क्रांति की अलख जगाने वाले हिंदुत्व-निष्ठ पादरी “ब्रह्मबांधव उपाध्याय”

उन दिनों भारत की राजधानी कलकत्ता हुआ करती थी एवं अंग्रेज प्रायः यह कहते हुए नहीं अघाते थे कि “कलकत्ते में हर वास्तु (खाने-पीने) की बहुत सस्ती है ! यहाँ आनंद है ?” यहाँ पर पराधीनता लादने वाले अंग्रेजों का यह आनंद जिन लोगों को रात दिन कांटे की भांति चुभता था उन्ही में से एक थे ब्रह्मबांधव उपाध्याय ! यह उस समय २७ रुपये पाते-स्वरुप साथ रखकर इंग्लैंड गए थे ! पहले हिन्दू ही थे परन्तु बाद में विचार आया कि संसार में सत्य का साक्षात्कार शायद अन्य मतों का मनन चिंतन और अभ्यास किये बिना संभव न होगा, अतः आप ईसाई पथ के ग्रन्थ पढ़ते पढ़ते एक दिन गिरजाघर गए और वहां रोमन केथोलिक मत ग्रहण कर लिया ! पादरी बनकर देश में अनेक वर्षों तक ईसाई प्रचार में व्यस्त रहे, परन्तु उनके उस प्रचार-कार्य में हिन्दू धर्म के प्रति कहीं भी ईर्षा अथवा विरोध का भाव नहीं होता था ! फिर न जाने किन कारणों से, शायद विदेशी ईसाई पादरियों के कठमुल्लेपन तथा असहिष्णुतावश ये पादरी महोदय स्वयं ही ईसाई मत से विक्षुब्ध हो उठे और तब उनका आचार एक अत्यंत कट्टर वैष्णव हिन्दू से भी कहीं अधिक कठोर परिलक्षित होने लगा ! वे पुनः हिंदुत्व-निष्ठ हो गए और हिंदुत्व की ही भावना के आधार पर भारत से अंग्रेजों की दासता छिन्न करने में लग गए !

ईसाई मत में जाते समय ही वे सन्यासी बन गए और भगवा वस्त्र धारण करके घूमते रहते थे ! उन्होंने प्रयास किया कि देश में राष्ट्रीयता के प्रसार के लिए विश्व विधालय स्थापित हों, जो राष्ट्रीय शिक्षा का केंद्र बनें ! इसी उद्देश्य से बहुत श्रमपूर्वक बोलपुर में एक पाठशाला चलाई, नाम रखा ‘ब्रह्मचर्य विद्यालय’ ! स्वयं अध्यापन-कार्य प्राराम्भ किया ! यह सन १९०२ की बात है ! तभी जुलाई के आरम्भ में उन्हें समाचार मिला कि स्वामी विवेकानंद का अंत निकट है ! तुरंत बेलूर मठ पहुंचे ! कहते थे, “यह दु:संवाद राह चलते मुझे कलकत्ते में मिला था ! मैंने सोचा, जिस महापुरुष ने अजस्र फिरंगी-विजय का जीवन-प्राण कर रखा है, उसके समीप में अवश्य खड़ा रहूँ !”

खूंटा और रस्सी 

उसी महीने (सन १९०२ में) ४ जुलाई को स्वामी विवेकानंद ने संसार से विदा ली ! पादरी ब्रह्मबांधव स्वामी जी की मृत देह के पास से हेट तो निश्चय किया – ‘स्वामीजी नहीं रहे ! फिर भी जहाँ तक उनके ध्येय का प्रश्न है, में निरुपाय, निकम्मा बन कर नहीं बैठूँगा ! उनके फिरंगी-विजय के प्राण को में अपने जीवन में जगाकर सक्रीय रहूँगा !’ वह युग बंगाल में विपिनचंद्र पाल और अरविन्द घोष का था ! पादरी ब्रह्मबांधव ने कहा – “पाल और अरविन्द का जागरण-कार्य है भद्रलोक के लिए, जो बहुत पढ़े-लिखे है ! लेकिन मेरा कार्य है सर्वसामान्य भारतवासी को उठाकर स्वतंत्रता के पथ पर ला खड़ा करना ! जो केवल अक्षर-ज्ञान ही रखते है, उन्हें भी हमें साथ लेना होगा !’

इसके लिए उन्होंने साधारण बोलचाल की भाषा, वैसी ही चुटीली शैली अपनाई ! आपने एक लेख में बताया- “सावधान ! इस देश का शासक आज म्लेच्छ है ! रोजी रोटी के लिए, झूठे सम्मान और पद प्रतिष्ठा के लिए म्लेच्छ भाषा (अंग्रेजी), म्लेच्छ बोली रटनी पढ़ती है, उन्ही के जैसा रहन-सहन बनाना पढता है ! इससे क्या अपना धर्म बच पा रहा है ? विदेशी विज्ञान में दक्ष होकर देश को समृद्ध बनाना ठीक है, लेकिन हिन्दू अवश्य बने रहो ! भले ही कुछ भी करो, कुछ भी सीखो, परन्तु अंग्रेजों की सभ्यता-संस्कृति का अनुशरण करने से सर्वनाश हो जाएगा ! उदरपूर्ति के लिए विदेशी भाषा ऊपरी मन से भले ही पढ़ लो यह काम धर्म की ग्लानि किये बिना भी साध्य होगा ! तदनुसार अपना आचार विचार भी दिखावे के रूप में थोडा उन्ही के जैसा रंग लिया तो कोई हानि नहीं, परन्तु मन-प्राण हमारे अछूते ही रहे !”

यह जागरण कार्य केवल भारत में ही करते रहने से तो पूरी नहीं होती, अतः वे सन १९०२ के अक्टूबर महीने में इंग्लैंड चले गए ! सोचा, स्वामी विवेकनद ने भी तो विदेशों में प्रवास करके भारतीय ज्ञान की अलख जगाना आवश्यक समझा था ! जब स्वामी जी नहीं रहे तो उनकी मरण शैय्या के समीप जो निश्चय किया था उसे पूर्ण करने के लिए उसी वर्ष ऑक्सफ़ोर्ड में जो तीन प्रवचन ब्रह्मबांधव ने किये, उनके शीर्षक थे –‘हिन्दू समाज-विज्ञान’, ‘हिन्दू नीति-शास्त्र’ तथा ‘हिन्दू धर्म में ईश्वरवाद’ !

और वे कितने अपरिग्रही थे, कितने त्यागमूर्ति कि विदेश यात्रा के समय भी जेब में रखे केवल २७ रुपये ! सन्यासी को अधिक रुपये रखने की स्पृहा कब होती है ! अगले वर्ष सन १९०३ में वे इंग्लैंड से भारत लौट आये, कैम्ब्रिज विश्वविधालय का प्राध्यापक पद त्याग दिया क्यूंकि उन्हें बंधन में पड़ी मातृभूमि पुकार रही थी ! भारत अंग्रेजों के बूटों के नीचे कराह रहा था, तड़प रहा था ! फिर वे कैसे कैम्ब्रिज में भाषण देते रहने में संतोष कर लेते ? ब्रह्मबांधव ने विलायत का वह जो महिमामय पद तिनके की बहती त्याग दिया, उस काल में इतना बड़ा त्याग क्या सामान्य घटना है ? आज भारत की प्रतिभा विदेशों में पैसे के लिए बिकती है, यह एक सामान्य बात है और इसमें लोग अपने ऐहिक जीवन की सार्थकता-धन्यता मानते है !

अग्निपथी पत्रिका 

आगे ब्रह्मबांधव जी ने सोच-विचारकर सन १९०५ के 7 अगस्त को ‘संध्या’ नाम की पत्रिका प्रकाशित की ! स्वतंत्रता का ध्येय लेकर छपने वाली यह हिन्दू पत्रिका मानी गयी ! कालान्तर में सन १९०६ से छपने वाले अरविन्द घोष के इंग्लिश दैनिक ‘वन्दे मातरम्’ और भूपेन्द्रनाथ दत्त के ‘युगांतर’ की तुलना में ब्रह्मबांधव उपाध्याय की ‘संध्या’ पत्रिका कहीं अधिक आग्नेय मानी जाती थी ! अंग्रेज, अंग्रेजियत और अंग्रेजी शासन का उग्र विरोध तथा साथ ही हिन्दू विचार-प्रवाह को जिस प्रकार निर्भीक भाव से ‘संध्या’ मुखरित करती थी वह अन्यतम था ! ‘वन्दे मातरम्’ और ‘युगांतर’ भी उससे पिछड़े लगते थे ! अंग्रेज शासन यह कैसे सहन कर सकता था ! ‘संध्या’ में ब्रह्मबांधव के साथ एक ईसाई सिन्धी पादरी भी आ गए थे अवैतनिक रूप में, नाम था अणिमानन्द ! और भी चार लोग सम्पादकीय कार्य में सह्योगरत थे, नाम थे- पांच कौड़ी बनर्जी, बलाई देव शर्मा, नरेन्द्र नाथ सेठ तथा मोक्षदा चरण समाध्यायी !

जहाँ तक बंगाल में विप्लवपंथी पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के इतिहास की बात है ‘संध्या’ इस प्रकार की प्रथम पत्रिका थी ! ‘वन्दे मातरम्’ का पहला अंक निकला था सन १९०६ के 7 अगस्त को और ‘युगांतर’ बंगला दैनिक का पहला अंक छपा था इसके पांच महीने पूर्व, मार्च सन १९०६ में ! यह बात कम लोगों को विदित है कि ‘वन्देमातरम’ के प्रकाशन में भी ब्रह्मबांधव का प्रयास उल्लेखनीय रहा ! उनके इस काम में सहायक थे हरिदास हालदार ! इसी समय कर्जन ने बंगाल के दो टुकड़े कर दिए ! तब इन तीनों पत्रों ने ‘बंग-भंग आन्दोलन’ को वह आग दी कि अंग्रेज बौखला गए ! बाद में वे राजधानी कलकत्ता से उठाकर दिल्ली ले गए तथा ‘बंग-भंग’ को निरस्त करना पड़ा ! इन तीनों पत्रों पर राजद्रोह के मुकदमे चले ! ब्रह्मबांधव उपाध्याय, विपिनचंद्र पाल, अरविन्द घोष और स्वामी विवेकानंद के अनुज भूपेन बाबू (भूपेन्द्रनाथ दत्त) मुकदमे में फांसकर अदालती कटघरों में ला खड़े कर दिए गए ! विपिनचंद्र पाल को छः माह का सश्रम कारावास मिला, भूपेन्द्रनाथ दत्त को डेढ़ वर्ष का कारावास और ब्रह्मबांधव उपाध्याय ने तो अपनी सांस ही बंदी के रूप में अस्पताल में तोड़ी !

बम जमा करने की साख 

उस समय ब्रह्मबांधव की ‘संध्या’ का रूप निराला था ! स्वयं अपनी लेखनी से ब्रह्मबांधव ने लिखा था- “जो बम बन कर तैयार है, उनकी क्षमता और विस्फोटक भयंकरता अति प्रबल है ! आवश्यक है कि अब प्रत्येक देशानुरागी उन बमों को अपने यहाँ ले आयें !” जिन दिनों ब्रह्मबांधव कलकत्ते से बाहर प्रवास पर जाते थे, तब ‘संध्या’ का सम्पादन भार वे अरविन्द घोष के अनुज वारिंद्र घोष के ऊपर छोड़ जाते थे और फिर वारिंद्र ‘संध्या’ में कितना ही उग्र लिखें, वापस आकर उन लेखों को पढ़ते पढ़ते ब्रह्मबांधव प्रसन्न ही होते थे ! कहते थे “ बहुत ठीक लिखा है !” वारिंद्र घोष आदि प्रारंभ में ब्रह्मबांधव उपाध्याय की विचारधारा को ‘हिन्दू समाजवाद’ बताते थे जो बंग-भंग के युग में उग्र विप्लववाद में परिणत हो गया !

‘संध्या’ में आग उगलने के आरोप में ब्रह्मबांधव उपाध्याय जब बंदी बनाए गए और उन्हें अदालत जाने की नौबत आई तो उन्होंने विलक्षण तेजस्विता बरती ! बोले- “कोई जाओ और मेरे लिए एक यज्ञोपवीत तो ले आओ ! एक धोती भी लाना न भूलना ! यही पहनकर में अंग्रेज जज के सामने जाऊँगा ! सन्यासी के भगवा वेश का अनादर उसकी अदालत में न होने दूंगा, उसे वहां नहीं पहनूंगा !”

वही हुआ ! पादरी महाशय के लिए यज्ञोपवीत आया, धोती आई और उसी वेशवूषा में वे अदालत में पधारे ! नित्य का उनका जो भगवा परिधान था, उसे उन्होंने आवास पर ही उतार कर रख दिया ! अदालत से लौटे तो सफ़ेद धोती और जनेऊ उतार दिए- पहन लिया तो फिर से वही नित्य कषाय वेश ! वे आजीवन ब्रह्मचारी रहने का वृत लेकर संन्यास की और आये थे और अनेक आपदाएं, दमन तथा यातनाएं झेलकर भी उसका प्राणप्रण से निर्वाह किया !

चिरविदा 

उन पर मुक़दमा चल ही रहा था, कि वे अत्याधिक रूग्ण हो गए ! तब उन्हें साथियों ने कलकत्ते के कैम्बेल हास्पिटल में ले जाकर भर्ती करा दिया ! उन्ही दिनों एक साथी ने पुछा –“उपाध्याय जी ! किस चिंता में है ?”

उन्होंने शांत स्वर में कहा – “अब चिंता काहे की ! भगवान् के घर से आमंत्रण का सन्देश आ रहा है ! जेल में फिरंगी मुझ पर हुक्म चलाकर अपना रोब दिखायेंगे, वह विवशता मुझे सहन न होगी !”

साथियों ने इसे उनका मात्र क्षोभ समझा, किन्तु अगले दिन उन्हें समाचार मिला कि ब्रह्मबांधव महाशय इस संसार में नहीं है ! स्वतंत्रता और देश की अखंडता की वेदी पर किसी सम्पादक का वह प्रथम बलिदान था ! उनकी मौन व्यथा-कथा आज भी देश को झकझोर कर जगा रही है कि “सब कुछ पढना, कहीं भी रहना, कुछ भी करना, किन्तु हिन्दू बने रहना !”     


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