भारत के गुमनाम सूफी पत्रकार क्रन्तिकारी "अम्बाप्रसाद", जिनकी समाधि है ईरान में !

वर्ष १८५८ में उ.प्र. के मुरादाबाद नगर में यानि सत्तावनी क्रांति के अगले ही वर्ष एक बालक ने जन्म लिया ! यह बालक जन्म से ही लुंज था, उसका दाहिना हाथ नहीं था ! बड़े होकर वह उसी हाथ की और ईशारा करते हुए कहा करते थे - "क्या करें भाई, बात यह है कि 57 की लड़ाई (क्रांति) में अंग्रेजों से लड़ते समय मेरा हाथ कट गया था ! फिर मृत्यु हो गयी, दूसरा जन्म भी शीघ्र ही मिल गया परन्तु मेरा दाहिना हाथ कटा का कटा ही रहा ! 

यह व्यक्ति थे पंजाब के महान क्रांतिकारी सूफी अम्बाप्रसाद ! इन अम्बाप्रसाद की समाधि आज ईरान में मौजूद है ! जहाँ ईरानी औरतें उस समाधि पर चादरें चढ़ाती है, मनौती मांगती है ! प्रतिवर्ष उस पर ईरानी जनता 'उर्स' करती है जिसमे भारी संख्या में लोग शिरकत करते है ! ईरान में सूफी जी का नाम 'आका सूफी' के रूप में सर्व विख्यात है ! आखिर क्या किया था उस भारतीय क्रांतिकारी ने, जिसे भारत के लोग तो भूल गए है लेकिन ईरान में उनकी 'मजार' को भी इतना प्यार-समादर प्राप्त है ?

जीवन परिचय 

अम्बाप्रसाद जी ने एम्. ए. तक बरेली और जालंधर में पढाई की ! उसके बाद वकालत की परीक्षा उतीर्ण की ! वकालत से ज्यादा सूफी जी को लेख व् पुस्तकों में लगाव था, वे उसी दिशा में प्रवृत हो गए ! सन १८९० में आपने उर्दू में समाचार पत्र निकाला 'जाम्युल उलूम' ! इस समाचार पत्र में अंग्रेजों की दुर्नीति की धज्जियां उड़ाई जाती थी ! इस समाचार पत्र के अलावा 'आबेहयात' व् 'पेशवा' नामक अखबार भी आपने निकाले ! आबे हयात तो ईरान से ही निकलता था ! सभी में अंग्रेजों की कड़ी आलोचना होती थी ! 'पेशवा' समाचार पत्र का परायण सरदार भगत सिंह ने युवावस्था में किया, जिससे क्रांति का सन्देश घुट्टी बनकर उनके रक्त में व्याप्त हो गया ! अंग्रेजों द्वारा यह अखबार जब्त कर लिया गया !

पागल नौकर बनकर बजाई रेजिडेंट साहब की बैंड 

शायद भोपाल की वह सियासत थी ! रेजिडेंट साहब उस राज्य में धांधलेबाजी कर रहा था ! सोच थी कि ब्रितानियों का राज है फिर चिंता क्या ? 'अमृत बाजार पत्रिका' ने अपना एक प्रतिनिधि उस राज्य में रेजिडेंट के भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करने हेतु भेजा ! उसने विश्वस्त समाचार भेजे जल्द ही अमृत बाजार पत्रिका में उस रेजिडेंट की बदनामी होने लगी ! रेजिडेंट ने समाचार देने वाले व्यक्ति का नाम बताने वाले को बड़ा पुरष्कार देने की घोषणा कर दी परन्तु समाचार छपते रहे ! जिसके कारण रेजिडेंट को उसके पद से हटा दिया गया !

रेजिडेंट को नगर छोड़ना था उसने अपने सभी नौकरों को बख्शीस (अनुग्रह राशि) देकर छुट्टी दे दी ! इसमें एक पागल नौकर भी शामिल था जो कुछ समय पूर्व ही नौकरी पर आया था और पूरी ईमानदारी और लगन के साथ महज दो वक़्त की रोटी पर नौकरी कर रहा था ! साहब सामान बांधकर स्टेशन पहुंचे, यहाँ उन्होंने देखा कि वही पागल नौकर फैल्ट-कैप,टाई,कोट-पेंट पहने पूरे साहबी वेश में चहलकदमी कर रहा है, पागलपन का कोई आभास ही नहीं है ! पागल नौकर रेजिडेंट के पास आया, उसकी बढ़िया अंग्रेजी सुनकर रेजिडेंट का माथा ठनका ! तब उस पागल नौकर ने कहा कि 'यदि में आपको उस भेदिये का नाम बता दूं तो क्या ईनाम देंगे ?' तब रेजिडेंट ने कहा कि ' में तुम्हे बख्शीश दूंगा !'

"तो लाइए दीजिये ! मैंने ही वे सब समाचार छपने के लिए भेजे थे समाचार पत्र में !''

अंग्रेज रेजिडेंट कुढ़कर रह गया ! उफनकर बोला - "यू गो ! पहले मालूम होता तो में तुम्हारी बोटियाँ कटवा देता !" फिर भी ईनाम देने का वचन किया था अतः जेब से सोने के पट्टे वाली घडी निकाली और देते हुए कहा - "लो यह ईनाम और तुम चाहो तो में तुम्हे सी.आई.डी. में अफसर बनवा सकता हूँ. १८०० रुपये महीने में मिला करेंगे, बोलो तैयार हो ?

इस पर उन्होंने कहा - "यदि मुझे वेतन का ही लालच होता तो क्या आपके रसोईघर में झूठे बर्तन धोता ? रेजिडेंट इस दो-टूक उत्तर पर हतप्रभ रह गया ! यह पागल बना हुआ व्यक्ति कोई और नहीं महान क्रन्तिकारी सूफी अम्बाप्रसाद थे !

शेर फिर पिंजरे में 

राजद्रोह के आरोप में सर्वप्रथम सूफी जी को १८९७ में डेढ़ वर्ष हेतु जेल भेजा गया ! वर्ष १८९९ में मुक्त होने के पश्चात रेजिड़ेंटो के कारनामों का पर्दाफाश करने पर अंग्रेज सरकार ने उन्हें पुनः छः वर्ष के कारावास से नवाजा एवं जेल में गंभीर यातनाएं दी ! परन्तु वे तनिक भी विचलित नहीं हुए, भले ही कष्टों ने उन्हें तोड़ दिया ! रूग्ण हो गए, उपचार का नाम नहीं ! तिल-तिल जलाते रहे देह की दीप-वर्तिका ! अंग्रेज जेलर परिहास के स्वर में उनसे पूछता है - "सूफी ! तुम मरे नहीं ?" सूफी के होठों पर गहरी मुस्कान थिरक उठती, कहते - "जनाब ! तुम्हारे राज का जनाजा उठाये बिन सूफी कैसे मरेगा ?' आखिरकार सूफी वर्ष १९०६ में उस मृत्यु-गुहा से बाहर आये !

पुनः पत्रकारिता का प्रारम्भ

सूफी जी ने जेल से बाहर आकर पंजाब लौटकर पुनः पत्रकारिता प्रारंभ की ! वह "हिन्दुस्तान" समाचार पत्र से जुड़े ! इस दौरान अंग्रेज सरकार उन्हें प्रलोभन देती रही ! किन्तु सूफी जी दूसरी धातु के बने थे ! इसी दौरान "भारत माता सोसाइटी" ने पंजाब में "न्यू कॉलोनी" बिल के विरुद्ध आन्दोलन प्रारंभ किया और सूफी जी समाचार पत्र से त्यागपत्र देकर उस आन्दोलन में सक्रीय हो गए तथा वर्ष १९०७ में तीसरी बार गिरफ्तारी से बच कर भगत सिंह के पिता किशन सिंह, आनद किशोर मेहता के साथ नेपाल पहुँच गए ! मेहता जी उस दल के मंत्री थे ! उन दिनों एक जंगबहादुर नाम के सज्जन नेपाल रोड के गवर्नर थे ! सूफी जी के उनसे अच्छे सम्बन्ध बने ! गवर्नर ने उन्हें सहयोग व आश्रय दिया ! इसका परिणाम महोदय को अपनी नौकरी गवां कर एवं संपत्ति जब्त करा कर भुगतना पड़ा ! यहीं सूफी जी को पुनः गिरफ्तार किया गया, मुकदमा ठोका गया ! आरोप था कि उन्होंने "इण्डिया" नामक समाचार पत्र में सरकार के विरुद्ध राजद्रोहात्मक लेख लिखे है, परन्तु अभियोग सिद्ध न हुआ और वे मुक्त हुए ! सूफी जी की विप्लवाग्नि सुलगाने वाली पुस्तक 'बागी मसीहा' अंग्रेजों ने जब्त कर ली ! शीघ्र ही सूफी जी ने पंजाब में एक नया दल गठित किया - 'देश भक्त मंडल' !

ऐसे पहुंचे ईरान 

उधर महाराष्ट्र में उन्ही दिनों लोकमान्य तिलक को अंग्रेजों ने खुदीराम बोस के समर्थन में 'बम-काण्ड' सम्पादकीय लिखने पर छः वर्ष का निर्वासन-कारावास दिया तो सूफी जी ने सोचा, अब बाहर चलकर काम करना चाहिए ! सूफी जी भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह और जिया उल हक़ के साथ देश छोड़कर सीमान्त की पहाड़ियों की और चल पड़े ! सभी वैरागियों के वेश में थे ! तीनों चलते चलते ईरान पहुंचे ! यहाँ पहुंचकर जिया उल हक़ का ईमान डोल गया ! उसके मन में सूफी जी को पकडवाकर उनके ऊपर रखा ईनाम पाने का लालच आ गया ! सूफी जी भी उसके बदले व्यवहार को भांप गए ! उन्होंने जिया उल हक़ से कहा - "जिया साहब ! आप जरा पहुंचकर मौके का मुआयना कीजिये, हम पीछे आ रहे है !" वह चल पड़ा और स्वयं ही वहां की पुलिस के शिकंजे में आ गया ! सूफी जी और सरदार अजीत सिंह, अंग्रेज गुप्तचरों द्वारा लाख तलाश करने पर भी उनक हाथ न आये ! इस दौरान सूफी जी का अरबी-फ़ारसी ज्ञान काम आया, जब पुलिस ने उन्हें घेर लिया परन्तु सूफी जी ने पास ही आराम कर रहे सौदागरों से संपर्क कर उन्हें विश्वास दिलाया कि वे कोई बड़े आलिम है, उन्हें एवं अजीत सिंह को संदूक में लादकर इन सौदागरों के काफिले ने आगे पहुंचाया !

ईरान में फिर एक अमीर के यहाँ आश्रय मिला, किन्तु पुलिस सूँघ
ते सूंघते वहां भी आ गयी ! अब क्या करें ! अमीर ने युक्ति की ! सूफी जी और अजीत सिंह को बुर्के में ढका और अन्दर जनानाखाने (अन्तःपुर) में भेज दिया ! फिर भी पुलिस वहां घुस आई ! खानातलाशी लेने लगी तो फसाद पैदा हो गया ! अमीर ने कहा -"जनाब पर्देवालियों से अलग रहकर आप चाहे जो तलाशी लें, लेकिन इनके बुर्कों को हाथ लगाया तो गजब हो जाएगा ! हम लड़कर जान दे देंगे परन्तु इन्हें बेपर्दा न करने देंगे !" पुलिस ने देखा खंजर खिचने वाले है तो वापस लौट गयी ! दोनों विप्लवी उस दिन बाल बाल बचे !

ईरान में भी अंग्रेजों से विरोध चल रहा था ! सूफी जी ने फिर यहाँ बायें हाथ में कलम थामी ! एक अखबार चलाया -"आबेहयात" ! वही सम्पादक थे ! फ़ारसी में वे ठीक उर्दू, हिंदी व् अंग्रेजी की ही भांति लिख सकते थे ! सरदार अजीत सिंह भी इस समाचार पत्र में उनके सहयोगी थे परन्तु कुछ दिन बाद वह तुर्की चले गए ! सूफी जी ने ईरान के जन-आन्दोलन में भी आगे बढ़कर हाथ बटाया जिससे ईरानी लोग उनके दोस्त ही नहीं मुरीद बन गए और वह सूफी जी को अब 'आका सूफी' कहकर प्रभूत सम्मान देने लग गए ! यह एक चमत्कार ही था कि एक लुंज, एक हाथ वाला व्यक्ति, जो दूर देश में फरार जीवन बिताने को विवश था, पुरुषार्थ से क्या नहीं कर सकता !

सूफी अम्बाप्रसाद और उनके साथी ईरान में ब्रिटिश-विरोधी एक सेना संगठित करने में लग गए ! इसमें भारतीय क्रांतिकारी शामिल हो गए ! ईरानी युवकों की संख्या अधिक थी ! क्रांतिकारी सेना को त्याग-बलिदान के सब प्रकार के संस्कारों से दीक्षित किया गया ! प्राण-भय होने पर भी शत्रु से हाथ नहीं मिलायेंगे, इस आशय की शपथ उन सैनिकों ने ली ! इन दिनों सूफी जी का उत्साह सीमातीत दिखाई दिया ! आप बड़े प्रसन्न थे ! क्रांतिकारियों को उत्साहित किये रखने के विचार से ही आपने समाचार पत्र 'आबे हयात' निकाला था !

कोई क्रांतिकारी सैनिक जब सूफी जी से हंसकर कहता - "आका" ! आपको एक ही हाथ का देखकर अंग्रेज कमांडर तो दंग रह जाएगा ! विशेषकर जब वह यह देखेगा कि एक ही हाथ से आप गोलियां झोंके जा रहे है !"

सूफी के मुख मंडल पर आनंद की आभा खिल उठती ! चमकती आँखों से उत्तर देते -"यारों ! वह दिन आने दो ! मेरा वजन उसी दिन बढेगा ! जो अंग्रेज सेना मेरे देशवासियों की हत्या करने की अभ्यस्त हो गयी है, उनका शिकार खेलने की मेरी बड़ी इच्छा है !

अंततः वह दिन भी आ गया ! बुहारा, बाम, वस्त, शीराज, किर्माज और हरीज तक क्रांतिकारी फौज की भरती हो चुकी थी ! 

ब्रिटिश कौंसल के घर धावा बोल दिया गया ! यह अंग्रेज शीराज में ही रहता था ! अंग्रेजों ने भारतियों को ईरान में प्रवेश न करने देने के लिए नाकेबंदी कर रखी थी ! इस नाकेबंदी के रहते भी एक भारतीय क्रांतिकारी ईरान में प्रविष्ट हो गया ! उस वीर युवक का नाम था बसंत सिंह ! अंग्रेजों ने इसे बंदी बना करा जंजीरों से कस दिया ! 

अंत में शीराज भी अंग्रेजी फौजों की लपेट में आ गया ! यह १९१५ की बात है ! क्रांतिकारियों की सेना ने जमकर मोर्चा लिया ! कितने ही अंग्रेज अफसर और गोरे सैनिक यमलोक पहुँच गए ! सूफी जी ने तुमुल युद्ध किया ! एक ही हाथ का यह उद्भट वीर अंग्रेजी फौजों के लिए चर्चा का विषय बन गया ! सूफी जी ने अपनी रिवाल्वर से चुन चुन कर अंग्रेजों का संहार किया ! एक दिन गोली चलाते चलाते यह महान क्रांतिकारी अंग्रेज सेना की पकड़ में आ गया ! सूफी जी बंदी हो गए !

गोरी सेना के लिए यह बंदी बहुत खतरनाक माना गया ! सर्वत्र उनकी ही बातें होती ! अंग्रेजों ने अपनी सैनिक अदालत में उनपर मुक़दमा चलाया और जो स्वयं हत्यारे थे, उन अफसरों ने सूफी जी को अपराध में प्राण-दंड सुनाया कि इस भारतीय ने अनेक अंग्रेजों की हत्या की है ! निर्णय-पत्र में लिखा गया कि सूफी के प्राण गोली मारकर लिए जाएँ ! भारतीय क्रांतिकारी वसंत सिंह को भी प्राणदंड मिला ! इन्हें अंग्रेजों ने गोली से उड़ा दिया !

अगले दिन सूफी जी को भी गोली मारी जाने वाली थी ! वे कैद में किंचित भी उदास न थे, यधपि उनकी गिरफ्तारी के समाचार से सूफी जी के ईरानी मित्र, यहाँ तक कि छोटे छोटे बच्चे भी उदास और बैचैन हो उठे - "आका सूफी" ! क्या तुम हमें छोड़ जाओगे ?" सूफी जी के ईरानी मित्रों के ह्रदयों में हाहाकार आ भरा !

लेकिन उस प्रभात को तो आना ही था - वह आया ! सूर्य की प्रथम किरणें छटपटाती सी उस कैदखाने में घुसी जहाँ सूफी जी कैद थे ! आज प्रातः काल उन्हें गोली से उड़ाया जाना निश्चित था ! गोरे अफसर और कुछ सशस्त्र अंग्रेज सैनिक उस भारतीय बंदी की कोठरी की और तेजी से बड़े आ रहे थे जिसे युद्ध में भयानक संहार-लीला के अपराध में प्राणदंड दिया जाना था ! ये लोग उस भारतीय को गोली मारने के लिए नियुक्त किये गए थे ! 

कैदी की कोठरी का द्वारा खोला गया ! सूर्य की किरणें सूफी जी के स्थिर शरीर से लिपट रहीं थी ! गोरे अफसरों ने वह दृश्य नहीं देखा ! उन्होंने दूर से बंदी को दीवार के सहारे बैठा देखा ! सैनिकों को आज्ञा दे दी कि बंदी को बाहर निकाल कर टिकरी से बाँध दो ! टिकरी पहले से तैयार रखी हुई थी ! इसी से बांधकर सूफी जी को गोली मारी जानी थी !

जो गोरे सैनिक सूफी को बाहर लाने के लिए गए उन्होंने दो-तीन आवाजें दीं, पर सूफी जी नहीं बोले ! क्रोधित होकर उन्होंने उनका हाथ पकड़कर खींचा तो चकित होकर देखा कि बंदी का निर्जीव शरीर लुढ़क गया है !

"बैठे बैठे कोई कैसे मर सकता है ?" अंग्रेजों की समझ में नहीं आ रहा था ! उन्हें भारत की योग साधना का क्या पता था ! जो आत्मबलिदानी अपने देश के लिए जीवन भर देश विदेश की खाक छानता फिरा, जो कभी एक भी क्षण अंग्रेजों की दासता को सहन नहीं कर सका और अपने आयुष्य का तिल तिल स्वाधीनता-संघर्ष को भेंट करता रहा, जिसकी कोई निजी अभिलाषा-अरमान नहीं थे, 'देश स्वतंत्र हो, सुखी हो' - एकमात्र यही जिसका जीवन-मंत्र था, जो ये पंक्तियाँ अतीव आह्लादित होकर गुनगुनाया करता था कि -

कोई आरजू नहीं है, है आरजू तो यह है -
रख दे कोई जरा-सी खाके वतन कफ़न में ||

उस सर्वस्व योगी को अंग्रेजों के बंदीगृह में स्वेच्छा से प्राण-त्याग करते हुए कौन सी कठनाई हो सकती थी ?

अन्य बंदियों ने बताया कि सूफी जी रात भर ऊंचे स्वर में गाते रहे ! एक पहर रात रहते पूजा पर बैठ गए और वही उनकी जीवित समाधि सिद्ध हुई ! अब वे कभी न उठेंगे ! अंग्रेज अब उन्हें कभी छु भी न सकेंगे ! सूफी का आत्मा अनंत लोकों की यात्रा पर चल दिया, अब निर्जीव शरीर का कुछ भी करो ! मानवकाया तो एक दिन मिटटी में मिलनी ही है, वह देश के हित में गिरे- इससे बढ़कर उसकी सार्थकता क्या होगी ! लन्दन के अन्यायी-अत्याचारी शासन को, जिस ब्रिटिश सैनिक शक्ति को संसार में प्रथम स्थान प्राप्त था उस सारे फौज-फाटे को अंगूठा दिखाकर हमारा सूफी स्वतंत्र हो गया- अंग्रेजों की कारागार अपनी क्रूरता पर लज्जित होकर रह गयी !

बंदियों ने बताया कि क्रांतिकारी युवक वसंत सिंह को गोली मारे जाने के बाद सूफी जी जोर-जोर से 'ॐ-ॐ' की ध्वनि देर तक गुंजाते रहे ! फिर हम लोगों को पुकार कर कहा -

"भाइयों सूफी का आखिरी अभिवादन स्वीकार करो ! कल अपनी भी चला-चली है ! जिन्दगी के इस त्यौहार पर आप सबको क्या भेंट दूं ? शायद आपमें से भी कईयों को यह बलिदान का त्यौहार आगे-पीछे मनाना पड़े ! किसी बात का अफ़सोस या सोच न करना ! जन्म मरण के फेरे तो चलते ही रहते है - चलते रहेंगे ! एक जन्म देश को दे दिया तो कौन सी बड़ी बात हुई ! हाँ, देश सेवा की अभिलाषा अभी पूरी नहीं हो पायी ! अगले जनम में फिर से उसका अवसर मिले, भगवान् से यही कामना है !"

सूफी जी के शव को सफ़ेद कपडे से ढक दिया गया ! कितने ही बंदी,जो उनकी जान पहचान के थे, शव के पास आये और आखिरी सलाम किया !

सूफी जी के परलोक-गमन को बात बिजली की भाँती शीराज में फ़ैल गयी ! उनके परिचित और प्रिय बूढ़े-बच्चे एवं जवान ईरानी बदहवास होकर जेल की और भागे अपने प्यारे 'आका सूफी' की एक झलक देखने के लिए !
ईरानी बच्चे जेल की खिड़की से चीखे -"आका ! तुम कहाँ हो ? तुम तो हमसे कहते थे कि हिन्दुस्तान ले चलेंगे ?"

ईरानी जवानों ने जेल की खिड़की पर सर टेक कर सजदा किया ! पुकार कर कहा -

"आका सूफी ! हमारे दिलों में भी अपनी जैसी हिम्मत, दिलेरी और मुल्क के लिए कुर्बानी का जज्बा जगाते जाना ! हम तुम्हे कभी भूलेंगे नहीं ! ईरान तुम्हारी बुलंदी को हमेशा याद करता रहेगा !"

बूढ़े-बुजुर्ग ईरानियों ने जेल के बाहर पुकार कर आवाज दी -

"आजादी के दीवाने, मस्ताने सूफी ! तुम अपने मुल्क का नाम रोशन कर गए ! तुम्हारी पाकीजा रूह को हमारी दिली दुआएं ! सूफी जिंदाबाद ! हिन्दोस्तान जिंदाबाद !"

दूर विदेश में मरने वाले को इतना प्यार मिलना बड़े सौभाग्य की बात है !

आज सूफी अम्बाप्रसाद नहीं है ! उनकी स्मृति ही शेष है ! भारत से अधिक ईरान उस तपस्वी को याद करता है ! भारत में उनका कोई स्मारक नहीं है ! ईरानियों ने शारीज में सूफी की समाधि बना रखी है ! वहां हर वर्ष उस शहीदी समाधि पर बड़ा समाहरोह होता है ! विशाल मेला लगता है ! उस दिन लाखों ईरानी स्त्री पुरुष और बच्चे उस भारतीय देशभक्त की समाधि पर इक्कठे होते है और 'आका सूफी' को याद करते है, उनकी समाधि पर फूल चढाते है !

30 वर्ष कालेपानी का कारावास पाने वाले क्रांतिकारी श्री लद्धाराम जब "वचनेश त्रिपाठी" जी से मिले तो उनसे सूफी जी की चर्चा हुई ! उनका कहना था कि वह समाधि स्वयं उन्होंने शीराज में देखी है और वह अब भी वहां विद्यमान है ! लद्धाराम जी की शिकायत थी कि देश की जनता सूफी जी को भूल गयी है और भारतीय सरकारों को भी उनका कोई स्मारक यहाँ खड़ा करने की आवश्यकता अनुभव नहीं होती ! यह शासन का भारतीय हुतात्माओं के साथ बड़ा भारी अन्याय है !

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