाग गए, श्रीयुत शिवकृष्ण जेल से भाग गए, फिर हाथ न आए । छः मास के पश्‍चात जिन्हें सजा हुई वे भी राजकीय घोषणा से मुक्‍त कर दिए गए । खुफिया पुलिस विभाग का क्रोध पूर्णतया शांत न हो सका और उनकी बदनामी भी इस केस में बहुत हुई ।

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