एक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रचारक और श्रीनगर की हजरत बल दरगाह के खादिमों के बीच रोचक वार्तालाप !


आसान नहीं है संघ प्रचारक होना

एक संघ प्रचारक श्रीनगर के मशहूर खीर-भवानी मंदिर में दर्शन करने गये. दर्शन के पश्चात् जब वहां से लौट रहे थे तो उन्हें हजरत बल दरगाह की जियारत का विचार मन में आया. (कश्मीर के हजरत बल दरगाह के बारे में यह मान्यता है कि उसके अंदर रसूल साहब के दाढ़ी के बाल रखे हुए हैं) साथ चल रहे कार्यकर्ताओं से जब यह इच्छा व्यक्त कि तो उन्होंने कहा, भाई साहब, अभी कुछ ही दिन हुए हैं जब दरगाह हजरतबल में सैनिक कारवाई हुई है और भारतीय सेना और हिन्दुओं को लेकर उनके मन में काफी रोष है, इसलिए हमारे ख्याल में वहां जाना सुरक्षित नहीं है पर प्रचारक जी नहीं माने और वहां जा पहुंचे, सुरक्षाकर्मियों ने जब वहां तिलक लगाये आदमियों को देखा तो उन्हें वहां से वापस जाने को कहा पर प्रचारक जी ने दरगाह के खादिमों को इतल्ला देने को कहा. 

अंततः दरगाह के खादिम बाहर आये, पूछा, आपको क्या चाहिए ?

माथे पर तिलक सजाये संघ प्रचारक जी ने कहा , मैं सनातनी हिन्दू हूँ, मैं न अपना नाम बदलूँगा न अपना पंथ बदलूँगा और न ही मुझे आपकी अरबी, फारसी भाषा आती है पर मैं यहाँ इबादत करना चाहता हूँ, वो भी अपने तरीके से और अपनी भाषा में, तो मेरा प्रश्न है कि क्या मैं यहाँ इबादत कर सकता हूँ? 

दरगाह के खादिमों ने उनसे कहा, देखिये पिछले डेढ़-दो सौ सालों में हमारे सामने यह प्रश्न कभी खड़ा नहीं हुआ, इसलिए हम उत्तर दे पाने में सक्षम नहीं हैं और ये भी अभी नहीं कह सकते कि कुरान और हदीस में इसका उत्तर मिलेगा या नहीं .

प्रचारक जी ने कहा, ठीक है कि यह प्रश्न पहले कभी आपके सामने नहीं आया था पर जब आज ये प्रश्न खड़ा हुआ है तो इसका उत्तर तो ढूंढना पड़ेगा. 

इस पर दरगाह कमिटी के वहां उपस्थित 28 लोग बैठे, आपस में मशवरा करते रहे पर किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पा रहे थे , आखिर संघ प्रचारक उनके पास गए और कहा, 

मैं आपके सामने उपस्थित समस्या के समाधान में कुछ मदद करता हूँ .उन्होंने कहा, कुरान में अल्लाह को रब्बुलआलमीन (सारे आलम का रब) कहा गया है यानि वो जो पूरे आलम का रब है, तो अगर वो पूरे आलम का रब है तो मैं उसके आलम में आता हूँ कि नहीं और अगर आता हूँ तो फिर मुझे उसकी जगह पर इबादत करने का हक है कि नहीं? अगर नहीं है तो फिर आपको किताब बदलते हुए लिखना पड़ेगा कि वो रब्बुलआलमीन नहीं है रब्बुलमुसलमीन (सिर्फ मुसलमानों का रब) है, पर अगर किताब बदली तो शैतान और काफिर कहलाओगे और जो आपके अपने मानने वाले हैं वो ही आपको मार देंगे. 

मेरा दूसरा प्रश्न ये है कि अल्लाह केवल अरबी, फारसी ही समझता है या बाकी जुबानें भी समझता है? इसलिए मेरी भाषा में की गई मेरी इबादत को अगर वो नहीं समझता तो फिर हम तो उससे बड़े हो जायेंगे क्यूंकि हम वो भाषा जानतें हैं जो भाषा वो नहीं जानता. ईश्वर तो उसकी जुबान भी सुनता और समझता है जो गूंगे हैं, जो बोल नहीं सकते, वो तो पशु-पक्षियों की भी जुबान समझता है तो मेरी अपनी जुबान में की गई इबादत को सुनेगा कि नहीं?

ये सुनकर दरगाह कमिटी के लोग फिर इस विषय पर चर्चा में मशगूल हो गये और थोड़ी देर बाद उनमें से एक ने आकर कहा, देखिये आपकी रूहानी बातों को सुनने के बाद हमें लगता है खुदा हमारी सुने न सुने आपकी जरूर सुनेगा इसलिए आपको बेशक अपने तरीके से और अपनी भाषा में यहाँ इबादत की अनुमति है.

संघ प्रचारक अंदर गये, अपनी भाषा में अपने इष्टों को नमन किया, मन्त्र जाप किया और बाहर आ गये तो उनके सामने पूरी कमिटी खड़ी हो गई और कहा कि हमारे दरगाह शरीफ के अंदर हुज़ूर-पाक के मुबारक दाढ़ियों के बाल रखे हुए हैं, जो जियारत के लिए साल में केवल एक बार खुलता है, लाखों की भीड़ दर्शनार्थ उमड़ती है. आप जो भी हैं पर आप अलग हैं इसलिए हमने तय किया है कि हम आपको इन पवित्र निशानियों के दर्शन करवाएंगे.

प्रचारक जी ने उनसे कहा, मैं तो दर्शन / जियारत कर के चला जाऊंगा पर अगर ये बात लीक हो गई कि आपने सैकड़ों वर्षों की परंपरा को तोड़कर एक काफिर को पवित्र दाढ़ियों के बाल के दर्शन करायें हैं तो आपके लिए समस्या खड़ी हो जायेंगी, हो सकता है कोई मजहबी वहशी आपको मार भी दे और आपकी बीबी-बच्चों को अनाथ और बेसहारा बना दे, इसलिए यह रहने दीजिये. पर दरगाह के खादिम नहीं माने तो प्रचारक जी ने उनसे कहा आप दरवाजे को पूरा न खोले, एक हल्का सा झरोखा बना दें मैं दर्शन कर लूँगा और आपकी बात भी रह जायेगी.

इसके बाद जब इन्द्रेश कुमार बाहर निकले तो इस इंसान के सम्मान में दरगाह कमिटी के लोग पंक्तिबद्ध खड़े थे और यह कहते हुए उनका आभार व्यक्त कर रहे थे कि इस आदमी ने उन्हें आज खुदाई रोशनी दिखाई है.जी हाँ ये संघ प्रचारक और कोई नहीं इन्द्रेश कुमार जी ही थे, जिनके मार्गदर्शन में राष्ट्रवादी मुसलमानों का संगठन राष्ट्रीय मुस्लिम मंच गतिशील है ! 

इन्द्रेश कुमार का सारा जीवन ऐसे ही अकल्पनीय गाथाओं से गुथा हुआ है. कश्मीर का आतंकवाद, हजरत बल पर हुई सैनिक कारवाई , माथे पर तिलक और पृष्ठभूमि संघ प्रचारक की, मुस्लिम दरगाह पर अपनी रीति और अपनी भाषा में अपने माबूद के इबादत की जिद इन सबको मिलाइए और बताइए कि पूरी दुनिया में पिछले 1437 सालों के इतिहास में किसने मुस्लिमों के बीच जाकर उनसे ऐसे प्रश्न किये हैं ? और उनके बीच से सुरक्षित और ससम्मान लौटा है? 
(प्रश्न करने की हिम्मत तो शायद सरमद और मंसूर ने की होगी पर करने के बाद वो जिंदा नहीं बचे) 

कहाँ से मिली है उनको यह हिम्मत, हौसला, त्याग, समर्पण, समस्याओं से निकलने का तरीका और व्यापक दृष्टि ? निःसंदेह उत्तर एक ही है – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने गढ़ा है उन्हें और न जाने कितने स्वयंसेवकों को, जो अहर्निश इन पंक्तियों को अपने जीवन में चरितार्थ कर रहे हैं –

तन समर्पित, मन समर्पित और यह जीवन समर्पित,

चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं !

यह संतोषजनक तथ्य है कि इन्द्रेश जी के प्रयत्नों से बड़े पैमाने पर अब भारतीय मुस्लिम समाज के बंधू भी इस भावना में रंगने लगे हैं !


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