परमेश्वर का मूर्तिमंत रूप प्रकृति - पाश्चात्य और भारतीय विचार में मूलभूत अंतर !




यह कैसा भूमंडलीकरण है, जिसमें बात की जाती है दुनिया को जोड़ने की, जिसमें विकासशील देश कमजोर और आदमी अकेला हो रहा है ! द्रुत विज्ञान (इलेक्ट्रोनिक्स) ने शेष विश्व से जुड़ने के बहाने, इंसान को एक कमरे में बंद कर दिया है ! दरअसल इसी “व्यक्ति” में से होकर तथाकथित उदारीकरण अपना मार्ग बना रहा है ! कुछ नकचढ़े बुद्धिजीवियों ने सम्वेदनशील आम आदमी को हाशिये पर धकेल दिया है ! अब तो कॉपी पेस्ट का जमाना है, बिना धारण के सृजन, बिना पीड़ा के सृजन ! श्रम का गर्व, आवेग का उछाह, कृतित्व की तृप्ति, कम्प्यूटर माउस पर उंगली के स्पर्श में केन्द्रित हो गई है ! हर युवक बिल गेट्स बनना चाहता है, विवेकानंद कोई नहीं ! 

विज्ञान की इस अर्थोंमुखी प्रगति में एक सवाल मुंह बाए खड़ा है ! विज्ञान, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा और संचार के चरमोत्कर्ष के इस युग में हर सुख यहाँ प्राप्त है, पर कितनों को ? खरीदेगा तो वही ना, जिसमें क्रय शक्ति होगी ? मोटा अनुमान है कि इक्कीसवीं सदी के अंत तक विश्व की जनसंख्या बीस अरब से अधिक हो जायेगी ! क्या सबको, आधी को, दसवें भाग को भी ये साधन और सुविधाएँ उपलब्ध होंगी ? जिन्हें प्राप्त नहीं होंगी, उन्हें कभी प्राप्त हो सकती हैं, क्या इसकी संभावना और आशा भी उन्हें होगी ? अगर नहीं, तो उनकी निराशा और साधन संपन्न लोगों के प्रति ईर्ष्या, क्या रूप लेगी, यह एक डरावनी कल्पना है ! 

आज भी अस्सी प्रतिशत लोग सम्पूर्ण उपलब्धियों के साक्षी हैं, भोक्ता नहीं ! गाँव गाँव में फैले टीवी और सिनेमा आकर्षक बस्तुओं का प्रचार कर रहे हैं ! अति संपन्न लोगों के जीवन के भव्य दृश्य उन्हें दिखाये जा रहे हैं, जिनमें से कईयों के पास पहनने को पर्याप्त वस्त्र नहीं है, जिनके मासूम बच्चे कचरे में से व्यंजन ढूंढकर खाने को विवश हैं ! साधनसम्पन्न लोग उनके दुःख और उनकी पीड़ा को साक्षी भाव से देख रहे हैं ! लेकिन क्या साधनहीन लोग भी इसी साक्षी भाव से संपन्न लोगों के सुख को टुकुर टुकुर देखते रहेंगे ? 

इस विषमता के विरुद्ध ही मार्क्स ने एक ठोस बैचारिक अवधारणा को जन्म दिया, किन्तु काल के प्रवाह में वह समा सी गई ! जर्मनी के नाजीवाद, इटली के फासीवाद की परिणति साम्यवादी कन्सट्रेशन केम्पों में हुई ! शोषण समाप्त नहीं हुआ, शोषकों के चहरे बदल गए ! ऐसे में आया डार्विन का सिद्धांत कि “शक्तिशाली ही जियेगा” सरवाईवल ऑफ़ फिटेस्ट ! अब पता नहीं इसमें शक्तिशाली होने का आव्हान था, या कमजोरों को भयाक्रांत करने की मानसिकता ? फ्रायड ने मानवीय जीवन का केंद्र केवल “काम संबंधों” को माना ! इन सब सिद्धांतों में से अगर कुछ ध्वनित हुआ तो वह शब्द था – अनास्था ! वस्तुजगत को ही यथार्थ मानने वाले जगत ने ईश्वर को कालकवलित कर दिया, मार दिया ! 

इस अनीश्वरवाद ने प्राण में ऊर्जा, तरुणाई में प्रेम, मन की करुणा, दया और नेह को भी मार दिया ! जब ईश्वर ही नहीं तो पाप पूण्य की अवधारणा का क्या औचित्य ? डार्विन के द्वारा जिस शक्ति को प्राप्त करने का मार्गदर्शन दिया गया, उसे चाहे जिस प्रकार पाना अंतिम लक्ष्य हो गया ! या फिर फ्रायड ने जिस “काम” को प्रधान तत्व बताया, उसके पीछे लोग पागल होने लगे ! ईश्वर है नहीं, बस ताकतवर बनो, और कामसुख प्राप्त करो, यही जीवन लक्ष्य हो गया ! पशुओं को इंजेक्शन लगाकर उनकी शिराओं से रक्त भी दूध बनाकर चूस लिया जाए, उनकी जीवनी शक्ति समाप्त होती है तो बला से ! उर्वरकों के इंजेक्शन से धरती की सृजन शक्ति का सम्पूर्ण सार चूस लिया जाए, भूजल की अंतिम बूँद भी सोख ली जाए, उसकी जडी बूटियाँ, उसके हरित चारागाह, उसकी मिट्टी की सोंधी खुशबू, उसकी नदियों की निर्मल पवित्रता हर ली जाए, पहाड़ों को खोखला कर दिया जाए, तो ईश्वर हो न हो, धरती का संतुलन तो डोलेगा, ओजोन की परत तो पतली होगी, कौन नष्ट होगा ? परमेश्वर का मूर्तिमंत रूप प्रकृति या आप स्वयं ?


जबकि भारत की चिंतन परम्परा में पुरुषार्थ चतुष्टय अर्थात धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को जीवन का उद्देश्य स्वीकार किया गया है | इसके अनुसार अर्थार्जन के समस्त क्रियाकलाप और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपभोग के कार्य इस प्रकार धर्म की मर्यादा के अनुरूप चलाये जाएँ जिससे कि मनुष्य मोक्ष की दिशा में अग्रसर हो सके | पूंजी और बाजार आधारित अर्थ चिन्तन के स्थान पर धर्म (नैतिकता) आधारित अर्थ चिंतन ही विश्व मंगल का मार्ग हो सकता है | इसी मार्ग पर चलकर समृद्धि और सदाचार साथ साथ द्रष्टिगोचर हो सकते हैं |

वस्तुतः विकास शब्द तब तक अधूरा ही है, जब तक उसके साथ मंगल न जुड़ जाए | अतः हम केवल विकास नहीं, वरन मंगल विकास के पक्षधर हैं | मंगल विकास के लक्ष्य की पूर्ति के तीन प्रमुख मार्ग हैं, “ज्ञान, कर्म और भक्ति” | ये तीनों मार्ग न तो समानांतर हैं और न ही परस्पर विरोधी | अपितु ये एक ही दिशा में आगे बढाने वाले परस्पर सहायक एवं परस्पर पूरक मार्ग हैं | इन तीनों के सम्यक संतुलन एवं समुचित संयोग के आधार पर ही लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है | संक्षेप में ज्ञान के आधार पर भक्तिपूर्वक कर्म ही मंगल विकास की कुंजी है | इसीलिए कहा जाता है कि ज्ञान के बिना कर्म अंधा होता है और कर्म के बिना ज्ञान लंगडा |

ज्ञान से तात्पर्य है, मनुष्य की बुद्धि एवं कौशल को बढाने वाली, उसे विभिन्न प्रकार की जानकारियाँ देने वाली तथा उसके भीतर सद्संस्कार जगाकर उसके आचार विचार और व्यवहार को नियमित और निर्देशित करने वाली सब प्रकार की शिक्षा | इसमें सामान्य शिक्षा से लेकर नैतिक, व्यावसायिक एवं तकनीकी आदि सब प्रकार की शिक्षा सम्मिलित है | किसी भी समाज के ज्ञान का स्तर जैसे जैसे ऊपर उठता है, बैसे बैसे उस समाज के विकास की सम्भावनाओं का भी विस्तार होता चला जाता है |

कर्म देश की श्रम शक्ति के उपयोग को प्रकट करने वाली संकल्पना है | इसका आशय परिश्रम और पुरुषार्थ से है | विकास के लिए आवश्यक है कि समाज की सम्पूर्ण श्रमशक्ति का सर्वोत्तम एवं समुचित सदुपयोग किया जाए, इसे व्यर्थ ही नष्ट न होने दिया जाए | इस द्रष्टि से योग्य कार्य संस्कृति का विकास किया जाना चाहिए |

भक्ति से तात्पर्य है, किसी भी काम को पूर्ण मनोयोग से करना | अनुभव बताता है कि समर्पण भाव से कार्य करने वाला कम समय और कम संसाधनों में भी बेहतर उत्पादन कर सकता है | इसीलिए भारतीय मनीषियों ने भक्ति भावना से काम करने पर जोर दिया | इस भावना से अतिरिक्त ऊर्जा का संचार होता है | भारतीय चिंतन में “सर्वे भवन्तु सुखिनः”, सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय से भी आगे बढ़कर, “सर्व भूत हिते रतः” की बात की गई है | अर्थात समस्त मनुष्यों, प्राणियों, जीव जंतुओं, पेड़ पौधों वनस्पतियों के कल्याण की भावना रखी है | यह अवधारणा वर्ग विशेष या क्षेत्र विशेष के लिए काम न करके समस्त समाज एवं सृष्टि के हित संवर्धन पर जोर देती है | 

प्राचीन भारतीय ऋषियों ने ईषोपनिषद में कहा है –

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंचित जगत्यां जगत |

तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम ||

जो भी है सब परमात्मा का है यह अवधारणा स्वीकार कर लेने पर परमात्मा का कार्य मानकर व्यक्ति अपनी पूरी क्षमता से कार्य भी करेगा और परमात्मा की वस्तु होने के कारण सम्पूर्ण उत्पादन में से अपनी आवश्यकता अनुसार ग्रहण कर शेष को उसी परमात्मा की सृष्टि के प्राणियों के हित में समर्पित कर देने की भावना भी निर्माण की जा सकती है |

“तेन त्यक्तेन भुंजीथा” अर्थात त्याग पूर्वक भोग करने की भावना के कारण ही भारतीय जीवन व्यवस्था में जनकल्याण के विभिन्न काम जैसे कुँए, तालाब, बावडी, नहर, प्याऊ, गौशाला, धर्मशाला, निःशुल्क चिकित्सालय, निःशुल्क पाठशालाएं, बाग़ बगीचे, वृक्षारोपण आदि महत्वपूर्ण संकल्पनाएँ मिलती हैं | इनके माध्यम से समाज में सहज रीति से धन व आय का वितरण होता रहता है और विषमता पर अंकुश लगता है |
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