1857 की क्रान्ति के 84 वर्ष पूर्व स्वाधीनता की देवी को रक्त का प्रथम अर्ध्य

अविभाजित बंगाल का सिराजगंज ! उसके समीप बारिपुर का नाला बहता है ! ईस्ट इंडिया कंपनी के फौजी गोर देर से उस जंगल में जाने क्या ढूंढ रहे थे तभी उन्होंने देखा कि नाले की तेज धारा में एक फौजी टोप बहता जा रहा है ! उन दिनों भारत में वैसे टोप या हैट गोर अफसर ही पहनते थे ! अंग्रेज ठिठक रहे !

उनके आदेश से कुछ सिपाही नाले में उतरे तथा खोजा कि शायद कहीं और भी कोई चिन्ह मिल जाए, परन्तु और कुछ नहीं मिला सिवाय एक फौजी गोर अफसर के हैट के ! गोरो ने पहचाना यह कप्तान टिमोथी का टोप था ! किन्तु साहब गया कहाँ, कुछ पता नहीं ! युद्ध हुए कई दिन बीत रहे थे ! तभी से कप्तान टिमोथी, सार्जेंट मेजर डगलस को ढूँढा जा रहा था ! बहुत खोजने पर मेजर डगलस का शव मिला, रक्त और कीचड से लथपथ ! तलवार और भले से ही उसे मारा गया था ! यह शव था ईस्ट इंडिया कंपनी के सेनानायक का ! बड़ा गर्व और भरोसा था कंपनी को अपने इस गोर अफसर की वीरता पर, किन्तु विपल्वी सन्यासियों ने सम्मुख - समर में केवल भालों, वाणों और तलवार के बल पर मैदान मार लिया ! गोरे न केवल परास्त हुए, वरन मारे गए और जो बचे, उन्हें भागने और प्राण बचाने के लाले पड गए !

एक और गोरों की तोपें, बंदूकें, रिवाल्वर और बम थे, दूसरी और अश्वारोही विप्लवी वर सन्यासी ! घोड़ों, बैलगाड़ियों पर यह चलते थे, धनुषबाण - तलवारों - भालों, दसी बंदूकों और कुछ तोपों का भी सहारा इन्ह था ! ये सब अपना घरबार तजकर दासता और दमन से जूझने निकल पड़े थे ! देश को ही उन्होंने एकमात्र देवता मानकर अपना सब कुछ उसी के चरणों में होम कर दिया था ! चार-चार, छः-छः हजार के दलों में वे कंपनी की फौज पर छापा मारते, काटते-पीटते और पिट्ठुओं को लूटकर फिर से घने जंगलों-पहाड़ों में लुप्त हो जाते थे ! गोर बहुत त्रस्त थे इन सन्यासी क्रांतिकारियों के क्रियाकलापों से ! अनेक सन्यासी दलों के पास देसी बंदूकें और छोटी तोपें भी थी !

कंपनी इन दिनों (1773) गावों में जमींदार बना रही थी, विरोधी-विद्रोही राजे-रजवाड़ों को निर्मूल कर रही थी, क्यूंकि वे ईस्ट इंडिया कंपनी की न तो दासता स्वीकार करने को तैयार थे, न उनके संकेतों पर नाचकर इस देश में उनकी जड़ जमाने को ही तैयार हो सके ! अतः कंपनी ने उनकी जागीरें जब्त करके अपने पिट्ठू नए-नए सरगना खड़े किये ! उन्हें भूमियाँ ही नहीं, पूरे-पूरे गावों की मालगुजारी उगाहने के अधिकार दिए ! विप्लवी सन्यासी इन जमींदारों और नवाबों से कर वसूल कर आगे बढ़ जाते थे, न देने पर लूट लेते थे ! कंपनी के लिए यह बहुत बड़ा सिरदर्द बन बैठा था ! पूरे बंगाल, बिहार, मध्य भारत और उत्तर भारत तक इन सन्यासियों का संगठन विप्लव मंत्र गुंजाता घूम रहा था ! इनमे मुस्लिम सूफी फ़कीर भी शामिल थे ! भवानी पाठक, देवी चौधरानी, रानी भवानी, हनुमंतगिरी, जरवालगिरी, दरयानगिरि , मोतिगिरी, सन्यासी दर्पदेव, मूसा शाह, मजनू शाह सहित कई अन्य अपने सशस्त्र दलों के साथ गोरी फौजों को नाकों चने चबबाते घुमते रहे !

मिदनापुर, वीरभूमि, विष्णुपुर, घाटशिला, नयाग्राम, बाँकुड़ा, लालगढ़, मयना, रामगढ़, झाडग्राम, काशीजोड़ा, पटना, रंगपुर, जलपाईगुड़ी, कूच बिहार, जमालपुर, अतिया, मिर्जापुर, जलेश्वर, गढ़वेता आदि अनेक नगरों-गावों में गोरों से विप्लवी सन्यासी-सेना के जमकर युद्ध हुए जिनमे गोरों की और से कैप्टेन एडवर्ड, मेजर डगलस, कैप्टेन टिमोथी, कैप्टेन टामस, लेफ्टिनेंट कीथ, मि. बोनट विप्लवी सन्यासियों के हाथों मारे गए ! कैप्टेन मार्टिन ह्वाईट, कंपनी एजेंट मि. केली, ले. मोरिसन, के.रेनेल, मि. रिचर्ड, के. डी. मेकेंजी, के. नूडसन, मि. केलसाल, के. जोन्स, के. स्टुअर्ट, मि. विलियम्स, मि. जूलियस मीहाफ आदि अंग्रेज अफसरों को सन्यासियों ने क्रांतिकारी युद्धों में छठी का दूध याद दिला दिया ! इनमे रामपुर बोआलिया कोठी के अंग्रेज अफसर मि. बोनट को बंदी बनाकर सन्यासी दल ने पटना भेज दिया जहाँ उसे मृत्युदंड दिया गया ! ईस्ट इंडिया कंपनी की ढाका में जो कोठी थी, उस पर विप्लवी सन्यासियों का ही ध्वज फहराता था ! के. रेनेल और रिचर्ड को सन्यासी-दल ने युद्ध में घातक रूप से घायल किया ! ले. मोरिसन, के. एडवर्ड को आमने सामने की लड़ाई में सन्यासी दल ने धूल चटाई ! के. टिमोथी इसी सेना में था जिसका शव तो नहीं मिला, किन्तु गोरों को उसका विलायती हैट बहते नाले में मिला !

सरल सच्चे विप्लवी 

१७७३ की जनवरी के प्रथम सप्ताह में बंगाल स्थित बगुड़ा जिले के अंग्रेज कलेक्टर मि. हाच को सूचना मिली कि सन्यासी-दल ने दिन-दहाड़े छापा मारकर चौगांव क्षेत्र के जमींदार के सरिश्तेदार को पकड़ लिया है ! ये तीन हजार सन्यासी उसको बंदी बनाकर शेरपुर में डेरा डालकर बैठ गए ! शेरपुर-बगुड़ा के बीच छः कोस की दूरी है ! शीघ्र ही दो हजार सशस्त्र सन्यासी और भी उनसे जाकर मिल गए ! इनके साथ सैकड़ों घोड़े थे और 80 बैलगाड़ियों पर छोटी तोपें, देसी बंदूकें, तलवारें, बर्छे, भाले आदि शस्त्रास्त्र भरे थे ! ईस्ट इंडिया कंपनी के जो सिपाही जिले में तैनात थे उनका सामर्थ्य न था वे इन पांच हजार सन्यासियों का सामना करें ! इसलिए ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों ने अपने अधीनस्त जमींदारों के पक्ष में दूत भेजकर सन्यासियों से ज्ञात किया कि किस शर्त पर वे सरिश्तेदार को, जिसे 'नायब' कहते थे, मुक्त करेंगे ? यह बात उसी वर्ष (सन १७७३) की 8 जनवरी की है ! सन्यासी दल न कहा - "जो लगान जमींदार ने गाँवों का वसूला है वह हमें समर्पित कर दो तो हम नायब को छोड़कर आगे चले जायेंगे !" कंपनी के अधिकारी मान गए ! जमींदार न नगद चांदी के १२०० रुपये सरकारी कोषागार से निकलवा कर सन्यासी-दल को भेंट किये !

कितने सरल-सच्चे थे ये विप्लवी दल ! कोई रक्तपात नहीं, जनता को उन्होंने छुआ तक नहीं ! जनता से कोई झगडा नहीं ! मान्यता उनकी यही है कि कंपनी का नियुक्त किया गया जमींदार गाँवों का लगान क्योँ वसूलता है ? उसे अधिकार क्या ? और अंग्रेज स्वामी कैसे बन गया ?

यह वारेन हेस्टिंग्स का समय था ! प्रतिदिन उसे जिले जिले से कंपनी के गोरे कलेक्टर पत्र पढ़ाते थे कि "पूरे बंगाल-बिहार में सन्यासी-दल कंपनी की सत्ता को चुनौती देते घूम रहे है और हम असहाय हो गए है ! सभी जिलों में इन विप्लवी सन्यासियों का आतंक कंपनी की सत्ता पर हावी है ! कंपनी के कर्मचारी भयभीत है !"

'आनंद मठ' और 'वन्दे मातरम्'

वारेन हेस्टिंग्स ने कंपनी से सेना उन क्षेत्रों में सन्यासियों से युद्ध के लिए भेजी ! उधर लगान के पैसे पाकर सन्यासी दल शिवगंज उतर गया ! हेस्टिंग्स के आदेशानुसार के. एडवर्ड तीन कंपनी सेना सजाकर जब रंगपुर जिले तक पहुंचा तो उसे पता चला कि कोई सन्यासी दल चिलमारी के जमींदार सहित तीन व्यक्तियों को बंदी बनाकर मधुपुर के वन में ठहरा हुआ है ! इस दल ने १३०० रुपये उनसे मालगुजारी के प्राप्त किये तथा उससे उसी जंगल में एक विशाल मंदिर की नींव डाली ! दूसरी और से के. स्टुअर्ट और के. जोन्स गंगा नदी के मार्ग से शिवगंज की दिशा में बढे ! सूचना मिली की छः हजार सन्यासी लेकर बैरागी मोतिगिरी मैमन सिंह पहुँच रहा है, वहीँ बैरागी दरियानागिरी की सन्यासी सेना भी पड़ाव डाले है ! २० जनवरी को जाफरशाही क्षेत्र के जमींदार से सन्यासियों ने १६०० रुपये मालगुजारी के बलात प्राप्त किये ! दरियानगिरी के साथ पांच हजार सन्यासी थे ! इस कार्य को विप्लव न मानकर यदि केवल लूट की घटना बता देना हो तो प्रश्न उठेगा कि पांच हजार सन्यासी इतना परिश्रम करके पचासों मील की यात्रा का कष्ट उठाकर केवल १६०० रुपये की वसूली करने और वह भी एक जमींदार तक ही क्योँ सीमित रहेंगे, विशेषकर जबकि वह जमींदार अंग्रेजों का आज्ञापालक हो ? लूट का ही उद्धेश्य हो तो वे जमींदार के परिवार से लाखों रूपये की धन संपत्ति, जेवर आदि क्योँ न लूटते ? किन्तु अंग्रेजों के तत्कालीन किसी भी प्रलेख (दस्तावेज) से ऐसे प्रमाण उपलब्ध नहीं होते ! यह भारत की विप्लव-श्रंखला का कितना गौरवास्पद प्रसंग है जो सिद्ध करता है कि विप्लवी सन्यासी, जिन्ह आधार बनाकर बंकिमचंद्र चटर्जी ने 'आनंद मठ' जैसा सर्व प्रसिद्द और देशभक्तों के लिए प्रेरणास्पद उपन्यास लिखा, 'देवी चौथरानी' लिखा और जिस क्रान्ति से वन्दे मातरम् जन्मा, उस क्रान्ति के पुरोधा वे भगवावेषी क्रांतिकारी कितने ऊंचे चरित्र के थे ! धन के लिए गाँव की स्त्रियों को कभी हाथ नहीं लगाया ! गाँवों में रात्री भी व्यतीत नहीं की ! जंगलों में ही रेन बसेरा करनेवाले यह देशभक्त माता के मंदिर भी उन जंगलों-बीहड़ों में ही बनाते थे और उनसे स्वतंत्रता-संग्राम की, तदर्थ सर्वस्व समर्पण की प्रेरणा ग्रहण करते थे !

आगे जब बंगाल में अरविन्द घोष,भगिनी निवेदिता, सखाराम गनेस्ग देउस्कर, वारीन्द्र घोष ने गाँव-गाँव में 'आनंद मठ' की शाखाएं-प्रशाखाएँ स्थापित की तो वहां भी उन आदि-विप्लवी सन्यासियों का ही आदर्श मूर्त हुआ ! कच्चे फर्श पर मिटटी की एक अनगढ़ मातृ-प्रतिमा बनाकर उनक चरणों में उन नव विप्लवियों ने केवल जवाकुसुम ही नहीं चढ़ाये वरन समर्पित कर दिए अपने ऊर्जस्वित युवा जीवन ! जीवन का सुख-सौभाग्य और सपने सब उन 'आनंद-मठों' की उस मृण्मय मूर्ती को 'माँ' कहकर जिस सहजता से वह अर्पण कर सके, उस जीवन दर्शन की ठीक से विवेचना इतिहास में अभी हुई नहीं ! 

अनेक क्रांतिकारियों ने अपने नाम भी 'आनंद-मठ' के आधार पर रख लिए थे ! उस आदि-विप्लवी चरित्र को पूर्वाग्रह से मुक्त-मन हो समझने की आज और आगे भी आवश्यकता रहेगी ! दिखाई देता है कि केवल बंगाल-बिहार ही नहीं, पंजाब, राजस्थान, संयुक्त प्रांत, तमिलनाडु, आंध्र, दिल्ली आदि सब प्रदेशों में उन्ही सन्यासी दलों की प्रेरणा और आदर्श क्रांतिकारी साथों (काफिलों) को अनुप्राणित और प्रेरित करते रहे है ! कारण, लगभग सभी क्रांतिकारी दल बंकिम-चन्द्र का 'आनंद मठ' पढने का चाव रखते थे ! इस उपन्यास को अंग्रेज सरकार ने प्रतिबंधित कर रखा था ! सन्यासी-विप्लव बाद के सभी क्रांतिकारियों का आधार या अधिष्ठान बना क्यूंकि विप्लवी चरित्र, फिर चाहे वे खुदीराम बोस हो या कन्हाई लाल, राजस्थान के प्रताप सिंह बारहठ हो या पंजाब के करतार सिंह सराबा या भाफत सिंह, महाराष्ट्र के बासुदेव फडके हों, चाफेकर बंधू हों या अनंत कान्हेरे, आंध्र-तमिलनाडू के राम राजू हों या मद्रास क़ वंचि अय्यर ! इन सभी आत्म बलिदानी सपूतों का आदर्श इसी प्रवत्ति से ओतप्रोत रहा कि देश को अपना सबकुछ देना ही देना है, प्रतिदान में लेना कुछ नहीं ! भरी जवानी में ऐहिक सुखोपभोग तथा इच्छाओं आकान्क्षाओं को आग लगाकर बलि-पथ पर अग्रसर होना बिना निर्वेद के संभव नहीं ! वेदान्त और गीता के सारतत्व को तरुण जीवन में इस प्रकार धू-धू जलते हुए चरितार्थ करने की परंपरा पंक्ति प्रति पंक्ति उन क्रांतिकारी दलों में मिलती है ! यही कारण है कि बंगाल के विप्लवी जनों के घरों से पुलिस को तलाशी में बम बनाने की विधि प्राप्त होती थी, वहीँ वेदान्त-दर्शन की पोथी भी हाथ लगती थी ! तब अंग्रेज गुप्तचर पुलिस अधिकारी बयान देते थे कि क्रांतिकारी सरकार को भ्रमित करने के लिए वेदान्त और गीता की पुस्तकें रखते है ! परन्तु यह अंग्रेजों का केवल भ्रम था ; वे स्वयं भ्रम में थे !

"आमि वज्राधारिते'

दरअसल क्रांतिकारियों के इस जीवन-दर्शन को, निर्वेद (वैराग्य) को, निष्काम त्याग-भावना को समझ पाना उनक लिए क्या, हमारे देश के बड़े सयाने लोगों के लिए भी कठिन ही रहा है ! विप्लवी गाते थे :

"आमि मरण आजि वरण करिब
शरण तबु ना चाइ,
आमि नयन आजि के दमन करेछि
अश्रु ताहाते नाइ |
शत वेदना आमार कामना
आजि के लांचना सुखे बहबि,
तबु शरण कभुना मागिब
आमि वज्र धारिते चाई
झंडा-प्रलय-लय |"
अर्थात - में आज मृत्यु को कंठ लगाऊंगा, आश्रय मुझे नहीं चाहिए ! आज आखों का मैंने दमन कर रखा है ! उनमे अश्रु नहीं है ! सौ-सौ वेदनाओं की में आज कामना करता हूँ ! लांछना भी सुख से सह लूँगा किन्तु तब भी शरण नहीं मांगूंगा ! मुझे वज्र धारण करने की आकांक्षा है, उन्चास पवनों वाले प्रलय-झंडा से मैंने सम्बन्ध जोड़ लिया है !'

यह बंगला कविता किसकी है, वह नाम अज्ञात है ! इसे 'युगांतर' वृत्तपत्र ने उस समय छापा था जब बंग भंग आन्दोलन के दिनों में 'मानिकतला बम केस' का मुक़दमा अरविन्द घोष, वारिंद्र घोष, हेमचन्द्र, उपेन्द्र, उल्लासकर दत्त आदि पर चल रहा था ! यह कविता बताती है कि सन्यासी-क्रान्ति के बाद के क्रांतिकारी भी किस दर्शन ('फिलासफी') से उत्प्रेरित, प्रभावित थे और वे कहाँ से जीवनी-शक्ति ग्रहण करते थे ! क्या था उनका प्रेरणा-स्त्रोत ?

आज चतुर्दिक जो अकर्मण्यता, पलायन और नैराश्य की स्थिति छायी दिखती है तो 'आदि-विप्लवी' वे सन्यासी बरबस जैसे मेघ-दलों को चीरकर स्मृति के क्षितिज-पटल पर आ खड़े होते है और ह्रदय पुकार उठता है - "सन्यासी ! तुम कहाँ हो ? हे जीवनव्रती योगी ! तुम कहाँ मिलोगे ?" अस्तु !

१७७३ की जिस घटना का उल्लेख यहाँ किया है, उसके पूर्व सन १७७२ के दिसंबर महीने में भी सन्यासी-दल ने रंगपुर जिले में भावानीगंज की कचहरी लूट ली थी ! उसके बाद के.टामस की सेना तथा विप्लवी सन्यासियों में श्यामगंज में संग्राम हुआ !

इस युद्ध में गोरों की फौज में जो भारतीय सैनिक थे, उनकी सहानुभूति सन्यासियों के साथ इस सीमा तक थी कि जब गोरों ने कहा - "बागियों पर तोप दागो" तो हिन्दू तोपचियों ने स्पष्ट अवज्ञा कर दी ! गोले छोड़ने से मुकर गए ! यही नहीं, गाँव के किसान भी, जो हथियार उनके हाथ लगा, लेकर, फौज से भीड़ गए ; सन्यासी दल का साथ दिया ! क्रांतिकारी इतिहास के उस आदियुग का यह बहुत ही महत्वपूर्ण अध्याय है ! जो गोर प्राणभय से भागकर इतस्ततः जंगल में लुप्त हो गए थे, किसानों ने टोह लेकर उन्हें विप्लवी सन्यासियों को सौप दिया और जो भी अंग्रेज या भारतीय सैनिक गाँव में दिखा, उसे भी उन्होंने सन्यासी दल के सुपुर्द किया ! उनकी बंदूकें रखवा ली ! कैसा साहस था, कैसा उत्साह ! वे किसान अनपढ़ ही थे, किन्तु शत्रु-मित्र की परख थी उन्हें और देश की दासता के प्रति वे सजग थे !

विजयी सन्यासी 

इस संग्राम में गोरे हारे ! उनका मुखिया के. टामस सन्यासी दल के हाथों मारा गया ! वारेन हेस्टिंग्स को इस हार ने बौखला दिया ! उसने बिहार से सन्यासियों के विरुद्ध नयी सेना भेजी ! परन्तु अगले संग्राम में भी सन्यासी विप्लवी विजयी रहे, गोरों ने मुंह की खायी ! हार पर हार ! सन्यासी आगे बढे !

जनवरी के अंत में ३५०० सन्यासियों ने जरवालगिरि के नेतृत्व में अलामसिंह क्षेत्र में धावा बोला, अंग्रेजों के आज्ञापालक रामाप्रसाद राय और उनके सरिश्तेदार किंकर सरकार ने मालगुजारी नहीं दी तो उनके भवन से वह धनराशि सन्यासियों ने बलपूर्वक प्राप्त की, परन्तु आभूषण नहीं छुए ! न किसी को मारा !

हेस्टिंग्स को दिन की दिन सूचना मिल रही थी ! वह हतप्रथ था ! अंत में उसने के. एडवर्ड को आगया दी कि "सन्यासी-दल विपुल है ! उससे टकराना घातक है ! लौट आओ !" उसने यह भी लिखा कि "पलटन के हिन्दुस्तानी सैनिक विश्वास के योग्य नहीं रह गए है ! वे बागियों से मिल गए है या आगे मिल सकते है !" किन्तु सन्यासी भी कच्ची गोली नहीं खेले थे, व्यूह रचना करके उन्होंने चारों दिशाओं से के. एडवर्ड, मेजर डगलस और के. टिमोथी को दबा रखा था ! गोरे उनका घेरा नहीं तोड़ सके और सन्यासी उन्ह धकेलते गए ! फलतः एडवर्ड और डगलस अपनी एक टुकड़ी लेकर जिधर राह मिली, भाग चले ! सेना से हट गए ! सन्यासियों ने उनका पीछा किया, ललकारा ! किन्तु वाह रे पलायन-वीर ! भागते जा रहे है ! एक सन्यासी ने फैंककर भाला चलाया, मेजर डगलस ढेर हो गया ! तब तक एक सन्यासी ने उसे खड्ग से काट डाला ! वे के. टिमोथी को पकड़कर जीवित ही खीच ले गए ! हेस्टिंग्स का अनुमान ठीक ही निकला, सन्यासियों के आक्रामक दलों से डगलस, टिमोथी सरीखे उच्च सैन्य अधिकारी भागकर भी न बच सके ! उसी के. टिमोथी का विलायती टोप नाले में मिला था !

रक्त का अर्ध्य-दान

ईस्ट इंडिया कंपनी की यह लज्जास्पद पराजय जब वारेन हेस्टिंग्स को विदित हुई तो वह चिढ गया और चूंकि मिदनापुर की इस पलटन में नायब सूबेदार जयराम भी लढाई में शामिल था, अतः सारा क्रोध हेस्टिंग्स ने उसी पर उतार दिया ! उसने गोर कलेक्टर को लिखा -"जयराम को तुरंत पकड़ कर जनरल के हवाले कर दो !"

जयराम चौदहवी बटालियन का नायब सूबेदार था ! मिदनापुर के अंग्रेज कलेक्टर के. फारवेस ने उसे पकड़ मंगाया और जनरल के सुपुर्द कर दिया ! फौजी अदालत बैठी ! जयराम की बन्दूक रखवा ली गयी ! पेटी उतरवा ली गयी ! कठोर पहरे में उसका कोर्ट मार्शल हुआ ! उस पर आरोप लगाया गया कि "वह सन्यासी दलों से मिल गया है और कंपनी की सेना की हार के लिए विशेष रूप से उत्तरदायी है !" जयराम को तोप के मुंह से बाँध दिया गया ! गोला दगा और मांस व रक्त के लोथड़े आकाश में बिखर गए ! अंग्रेजी दासता से स्वातंत्र्य के लिए किसी भारतीय सैनिक द्वारा अपने रक्त का शायद यह प्रथम अर्ध्य था !

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