ऋषि दयानन्द के महानिर्वाण की कारुणिक कथा

ऋषि दयानन्द जी की मृत्य का भावपूर्ण वर्णन

कार्तिक अमावस्या के दिन अजमेर नगर में उनका बलिदान व महाप्रयाण हुआ। स्वामी जी को जोधपुर के प्रवास में एक सिरफिरे सेवक के द्वारा विष दिया गया था। इससे पूर्व भी अनेक बार उन्हें विष दिया गया। पूर्व के सभी अवसरों पर वह यौगिक एवं अन्य क्रियाओं द्वारा विष का प्रभाव समाप्त करने में सफल रहते थे, किन्तु इस बार कालकूट विष दिया गया, संखिया घोलकर दूध के साथ पिलाया गया । इसे वे यौगिक क्रियाओं द्वारा वमन नहीं कर सके ।

ऋषि दयानन्द जोधपुर के राजा जसवन्त सिंह व उनके अनुज महाराज प्रताप सिंह के निमंत्रण पर वहाँ गये थे और वहाँ राज्य के अतिथि थे। विष दिये जाने के बाद वहाँ उनका समुचित उपचार व चिकित्सा नहीं हुई। उनकी शारीरिक स्थिति अत्यन्त निराशाजनक हो जाने पर उन्हें वहाँ से आबूरोड और उसके बाद अजमेर लाया गया । जहाँ उनका दीपावली के दिन 30 अक्तूबर सन् १८८३ को सायं ६:०० बजे निर्वाण हुआ। उनकी मुत्यु के दिन का वृतान्त उनके एक जीवनीकार एवं शिष्य स्वामी सत्यानन्द जी के शब्दों में वर्णनः----

भावपूर्ण वर्णन

स्वामी सत्यानन्द जी लिखते हैं कि कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी को महाराज के शरीर पर नाभि तक छाले पड़ गये थे, उनका जी घबराता था, गला बैठ गया था। श्वास-प्रश्वास के वेग से उनकी नस-नस हिल जाती थी। सारी देह में दाह-सी लगी हुई थी। परन्तु वे नेत्र मूंदकर ब्रह्म ध्यान में वृत्ति चढ़ाये हुए थे। अज्ञानी लोग उनकी इस ध्यानावस्था को मूर्छा मान लेते थे। जब शरीर अपने व्यापार से शिथिल हो जाय और बोलने आदि की शक्ति भी मन्द पड़ जाय तो सभी सन्तजन मनोवृत्तियों को मूर्छित करके निमग्नावस्था में चले जाया करते हैं।

अंग्रेज डॉक्टर का आश्चर्य

कार्तिक अमावस्या मंगलवार (३० अक्तुबर, १८८३), दीपमाला के दिन, सवेरे, विदेशी बड़ा डाक्टर न्यूटन महाशय आया। उसने उनके रोग-भोग की अवस्था देखकर आश्चर्य से कहा कि ये बड़े साहसिक और सहनशील हैं। उनकी नस-नस और रोम-रोम में रोग का विषैला कीड़ा घुसकर कुलबुलाहट कर रहा है, परन्तु ये प्रशान्तचित्त हैं। इनके तन पिंजर को महाव्याधि की ज्वाला-जलन जलाये चली जाती है, जिसे दूर से देखते ही कपकपी छूटने लगती है। पर ये हैं कि चुपचाप चारपाई पर पड़े हैं। हिलते-डुलते तक नहीं। रोग में जीते रहना इन्हीं का काम है। भक्त लक्ष्मरणदास ने उनसे कहा कि महाशय ये महापुरुष स्वामी दयानन्दजी हैं।

आश्चर्यचकित वैद्य का कथन 

यह सुनकर डाक्टर महाशय को अत्यधिक शोक हुआ। महाराज ने उस बड़े वैद्य के प्रश्नों का उत्तर संकेत-मात्र से दिया। एक मुसलमान वैद्य, पीरजी, बड़े प्रसिद्ध थे। वे भी उनको देखने आये। उन्होंने आते ही कह दिया-‘उनको किसी ने कुलकण्टक विष देकर अपनी आत्मा को कालख लगाई है। इनकी देह पर सारे चिह्न विष-प्रयोग-जन्य दिखाई देते हैं’। पीर जी ने भी महाराज का सहन-सामर्थ्य देख दांतों में उंगली दबाते हुए कहा, धैर्य का ऐसा धनी, धरणी-तल पर हमने दूसरा नहीं देखा।

इस प्रकार राजवैद्यों और भक्तजनों के आते जाते दिन के ग्यारह बजने लगे। ऋषि दयानंद की सांस अधिक फूलने लगी। वे हाँफते तो बहुत थे, परन्तु बोलने की शक्ति कुछ लौट आई थी। उनका कण्ठ खुल गया था। इससे प्रेमियों के मुखमण्डों पर प्रसन्नता की रेखा खेलने लगी। परन्तु पीछे जाकर उन्हें पता लगा कि वह तो दीपक-निर्वाण की अन्तिम प्रदीप्ति थी। सूर्यास्त का उजाला था।

महाराज ने उस समय शौच होने की इच्छा प्रकट की। चार भक्तों ने उन्हें हाथों पर उठाकर शौच होने की चौकी पर बिठा दिया। शौच से निवृत्त होकर वे फिर भली भांति शुद्ध हुए और आसन पर विराजमान हो गये।

अन्तिम भोजन किया

उस समय स्वामीजी ने कहा कि आज इच्छानुकूल भोजन बनाइए। भक्तों ने समझा कि भगवान् आज अपेक्षाकृत कुछ स्वस्थ हैं, इसलिए अन्न ग्रहण करना चाहते हैं। ये थाल लगाकर श्री महाराज के सामने ले आये। स्वामीजी ने एक टुक देखकर कहा कि अच्छा, इसे ले जाइए। अन्त में प्रेमियों की प्रार्थना पर उन्होंने चनों के झोल का एक चमचा ले लिया फिर हाथ मुंह धोकर भक्तों के सहारे वे पलंग पर आ गये।

शरीर की वेदना बराबर ज्यों की त्यों बनी हुई थी। श्वास रोग का उपद्रव पूरे प्रकोप पर पहुंच चुका था। पर वे शिष्य-मण्डली से वार्तालाप करते और कहते थे कि एक मास के अनन्तर आज स्वास्थ्य कुछ ठीक हुआ है। बीच-बीच में जब वेदना का वेग कुछ तीव्र हो जाता तो वे आंखें बन्दकर मौन हो जाते। उस समय उनकी वृत्ति स्थूल शरीर का सम्बन्ध छोड़ देती--आत्माकारता को लाभ कर लेती।

क्षौर कर्म करवाए

इसी प्रकार पल विपल बीतते सांझ के चार बजने को आये। भगवान् ने नाई को बुलाकर क्षौर करने को कहा। लोगों ने निवेदन किया कि भगवान् उस्तरा न फिराइए। छालें फुंसियां कटकर लहू बहने लगेगा, परन्तु उन्होंने कहा कि इसकी कोई चिन्ता नही है। क्षौर कराकर उन्होंने नख उतरवाए। फिर गीले तौलिये से सिर को पोंछकर सिरहाने के सहारे पलंग पर बैठ गये।

आत्मानन्द जी आहुत

उस समय श्री महाराज ने आत्मानन्द जी को प्रेम से आहूत किया। जब आत्मानन्दजी हाथ जोड़कर सामने आ खड़े हुए तो कहा-"वत्स, मेरे पीछे बैठ जाओं।" गुरुदेव का आदेश पाकर वे सिराहने की ओर, तकिये के पास प्रभु की पीठ थामकर विनय से बैठ गये।"

महाराज ने अतीव वत्सलता से कहा-"वत्स, आत्मानन्द, आप इस समय क्या चाहते हैं ?" महाराज के वचन सुनकर आत्मानन्द जी का हृदय भर आया। उनकी आंखों से एकाएक आँसुओं की लड़ी टूट पड़ी। गद्गद् गले से आत्मानन्द जी ने नम्रीभूत निवेदन किया -- "यह, ‘तुच्छ सेवक रात-दिन प्रार्थना करता है कि परमेश्वर अपनी अपार कृपा से श्रीचरणों को पूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करें। इसे इससे बढ़कर त्रिभुवन भर में दूसरी कोई वस्तु प्रिय नहीं है।"

महाराज ने हाथ बढ़ाकर आत्मानन्दजी के मस्तक पर रखा और कहा-"वत्स इस नाशवान् क्षणभंगुर शरीर को कितने दिन स्वस्थ रहना है। बेटा अपने कर्तव्य कर्म को पालन करते हुए आनन्द से रहना। घबराना नहीं। संसार में संयोग और वियोग का होना स्वाभाविक है।"

महाराज के इन वचनों को सुनकर आत्मानन्द जी सिसक कर रोने लगे। गुरुवियोग-वेदना को अति समीप खड़ा देखकर उनका जी शोक-सागर के गहरे तल में डूब गया।

अन्तिम वेतनदान

गोपालगिरी नाम के एक संन्यासी भी कुछ काल से श्रीचरण-शरण में वास करते थे। महाराज ने उनको आमन्त्रित करके कहा , "आपको कुछ चाहिए तो बता दीजिए।" उन्होंने भी यही विनय की-- "भगवन् हम लोग तो आपका कुशल-क्षेम ही चाहते हैं। हमें सांसारिक सुख की कोई भी वस्तु नहीं चाहिए।" फिर महाराज ने दो सौ रुपये और दो दुशाले मंगाकर भीमसेन जी और आत्मानन्दजी को प्रदान किये। उन दोनों ने अश्रुधारा बहाते, भूमि पर सिर रखकर, वे वस्तुयें लौटा दीं। वैद्यवर भक्तराज श्रीलक्ष्मरणदास जी को भी भगवान् ने कुछ द्रव्य देना चाहा, परन्तु उन्होंने द्रवीभूत हृदय से कर जोड़कर लेने से इनकार कर दिया।

स्नेहपूर्ण हाथ

इस प्रकार अपने शिष्यों से गुरु महाराज की विदा होते देखकर आर्य जनों के चित्त की चंचलता और चिन्ता की प्रचण्डता चरम सीमा तक पहुंच गई। वे बड़ी व्याकुलता से सामने आ खड़े हुए। उस समय, श्री स्वामी जी, अपने दोनों नेत्रों की ज्योति सब बन्धुओं के मुखमण्डलों पर डालकर, एक नीरव पर अनिर्वचनीय स्नेह-संताप सहित, उनसे अन्तिम विदाई लेने लगे। उनके प्रेम पूर्ण नेत्र, अपने पवित्र प्रेम के सुपात्रों को धैर्य देते और ढ़ाँढस बंधाते प्रतीत होते थे। महाराज प्रसन्न-चित्त थे। उनके मुख पर घबराहट का कोई भी चिह्न परिलक्षित नही होता था।
परन्तु भक्त जनों की आशायें क्षण-क्षण में निराशा निशा में लीन हो रही थी। उनके उत्साह की कोमल कलियों के सुकोमल अंग पल-पल में भंग हुए चले जाते थे। वे गुरुदेव की दैवी देह के देव-दुर्लभ दर्शन पा तो रहे थे, परन्तु उनकी आंखों के आगे रह-रह कर आँसुओं की बदलियाँ आ जाती थीं। रुलाई का कुहरा छा जाता था। सर्वत्र निविड़ तमोराशि का राज्य दिखाई देने लगता था। वे जी (अपने मन व चित्त) को कड़ा किये कलेजा पकड़ कर खड़े तो थे, परन्तु खोखले पेड़ और भुने हुए दाने की भांति, मानो सत्व रहित थे।

सभी दरवाजे और खिडकियाँ खुलवाए

ऐसी दशा ही में सायंकाल के पाँच बजने लगे। उस समय एक भक्त ने पूछा, "भगवन्, आपकी प्रकृति कैसी है ?" श्रीमहाराज ने उत्तर दिया, "अच्छी है, प्रकाश और अन्धकार का भाव है।" इन्हीं बातों में जब साढ़े पाँच बजे तो महाराज ने सब द्वार खुलवा दिये। भक्तों को अपनी पीठ के पीछे खड़े होने का आदेश किया। फिर पूछा कि आज पक्ष, तिथि और वार कौन सा है। पण्ड्या मोहनलाल ने शिरोनत होकर निवेदन किया कि प्रभो, कार्तिक कृष्ण पक्ष का पर्यवसान और शुक्ल का प्रारम्भ है। अमावस्या और मंगलवार हैं।

तत्पश्चात् महाराज ने अपनी दिव्य दृष्टि को उस कोठरी के चहुँ ओर घुमाया और फिर गम्भीर ध्वनि से वेद-पाठ करना आरम्भ कर दिया। उस समय उनके गले में, उनके स्वर में, उनके उच्चारण में, उनकी ध्वनि में, उनके शब्दों में किंचिन्मात्र भी निर्बलता प्रतीत नहीं होती थी।

श्रीगुरुदत्त विद्यार्थी जी का गुरुदेव का अन्तिम दर्शन

भगवान् के होनहार भक्त, पण्डित श्री गुरुदत्त जी उस कमरे में एक कोने में भित्ति के साथ लगे हुए, भगवान् की भौतिक दशा के अन्त का अवलोकन कर रहे थे। टकटकी लगाये निर्निमेष नेत्रों से उनकी ओर देख रहे थे।


पण्डित महाशय उस धर्मावतार के दर्शन करने पहले पहल ही आये थे। उनके अन्तःकरण में अभी आत्म-तत्व का अंकुर पूर्ण-रूप से नहीं निकल पाया था। परन्तु श्रीमहाराज की अन्तिम दशा को देखकर वे अपार आश्चर्य से चकित हो गये। वे चौकसाई विचार से देख रहे थे कि मरणासन्न महात्मा के तन पर अगणित छाले फूट निकले हैं, उनको विषम वेदना व्यथित किये जाती है। उनकी देह को दावानल सदृश दाह-ज्वाला एक प्रकार से दग्ध कर रही है। प्राणान्तकारी पीड़ा उनके सम्मुख उपस्थित है। परन्तु महात्मा शान्त बैठे हैं। दुःखक्लेश का नाम-निर्देश तक नहीं करते। उलटे गम्भीर गर्जना से वेद-मन्त्र गा रहे हैं। उनका मुख प्रसन्न है। आँखे कमल सदृश खिल रही हैं। व्याधि मानों उनके लिए त्रिलोकी में त्रयकाल, उत्पन्न ही नहीं हुई। यह सहनशीलता शरीर की सर्वथा नहीं है, अवश्यमेव यह इनका आत्मिक बल है।

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें