आजादी के तत्काल बाद जवाहर लाल नेहरु को सबके सामने आइना दिखाने वाले सेना अधिकारी की गाथा !!



बात उस समय की हैं, जब भारत आजाद होने वाला था । भारत का संविधान लिखा जा रहा था और भारत की सरकार भारत की रक्षा के लिए योजनायें बना रही थी । सेना प्रमुख का चयन किया जाना था | हर कोई चाहता था कि सबसे काबिल और अनुभवी व्यक्ति ही सेना का प्रमुख बने पर आजादी के बाद से ही नेहरु जी की योजनायें कुछ अलग ही थी । बिना किसी की सलाह के नेहरु जी ने भारतीय सेना के चीफ कमांडर के रूप में ब्रिटिश मूल के जनरल रोब लॉकहार्ट को नियुक्त कर लिया । नेहरु जी के इस फैसले से सभी को हैरत भी हुई और दुःख भी, क्यूंकि 200 से भी ज्यादा साल के बाद भारत को अंग्रेजो से आजादी मिली थी । 

भारतीय सेना के मेजर जनरल एए जिक रूद्र इस फैसले से बहुत परेशान हो गए । एक दिन जनरल रोब लॉकहार्ट ने नेहरु जी ने ख़ास मुलाकात की और नेहरु जी के सामने कई योजनायें रखी | लॉकहार्ट ने सारी योजनायें एक कागज़ पर लिख कर मेज पर रख दी और फिर नेहरु जी को अच्छे से समझाया | लॉकहार्ट कमरे से बाहर गया और एए जिक रूद्र ने बड़ी हैरानी से उस कागज़ को पढ़ा, जिसमें लिखा गया था कि हमे किसी युद्ध नीति की जरुरत नहीं हैं | हमारी नीति अहिंसा हैं | इस घटना के एक साल बाद कश्मीर में संकट बढ़ गया था | जनरल लॉकहार्ट अपनी सारी नीतियां पाकिस्तानी सेना के प्रमुख कमांडर जनरल डगलस ग्रेसी को बताने लगे | लॉकहार्ट जानता था कि सीमा पर कई घुसपैठिये थे, लेकिन उसने कोई कार्रवाई नहीं की | लेकिन मेजर करियप्पा ने कश्मीर और भारतीय सेना को इस फैसले से बचा लिया | 

जब इस सबके बारे में सरकार को पता चला तो सरकार में लॉकहार्ट की इमानदारी पर काफी सवाल उठाये गए | अब नेहरु जी के पास कोई बहाना नहीं बचा था, और उन्होंने लॉकहार्ट से सवाल किया कि क्या वाकई वो कश्मीर के दंगो के बारे में जानता था ? लॉकहार्ट ने जवाब दिया कि आपको कोई हक नहीं हैं मुझसे ये सवाल पूछने का | मैं जानता हूँ कि कुछ ही दिनों में मुंबई से एक नाव जाने वाली हैं जिसमे ब्रिटिश अधिकारी हैं और उनके परिवारों को इंग्लैंड छोड़ा जाएगा | मैं भी भारत जल्दी ही छोड़ने वाला हूँ | 

अगले ही दिन सेना के नए चीफ का चयन करने के लिए बैठक हुई | बैठक में रक्षामंत्री बलदेव सिंह, मेजर जनरल नाथू सिंह राठौड़, मेजर जनरल करियप्पा और कुछ रक्षा विशेषज्ञ मौजूद थे | हर एक को पता था कि जनरल करियप्पा सबसे योग्य था और उसे सेना का नेतृत्व करना आता हैं | तब नेहरु जी ने कहा हमे एक नया आर्मी चीफ नियुक्त करना हैं क्यूंकि लॉकहार्ट ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया हैं | बैठक में नेहरु जी ने बिना किसी के पूछे स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि मैंने एक ब्रिटिश आदमी को इसलिए चुना था क्यूंकि मुझे लगता था कि हमारे अपने देश में ऐसा कोई नहीं हैं जो आर्मी चीफ बनने के काबिल हो, क्यूँकि भारतीय सैन्य जनरल अनुभवहीन है | नेहरु जी की इस बात से सभी बहुत दुखी हुए और सभी चुप बैठे थे | तुरंत ही मंत्री बलदेव सिंह ने कहा सर मैं आपकी बात से सहमत हूँ | वहा उपस्थित लोगों में मेजर जनरल नाथू सिंह राठौड़ भी थे, जो अंग्रेज़ो के समय भी अपनी निडरता और स्पष्टवादिता के लिये जाने जाते थे | उन्होंने जवाहर लाल नेहरु जी से पूछ लिया "प्रधानमंत्री पद का आपको कितना अनुभव है श्रीमान्‌"? यह सुनकर पहले तो बैठक में सन्नाटा छा गया क्योंकि नेहरु जी के मुंह पर यह करारा तमाचा था । 

जनरल नाथू सिंह की योग्यता और निर्भीकता से प्रभावित होकर नेहरू जी ने भारतीय सेनाओं का प्रधान सेनापति ठाकुर नाथू सिंह को ही बनाने का निर्णय लिया । रक्षा-मंत्री ने उनको पत्र द्वारा प्रधान सेनापति बनाये जाने की सूचना दी। पर ठाकुर नाथू सिंह ने स्पष्ट इन्कार कर दिया, क्योंकि सेना में जनरल करियप्पा उनसे वरिष्ठ थे और उनका मानना था कि वरिष्ठ होने के नाते करियप्पा को ही प्रधान सेनापति बनाया जाना चाहिये। आखिरकार जनरल करियप्पा ही भारत के पहले सेनाध्यक्ष बनाये गये | 

जनरल नाथू सिंह अंग्रेज़ो के समय भी अपनी निडरता और स्पष्टवादिता के लिये जाने जाते थे। वो एक प्रखर राष्ट्रवादी थे, सेना में होने के बावजूद वो अपनी राष्टवाद की भावनाओ और अंग्रेज़ो के प्रति नापसन्दगी को खुल कर व्यक्त करते थे और स्वाधीनता आंदोलन के नेताओ का खुलकर समर्थन करते थे। उनकी स्पष्टवादिता और अख्खड़ स्वभाव की वजह से अँगरेज़ अधिकारियो से उनकी कभी नही बनती थी, लेकिन उनकी जबरदस्त बुद्धिमता और प्रतिभा की वजह से वो उनके विरुद्ध कोई कदम नही उठा पाते थे। 

उनकी बुद्धिमता और प्रतिभा का एक प्रमाण यह है कि जब वो सेना में अधिकारी बने उसके बाद प्रमोशन के लिये होने वाले डिफेन्स स्टाफ कॉलेज की परीक्षा के लिये उन्हें जानबूझकर यह कहकर अनुमति नही दी जा रही थी कि वो अनुभवहीन है | लेकिन जब आखिर में उन्हें 1935 में अनुमति मिली तो ना केवल उन्होंने पहली बार में ही परीक्षा उत्तीर्ण की बल्कि उस परीक्षा में उन्होंने जो अंक हासिल किये वो आज तक भी डिफेन्स स्टाफ की परीक्षा में एक रिकॉर्ड है।

आजादी से पूर्व ही वरिष्ठ सैन्य अधिकारी होते हुए भी उन्होंने "आजाद हिंद फौज' के सैनिकों पर मुकदमा चलाने की भर्त्सना की......एक बार मुकदमे के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान उन्हें प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने का आदेश दिया गया, जिससे उन्होंने साफ़ मना कर दिया। उन्होंने कई बार गोली चलाने के आदेश का पालन करने से मना किया। इससे उनसे जलने वाले अंग्रेज अधिकारी बहुत खुश हुए। उन्हें लगा कि अब नाथू सिंह फसे है क्योकि अब उनका कोर्ट मार्शल होना पक्का है। लेकिन उनकी काबिलियत और रिकॉर्ड को देखते हुए उन्हें मुक्त कर दिया गया।

सन्‌ 1948 में नेहरु जी ने तय किया कि भारत का सैन्यबल 25 लाख से घटा कर 15 लाख कर दिया जाये। सैन्य बजट भी तीन वर्षों के लिये मात्र 45 करोड़ रु.प्रति वर्ष कर दिया गया। जनरल नाथू सिंह ने तुरंत सेना-मुख्यालय को पत्र लिखा- "हमें अपने सैन्य-बल की संख्या बजट के हिसाब से नहीं, बल्कि जरूरत के हिसाब से तय करनी चाहिये।'' दो वर्ष बाद उन्होंने फिर गुहार लगाई कि चीन भारत के लिये बड़ा खतरा है और हमें हमारी सुरक्षा को मजबूत करना चाहिये, लेकिन सपनों के संसार में रहने वाले तत्कालीन भारतीय नेतृत्व ने कोई ध्यान नहीं दिया। परिणाम यह हुआ कि हमें 1962 में चीन के हाथों अपमानजनक पराजय झेलनी पड़ी । 

दक्षिण कमान का सेनापति रहते हुए हैदराबाद के निजाम पर सैनिक कार्रवाई की योजना ठाकुर साहब ने ही बनाई थी | जब पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण किया, नाथू सिंह मेजर जनरल थे तथा दक्षिणी कमान के सेनापति थे। पाक का हमला होते ही उन्हें दिल्ली बुलाया गया। दिल्ली में वे प्रधानमंत्री से भी मिलने गये। वहॉं उनसे पूछा गया कि पाकिस्तान से निपटने की रणनीति कैसी होनी चाहिये। जनरल नाथू सिंह ने उत्तर दिया- "" कुछ फौजों को दर्रों की रक्षा करने के लिये छोड़ कर पूरी ताकत से लाहौर पर हमला कर वहॉं अधिकार कर लेना चाहिये। इससे पाकिस्तान कश्मीर खाली करने तथा पीछे हटने को बाध्य होगा।'' पं. नेहरु जी ने यह सुना तो वे आग-बबूला हो गये। जनरल को भला-बुरा सुनाते हुए उन्होंने कहा- " तुम्हें कुछ समझ भी है, इससे तो अन्तर्राष्ट्रीय समस्याएँ खड़ी हो जायेंगी।'' यह जानना रोचक होगा कि 1965 के भारत-पाक युद्ध में शास्त्री जी के नेतृत्व में भारतीय सेना ने उक्त रणनीति ही अपनाई और लाहौर पर हमला किया जिससे पाकिस्तान को युद्ध-विराम करना पड़ा था।

इस तरह वो स्वतंत्रता के बाद भी अपने सेवा काल में निरंतर नेहरू सरकार की गलत रक्षा नीतियों के खिलाफ खुलकर आवाज़ उठाते रहे जबकि उन्हें पता था कि इसके परिणाम उनके लिए ठीक नही होंगे। इसका खामियाजा उन्हें उठाना पड़ा और 51 साल की कम उम्र में ही इस प्रतिभाशाली अधिकारी को रिटायर्ड कर दिया गया। अगर उन्हें सेवा विस्तार दिया गया होता तो वो भारत के तीसरे सेनाध्यक्ष होते और फिर चीन युद्ध में भारतीय सेना में अनुभवी नेतृत्व की कमी नही होती, जिसकी वजह से ही भारत को शर्मनाक हार झेलनी पड़ी। लेकिन उनकी स्पष्टवादिता और निडरता नेहरू सरकार को चुभ रही थी और ऐसे व्यक्ति को वो सेना अध्यक्ष बनाने का जोखिम नही उठाना चाहते थे। रिटायर्ड होने के बाद भी ठाकुर नाथू सिंह सक्रिय रहे और भारतीय सेना के हितों के मुद्दे जोरो से उठाते रहे। देश के इस महान सपूत का निधन 5 नवंबर 1994 को हृदयगति रुकने से हो गया। लेकिन दुःख की बात है की भारत की सेना के निर्माणकर्ता होने और अपनी पूरी जिंदगी सेना को समर्पित करने के बाद भी सरकार द्वारा उनको पूरे सैनिक सम्मान के साथ आखिरी विदाई नही दी गई ।

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