मुस्लिम महिलाओं को दुर्गति से बचाने में आप भी सहयोग करें – एक अपील – हरिहर शर्मा


राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने एक पुस्तक लिखी है ‘द टर्बुलेंट इयर्स :1980-1996’ ! पुस्तक में 1980 से 1996 के राजनैतिक सामाजिक घटनाचक्र का विश्लेषण किया गया है ! सबसे खास बात यह है कि श्री प्रणव मुखर्जी ने अपनी इस पुस्तक में शाहबानो प्रकरण में लिए गए फैसले को तत्‍कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की बड़ी गलती बताया है !

क्या था पूरा मामला

इंदौर की रहने वाली मुस्लिम महिला शाहबानो को उसके पति मोहम्मद खान ने 1978 में तलाक दे दिया था ! पांच बच्चों की मां 62 वर्षीय शाहबानो ने गुजारा भत्ता पाने के लिए लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ी और अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने पति को गुजारा भत्ता देने का निर्देश दिया !

लेकिन सुप्रीम कोर्ट में केस जीतने के बाद भी शाहबानो को पति से हर्जाना नहीं मिल सका ! ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पुरज़ोर विरोध किया !

इस विरोध के बाद 1986 में राजीव गांधी की सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित किया ! इस अधिनियम के तहत शाहबानो को तलाक देने वाला पति मोहम्मद गुजारा भत्ता के दायित्व से मुक्त हो गया था !

विचारणीय प्रश्न -

62 साल की उम्र में पांच बच्चों की मुस्लिम मां जब अपने पति द्वारा अन्यायकारी तरीके से तलाक दिए जाने के बाद देश के संविधान के तहत मुआवजे की गुहार लगाने पहुंची तो तुष्टिकरण पर पलने वाली राजनीति का दम फूल गया? राजनीतिक बहुमत को तुष्टिकरण के हथियार और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पलटने वाले औजार के तौर पर आजमाया जा सके, क्या हमारे संविधान निर्माताओं ने ऐसी कल्पना की होगी ?

आज एक बार फिर उत्तराखंड की अड़तीस वर्षीय मुस्लिम महिला सायरा बानो ने पिछले साल पति द्वारा तलाक दे दिये जाने के बाद बाकी की उम्र रो-रोकर घर में गुजारने के बजाय करोड़ों मुस्लिम महिलाओं की आवाज़ बनने का फैसला किया !

इलाहाबाद में ब्याही गई सायरा ने तीन तलाक बोलकर पत्नी को छोड़ने की प्रथा को देश की सबसे बड़ी कोर्ट में चुनौती दे डाली और कोर्ट से इस पर नया क़ानून बनाने की गुहार लगाई ! तलाकशुदा महिलाओ को पुरुषों के हाथों की कठपुतली बनने से रोकने के लिए उन्होंने आवाज उठाई है ! 

उत्तराखंड के काशीपुर की रहने वाली रिटायर्ड आर्मी ऑफिसर की बेटी सायरा बानो की शादी तकरीबन दस साल पहले इलाहाबाद के रिज़वान से हुई थी ! सोशल साइंस में मास्टर डिग्री लेने के बाद ब्याह रचाने वाली सायरा तमाम दूसरी लड़कियों की तरह खुशहाल ज़िंदगी के हजारों सपनों लेकर मायके से विदा हुई थीं !

शुरुआती दिनों में तो ससुराल में सब ठीक ठाक रहा लेकिन कुछ दिन बाद ही प्रापर्टी डीलर पति और ससुराल के दूसरे लोग उसे परेशान करने लगे ! दो बच्चे होने के बावजूद सायरा के साथ मारपीट की जाती ! उसे ताने दिये जाते और बात-बात पर घर से निकालने की धमकी दी जाती.
पिछले साल अक्टूबर महीने में सायरा कुछ दिनों के लिए अपने मायके आई तो पति ने एक कागज़ पर तीन बार तलाक लिखकर उसे हमेशा के लिए छोड़ने का एलान कर दिया !

सदमे से उबरने के बाद सायरा ने तीन तलाक के खिलाफ देश में रहने वाली नौ करोड़ मुस्लिम महिलाओं के हक़ की लड़ाई को देश की सबसे बड़ी कोर्ट सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी ! अपनी अर्जी में सायरा ने तीन तलाक बोलकर पत्नी को छोड़ने की कुप्रथा को चुनौती दी और कोर्ट से इसे गैरकानूनी करार देकर महिलाओं को भी बराबरी का हक़ देने वाला क़ानून बनाने की अपील की !

सौभाग्य की बात यह है कि इस समय देश में कोई कुर्सीपरस्त सरकार नहीं है, लेकिन संवेदनशील मोदी सरकार की तरफ से जो हलफनामा दाखिल किया गया है, उस पर इन दिनों कोहराम मचा हुआ है !

तीन तलाक के दुरूपयोग का शिकार हुई सायरा का कहना है कि जब शादी सैकड़ों लोगों की मौजूदगी में तमाम रस्मों के साथ दूल्हा और दूल्हन की रजामंदी के बाद ही पूरी मानी जाती है तो तलाक सिर्फ पुरुषों को अकेले में भी तीन बार बोलकर या लिखकर कह देने से क्यों मान लिया जाता है ?

इसमें कोई हैरत की बात नहीं है कि हमारी सिविल सोसायटी के सुंदर लोग सायरा का साथ देने सामने नहीं आए। किसी भूमाता ब्रिगेड ने मुस्लिम महिलाओं की दुरावस्था पर सहानुभूति के दो शब्द नहीं बोले, कोई मोर्चा नहीं निकाला ! 

प्रख्यात लेखक शंकर शरण कहते हैं कि इस्लाम में स्त्री की स्थिति अत्यंत निम्न है, यह मुस्लिम भी मानते हैं। पाकिस्तान के पूर्व प्रधान मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने अपने पहले विवाह की करुण कथा सुनाते हुए स्वयं कहा थाः ‘‘मैं अपने मजहब पर शर्मिंदा हूँ। बहुपत्नी प्रथा बेहद घृणित चीज है। कोई मजहब इतना दमनकारी नहीं जितना मेरा है।’’

तब भारत जैसे सेक्यूलर देश में इस पर चर्चा क्यों नहीं होती? हमारे बुद्धिजीवी इस विषय से ही कतराते हैं। जो बात-बात में समानता और संवेदना की रट लगाते हैं, वे भी इस्लामी प्रसंगों पर मुँह सी लेते हैं। सायरा, अमीना, गुड़िया, इमराना जैसे कितने भी हृदय-विदारक प्रसंग क्यों न उठें, सदैव ‘जेंडर’ ‘जेंडर’ रटने वालों के मुँह से स्वर नहीं निकलता। इसलिए भी उलेमा को मुस्लिमों पर अपनी जबर्दस्ती थोपने का बल मिलता है, जो न केवल अमानवीय है बल्कि भारतीय संविधान के अनुसार अवैध भी।

ऐसा इसलिए है क्योंकि स्वयं कुरान ने औरतों को मर्दों की ‘खेतियाँ’ बताया है, जिसे वे ‘जैसे चाहें जोतें’ (2/223)। ‘औरत अपने शरीर पर हक से भी वंचित है। 

मदीना-प्रवास के समय साद ने प्रोफेट मुहम्मद के साथी अब्दुर्रहमान को अपना मजहबी भाई बनाया। जब दोनों खाने बैठे तो मेजबान ने कहा, ‘‘मेरी दोनों बीवियों को देख लो, और जिसे पसंद करो, ले लो।’’ उसी वक्त एक बीवी को तलाक दे कर उपहार में दे दिया गया। चूँकि किसी विषय में मुहम्मद द्वारा स्वीकृत किसी व्यवहार (सुन्ना) को भी इस्लामी कानून माना जाता है, अतः मुस्लिम स्त्रियों की दुर्गति को संपूर्ण संदर्भ में ही समझा जा सकता है।

निस्संदेह, गैर-इस्लामी समाजों में भी कभी-कभी स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार दिखता है, किंतु उस जबर्दस्ती को कहीं कानूनी मान्यता नहीं मिली हुई है। स्वयं मुस्लिम स्त्रियाँ यह बखूबी जानती हैं। फहमीना दुर्रानी की पुस्तक माई फ्यूडल लॉर्ड अथवा तसलीमा नसरीन की लज्जा में स्त्रियों की दुर्गति के प्रमाणिक चित्र हैं। तसलीमा के अनुसार, ‘‘इस्लामी समाज में महिलाओं के साथ गुलामों जैसा व्यवहार किया जाता है। उन्हें सिर्फ एक वस्तु और बच्चे जनने वाली मशीन समझा जाता है।’’

केंद्रीय बात यह है कि स्त्री संबंधी सभी इस्लामी कायदों में एक विशिष्ट मजहबी मतवाद से बनी मानसिकता हैं। इस की खुली समीक्षा किए बिना मुस्लिम स्त्रियों की स्थिति सम्मानजनक बनाने के प्रयास बहुत दूर नहीं जाएंगे। इस कार्य में मुस्लिम स्त्रियों उठ रही हैं, किन्तु उन्हें समझदार मुस्लिम और गैर-मुस्लिम समाज के सक्रिय सहयोग की भी बड़ी आवश्यकता है।

भारतीय बुद्धिजीवियों की भूमिका पर भी इस लड़ाई का काफी कुछ दारोमदार है । अब समय आ गया है जब हमारा मीडिया और अकादमिक जगत भी अपनी कलम उठाये । आखिर राजा राममोहन रॉय से लेकर आज तक अनेक विचारकों ने हिन्दू समाज की सती प्रथा पर रोक और विधवा विवाह को सामाजिक मान्यता दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निबाही ही है ! अगर कोई मुस्लिम बुद्धिजीवी इतना हिम्मती नहीं जो अपने समाज की आधी आवादी के खिलाफ हो रहे अमानवीय व्यवहार को लेकर आवाज बुलंद कर सके तो कमसेकम गैर मुस्लिम बुद्धिजीवी समाज तो आवाज उठाये !

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