प्रवासियों का जमावड़ा नहीं होता राष्ट्र, इसका निर्धारण इसके प्रति अपनत्व रखने वालों से होता है - मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) जी डी बक्शी


जबसे वामपंथियों को एक महानायक कामरेड कन्हैया मिला है, उन्होंने राष्ट्रवाद को लेकर प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में एक जबरदस्त अभियान शुरू कर दिया है, जो प्रकारांतर से भारत को खंड खंड देखने की उनकी चिर अभिलाषा का ही प्रगटीकरण है । कन्हैया गिरफ्तार हुआ और जल्द ही वामपंथी मीडिया के दबाव में छूट भी गया । कुछ वरिष्ठ वकीलों और मीडियाकर्मियों की दलील थी कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में भारत को तोड़ने के जो नारे लगे, या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अफजल गुरू को दी गई फांसी की सजा को हत्या करार दिया गया, वह देशद्रोह नहीं था । क्योंकि उसके कारण कोई हिंसा नहीं भड़की । जल्द ही विजय रथ पर सवार कन्हैया जेएनयू में वापस लौट आया । इसके बाद तो वामपंथी प्रोफेसरों और छात्रों ने देश भर में राष्ट्रवाद की अपनी परिभाषा प्रसारित करना शुरू कर दिया । उनका मानना है कि एक राष्ट्र राज्य वहां बसने वाले लोगों की सामूहिकता है। राष्ट्र राज्य लगातार विकसित या परिवर्तित होते रहते हैं । यहाँ बसने वाले लोग अपनी इह्छानुसार राष्ट्रान्तरण के लिए स्वतंत्र हैं। कश्मीर के लोग अगर साथ नहीं रहना चाहते तो वे बाहर निकलने के लिए स्वतंत्र है। इसी प्रकार नगालैंड, मणिपुर, और मिजोरम भी । जेएनयू के माओवादी समर्थक चाहते हैं कि उन्हें उनकी इच्छानुसार जाने दिया जाये । पर यह पलायन आखिर कहाँ जाकर रुकेगा? कोई इन वामपंथी विचारकों से पूछा जाए कि कल को यदि सहारनपुर, मेरठ, आजमगढ़, हैदराबाद की बस्तियों के लोग या केरल के कुछ हिस्सों के बासिन्दे अलग होना चाहेंगे तो क्या यह संभव होगा ?

इनकी परिभाषा के अनुसार तो राष्ट्र प्रवासी लोगों का जमावड़ा भर है ! क्लेमसन यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर स्टीवन ग्रोस्बी के अनुसार क्षेत्रीय समुदाय से राष्ट्र का जन्म होता है । परंपरागत रूप से उस भूभाग पर रहने वाले लोग, उनकी सांस्कृतिक विरासत राष्ट्र को स्थिरता और निरंतरता प्रदान करने में मुख्य कारक होती है । "फ्रेंच विद्वान अर्नेस्ट रेनन लिखते हैं कि " एक राष्ट्र राज्य आने जाने को स्वतंत्र बासिंदों का नाम नहीं है, यह वहां बसने वाले लोग और विधिवत परिभाषित क्षेत्र होता है।

हम भारतीय हैं, क्योंकि हम भारत के राज्यक्षेत्र में पैदा हुए हैं, हमारे माता पिता भी भारत के नागरिक थे, इसलिए भारत हमारी मातृभूमि है। बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति इसलिए बन सके क्योंकि वे हवाई में पैदा हुए जो अमरीकी राष्ट्र राज्य का हिस्सा है । हैरत की बात हैकि वामपंथी नजरिये में क्षेत्र की राष्ट्र राज्य को परिभाषित करने में कोई भूमिका ही नहीं है । अभेद्य सीमायें जीवन की वास्तविकता है । क्या वामपंथी पासपोर्ट और वीजा के बिना पाकिस्तान या अमेरिका या अन्य किसी भी देश में प्रवेश कर सकते हैं? भारतीय संविधान का सम्मान करने वाला कोई भी नागरिक देश की एकता, अखंडता और संप्रभुता का अपमान करने वाले वामपंथियों का समर्थन नहीं कर सकता ।

अतः स्पष्ट रूप से कहा जा सकता हैकि राष्ट्र उसके भूभाग तथा वहां बसने वाले लोग दोनों से मिलकर बनता है । इन दोनों के बीच एक ऐसा सम्बन्ध है, जिसे समय का प्रवाह नष्ट नहीं कर सकता । साझा इतिहास, संस्कृति, अनुष्ठान और प्रतीकों (ध्वज, गीत-संगीत) के माध्यम से वर्षों में राष्ट्रीय चेतना बनती है । माता पिता अपने वंशजों को विरासत में न केवल जीन, बल्कि सुदूर अतीत से प्रारम्भ हुई सांस्कृतिक विरासत, उनकी भाषा, रीति-रिवाज, धर्म और नागरिकता भी हस्तांतरित करते हैं ! नागरिकता की प्राथमिक कसौटी के रूप में इसे ही मान्यता प्राप्त है । अपने देश की सीमा और उसमें बसने वाले लोगों की रक्षा की खातिर ही सेना के जवान अपने प्राण न्यौछावर करते हैं । आप एक उमर खालिद या एक कन्हैया की सनक पर देश की नई परिभाषा नहीं गढ़ सकते । देशभक्ति अपनी मातृभूमि से प्यार का ही नाम है। इसे वामपंथी लम्पे क्या जानें ?

दुनिया के किसी देश ने अपने आत्म-सम्मान और पहचान को इतने व्यापक नष्ट नहीं किया, जैसा कि भारत में हुआ । दो शताब्दियों के औपनिवेशिक शासन के दौरान योजनाबद्ध ढंग से भारत की एकता और अखिल भारतीय पहचान को नष्ट करने का अभियान चला । 1857 के असफल स्वाधीनता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने अपना शासन बनाये रखने के लिए भारत की कमियों को जाना और उन्हें बढ़ाने का हर संभव यत्न किया । उन्होंने जाति पर भारी जोर दिया। लोगों को तोड़ने के लिए जॉन रिस्ले ने पहली बार 1872 में जाति आधारित जनगणना का आयोजन किया। उन्होंने प्रयत्नपूर्वक मुस्लिम, ईसाई, सिख और दलितों के मन में यह भाव भरा कि उनके पंथ शोषण होता आया है । उन्होंने कहा कि भारत कभी एक राष्ट्र नहीं रहा, यह तो जाति और धर्मों का समुच्चय है, जो सदा एक दूसरे के साथ लड़ते रहे हैं । इसलिए इन युद्धरत जातियों और धर्मों के बीच 'शाही न्याय' हेतु और कानून एवं व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए बाहरी शक्ति की आवश्यकता है। क्योंकि आपस में लड़ने वाले असभ्य भारतीय इस कार्य को करने में पूरी तरह असमर्थ हैं । जब भारत राष्ट्र ही नहीं है, तो राष्ट्रवाद का तो सवाल ही निरर्थक है ।

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रनायकों ने जाति और धर्म से परे एक अखिल भारतीय पहचान बनाने के लिए अथक परिश्रम किया । लेकिन दुर्भाग्य से आजादी के बाद वोट बेंक की राजनीति में उलझे भारत के बौने नेताओं ने गलत दिशा का चयन कर लिया । जिसके कारण भारत और भारतीयता का विचार कमजोर होता गया । उसी का परिणाम है आजकल चलने वाला कम्युनिस्ट कोहराम ! उनकी हिम्मत इतनी बढ़ गई है कि वे खुले तौर पर देश को तोड़ने की अपनी इच्छा जगजाहिर करने लगे हैं । इतना ही नहीं तो वे इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर जायज भी ठहरा रहे हैं । इस महत्वपूर्ण विषय पर एक तर्कसंगत बहस की जरूरत है।

मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) जी डी बक्शी 

gagandeep.bakshi@yahoo.com

सौजन्य: न्यू इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित आलेख का हिन्दी रूपांतर
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