यह तो कमाल हो गया ? यूपी चुनाव में सभी दल पहुँच गए राम की शरण में - प्रमोद भार्गव


उत्तर-प्रदेश में विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे निकट आ रहे हैं, वैसे-वैसे राजनीतिक दलों की गुलाटियां देखते ही बन रही है । भाजपा तो सदा से राम नाम की माला जपती ही रही है, अतः केंद्रीय पर्यटन मंत्री महेश शर्मा ने अगर अयोध्या में राम-लला के दर्शन करने के बाद रामायण संग्रहालय बनाने की घोषणा की तो लोगों को ज्यादा अचम्भा नहीं हुआ ! किन्तु इस बार सत्तारुढ़ समाजवादी पार्टी ने भी रामनामी चादर ओढ़ कर अयोध्या में रामकथा के पात्रों और घटनाओं पर आधारित एक अंतर्राष्ट्रीय वैचारिक उद्यान (थीम पार्क) बनाने का अंतिम निर्णय लिया है। इसके पहले खाट-सभा आयोजन के दौरान राहुल गांधी भी अयोध्या की यात्रा कर हनुमान गढ़ी के दर्शन कर चुके हैं। 

चूंकि राम-मंदिर का मुद्दा फिलहाल सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है, इसलिए मंदिर निर्माण की तो कोई दल खुले रूप में बात नहीं कर रहा है, लेकिन अयोध्या में राम के बहाने जिस तरह से भाजपा के अतिरिक्त कांग्रेस और सपा भी सक्रियता दिखा रही हैं, उससे लगता है कि ये दल राम नाम की माला जपते हुए चुनावी वैतरणी पार करने में लग गए हैं, जिससे भगवान राम के प्रति धार्मिक अस्था रखने वाले मतदाताओं को लुभाया जा सके।

हाल ही में महेश शर्मा ने अयोध्या में कहा है कि संस्कृति मंत्रालय अयोध्या में 25 एकड़ भूमि में रामायण संग्रहालय बनाएगा। इसी में राम-लक्ष्मण सीता के वनगमन और फिर सीता हरण व राम-रावण युद्ध के स्थलों से जुड़ा एक पथ भी बनाया जाएगा। जिससे लोगों को इस संग्रहालय में आकर यह पता चल सके कि राम ने किन-किन कठिन रास्तों से गुजरते व संघर्ष करते हुए लंका पर विजय पाई। इस संग्रहालय के लिए पहले 50 करोड़ रुपए का बजट प्रावधान किया गया था, किंतु बाद में इस राषि को बढ़ाकर 175 करोड़ रुपए किया गया और अब 225 करोड़ कर दिया गया है। हालांकि अभी तक इस संग्रहालय के लिए राज्य सरकार ने जमीन आवंटित नहीं की है। यह उम्मीद भी कम ही है कि चुनाव घोषणा होने से पहले जमीन आवंटित हो जाए ! इस लिहाज से यदि चुनाव के बाद भाजपा उत्तर-प्रदेश की सत्ता में आती है, तब तो इस संग्रहालय के स्वप्न के साकार होने की उम्मीद है, अन्यथा यह घोषणा नक्कार खाने की तूती साबित होगी। शायद इसीलिए भाजपा के प्रमुख व मंदिर निर्माण आंदोलन से जुड़े नेता विनय कटियार ने कहा भी है कि “अयोध्या को लालीपॉप नहीं राम-मंदिर चाहिए।“ दरअसल कटियार राजनीति की पेचीदगियों और छलावों के अभ्यस्त व जानकार नेता हैं, इसलिए वे अच्छे से जानते हैं कि इन घोषणाओं के वास्तविक अर्थ क्या हैं !

प्रदेश में सत्तारुढ़ सपा इस समय पारिवारिक सदस्यों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और अहं टकराव के चक्रव्यूह में उलझी है। परिवार की अंतर्कलह के दुष्परिणाम अंततः क्या निकलते हैं, इसका उदाहरण महाभारत युद्ध और उसके परिणाम हैं। महाभारत में यादववंषी भागवान श्रीकृष्ण ने सत्य की जीत के लिए छल के प्रयोग को भी उचित माना है। जयद्रथ वध के लिए कृष्ण ने आभासी सूर्यास्त की रचना की। द्रोणाचार्य के वध के लिए अस्वत्थामा नामक हाथी का सहारा लिया और भीष्म पितामह की मृत्यु के लिए बृहन्नला स्त्री को आधार बनाया। इसलिए मुलायम कुनबा कब किस कुनबे के सदस्य से आहत होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता है !

परिवार के इस बाहरी और भीतरी विग्रह पर पर्दा डालने के लिए सपा रामधुन का राग अलाप रही है। जबकि उसका नाता धर्मनिरपेक्षता के बहाने मुस्लिम तुष्टीकरण और परिवारवाद को बढ़ावा देने में रहा है। अपने सियासी हितों की पूर्ती के लिए मुलायम सिंह ने उत्तर-प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को भी सपा में शामिल कर लिया था। जबकि कल्याण सिंह मंदिर आंदोलन और विवादित ढांचा के विध्वंसों में से एक प्रमुख नेता थे। इसी बूते कल्याण सिंह को राज्य का मुख्यमंत्री बनने का अवसर भी मिल गया था। इस रामधुन का प्रभाव विस्तृत हो, इस उद्देष्य से चुनाव के ऐन वक्त अखिलेश यादव ने 22 करोड़ की लागत से रामायाण थीम पार्क बनाने का फैसला लिया है। चलाचली की इस बेला में ये जुमले कितने कारगर साबित होते हैं, यह तो चुनाव नतीजे ही बता पाएंगे। लेकिन राम नाम के बहकावे में देश का जागरूक मतदाता इतनी सरलता से आ जाएगा यह कहना जल्दबाजी होगी।

मालूम हो 2012 में जब उत्तर-प्रदेश के विधानसभा चुनाव करीब थे, तब सत्तारुढ़ बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख और राज्य की मुख्यमंत्री मायावती ने भी संग्रहालयों और स्मारकों से जुड़े हथकण्डों का सहारा लिया था, बावजूद परिणाम उनके पक्ष में नहीं रहे थे। मायावती ने दिल्ली से सटे नोएडा में राष्ट्रीय दलित प्रेरणा स्थल और ग्रीन गार्डन का निर्माण किया था। इसमें संविधान निर्माता भीमराव अंबडेकर बसपा के संस्थापक कांसीराम और जीवित रहते हुए भी मायावती ने अपनी खुद की आदमकदम मूर्तियों को तो लगाया ही, बसपा के चुनाव चिन्ह हाथी की भी उद्यान में कई श्रृंखलाएं खड़ी कर दीं। इस उद्यान के निर्माण में 685 करोड़ रुपए की विपुल धनराशि खर्च की गई थी। जबकि इस राशि को बुंदेलखंड में अवर्षा से सामने आई गरीबी और लाचारी को दूर करने में खर्च किया जा सकता था। ऐसा होता तो तय है कि खेती-किसानी की माली हालत में एक हद तक सुधार होता और कई किसान आत्महत्या के अभिशाप से बचते। इस राशि को वे दलितों की शिक्षा व स्वास्थ्य संबंधी बदहाली दूर करने में भी कर सकती थीं। दलितों को मानसिक रूप से चैतन्य व आर्थिक रूप से खुशहाल बनाने में भी राशि का सदुपयोग हो सकता था। लेकिन ऐसा कुछ करने की बजाय वे दलित उत्पीड़न और समस्याओं से दूर भागती नजर आईं। इसी पलायन का नतीजा था कि मतदाता ने उन्हें सत्ता से बेदखली का रास्ता दिखा दिया। दरअसल जब व्यक्तिवादी महत्वाकांक्षा सामाजिक चिंताओं और सरोकारों से बड़ी हो जाती हैं, तो राजनेता अकसर मूर्ति, व्यक्ति और प्रतीकों की पूजा में अपने हितों की सुरक्षा के उपाय ढूंढ़ने लगते हैं। मायावती ने यह गलती 2012 में की थी और अब इसी गलती को सपा और भाजपा कमोबेश दोहरा रहे हैं। जबकि व्यक्तिवादी भूलों से सबक लेने की जरूरत होती है।

साफ है, राम नाम जपना और अंबेडकर, कांसीराम के ऐन चुनाव के वक्त स्मारक गढ़ना इस बात के संकेत हैं कि हमारे राजनीतिक दलों के पास विकास और रोजगार के ठोस अजेंडे हैं ही नहीं। यदि लोगों की आजीविका से जुड़े सवालों की चिंता होती तो जो धन अखिलेश रामकथा की प्रतीकात्मक वैचारिक अवधारणा पर खर्च कर रहे हैं, उसे रोजगार से जुड़े लघु उद्योगों पर खर्च किया जा सकता था। यही सवाल भाजपा से भी किया जा सकता है ! रामायण संग्रहालय कोई नई परिकल्पना नहीं है ! भागवान राम और उनकी गाथाओं से जुड़े देश में न केवल कई संग्रहालाय हैं, बल्कि वे स्थल भी सुरक्षित हैं, जहां-जहां वनगमन के दौरान राम गुजरे और ठहरे थे। राम के प्रति आम भारतीय की इतनी श्रद्धा है कि राम से जुड़ा हर स्थल बड़े तीर्थ का रूप ले चुका है। इसलिए रामायण संग्रहालय बनाने में खर्च की जा रही राशि को गरीबी दूर करने में खर्च किया जाता तो कहीं ज्यादा बेहतर होता !

रामाश्रय लेना राजनीतिक दलों के लिए शायद इसलिए जरूरी लग रहा है, क्योंकि उनके पास राज्य के विकास का कोई ठोस अजेंडा नहीं है। साथ ही इतना आत्मविष्वास भी नहीं है कि सिर्फ विकास और सुद्ढ़ कानून व्यवस्था पर वोट मांग सकें, क्योंकि अराजकता पर नियंत्रण कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। इसलिए जाति और धर्म से जुड़े प्रतीकों को विकल्पों के रूप में आजमाने की कोशिशें तेज हो रही हैं। इन कोशिशों का कितना लाभ किस दल को मिलता है यह तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन दल जाति और धर्म के आधार पर वोटों को हथियाने के हथकंडों से बचे रहें, तो देश और राज्य हित में ज्यादा बेहतर होगा।

हाँ समाजवादी और कांग्रेस में उपजे राम प्रेम से हिंदुत्ववादी अवश्य गदगद हैं कि “देर आयद दुरुस्त आयद” अब सेक्यूलर दलों को भी राम का महत्व आखिर समझ में आ ही गया ! यह इस बात का भी प्रमाण है कि प्रजातांत्रिक व्यवस्था में बहुसंख्यक समाज की भावनाओं को लम्बे समय तक तिरस्कृत और उपेक्षित नहीं किया जा सकता !


प्रमोद भार्गव
लेखक/पत्रकार
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
मो. 09425488224, 09981061100
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लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।







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