आजादी के बाद मध्यप्रदेश के राजनैतिक इतिहास में 1967 का अपना विशेष महत्व है | यह वह समय था जब मध्यप्रदेश की 320 सदस्यीय विधानसभा में प्रत...
आजादी के बाद मध्यप्रदेश के राजनैतिक इतिहास में 1967 का अपना विशेष महत्व है | यह वह समय था जब मध्यप्रदेश की 320 सदस्यीय विधानसभा में प्रतिपक्ष के 50 सदस्य भी नही थे | इतने विशाल बहुमत के कारण स्वाभाविक ही सत्तारूढ़
कांग्रेसी क्षत्रप अपने सामने अन्य दलों को तुच्छ, हीन मानने लगे थे | अहंकार में चूर कांग्रेस नेतृत्व ने पुलिस
प्रशासन को अत्याचार व अन्याय की खुली छूट दे रखी थी | उन्ही दिनों बस्तर में एक जबरदस्त आदिवासी
आन्दोलन हुआ | वहां के राजा प्रवीणचन्द्र भंजदेव की गोली मारकर
ह्त्या कर दी गई | इस ह्त्या को आमतौर पर राजनैतिक षडयंत्र माना
गया | इसलिए सारे प्रदेश में एक बड़ा जन आन्दोलन खड़ा हो
गया |
ग्वालियर संभाग में तो 9 अगस्त का काला दिन कभी न भूलने वाला दिन बन गया | आजादी के पूर्व के विक्टोरिया कोलेज तथा बाद के
महारानी लक्ष्मीबाई कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय के दो युवा, संघर्षशील व सुयोग्य छात्र नेता हरीसिंह व दर्शन
सिंह को पुलिस ने गोलियों से भून दिया | इस निर्मम ह्त्या ने पूरे मध्यप्रदेश के युवाओं में गुस्से व घृणा
के भाव भर दिए | छात्र सडकों पर निकल आये तथा स्वतंत्र भारत का
तब तक का सबसे बड़ा छात्र आन्दोलन प्रारम्भ हो गया |
चक बंदी,
जिला बंदी, कोटा परमिट राज से त्रस्त जनता का गुस्सा गुलाबी
चना काण्ड ने सातवें आसमां पर पहुंचा दिया | यह परमिट प्रणाली से कांग्रेसियों को अनुचित लाभ पहुंचाने का बेजोड़
उदाहरण था | तत्कालीन खाद्य मंत्री गौतम शर्मा इस काण्ड के
बाद जनता को खल नायक प्रतीत होने लगे | ऐसे वातावरण में प. द्वारका प्रसाद मिश्रा के शासन को चुनौती देने
के लिए ग्वालियर राज परिवार की राजमाता विजया राजे सिंधिया का प्रेरक नेतृत्व
सामने आया | वे कांग्रेस से त्यागपत्र देकर इस जन आन्दोलन
में सम्मिलित हो गईं |
उन्होंने क्रान्ति दल के
नाम से एक नई पार्टी का गठन किया | इस नई पार्टीं में अनेक नामी गिरामी कांग्रेसी व हिन्दू महासभा
नेता उनके साथ आ गए |
मध्य प्रदेश में कांग्रेस को टक्कर देने में केवल जनसंघ ही समर्थ
थी, अतः न चाहते हुए भी नई पार्टी में सम्मिलित
असंतुष्ट कांग्रेसी जनसंघ का साथ लेने को विवश हुए | किन्तु उनका पुरजोर प्रयत्न रहा कि राजमाता
जनसंघ से दूर रहें | यही कारण रहा कि 1967 का चुनाव राजमाता के प्रत्यासियों ने तारा चुनाव
चिन्ह से लड़ा | प्रत्यासी चयन में भी अनेक दिक्कतें आईं | किन्तु कुशाभाऊ ठाकरे व नारायण कृष्ण शेजवलकर जी
की सूझबूझ व धैर्य के चलते अंततः राजमाता की अनुकूलता प्राप्त करने में सफलता
प्राप्त हुई |
शिवपुरी जिले में केवल सुशील बहादुर अष्ठाना जनसंघ के दीपक चुनाव
चिन्ह से तथा शेष चार प्रत्यासी तारा चुनाव चिन्ह से लडे | न केवल शिवपुरी जिले में पांचो प्रत्यासी विजई
हुए, बल्कि सम्पूर्ण ग्वालियर चम्बल क्षेत्र में
कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया | राजमाता साहब के नेतृत्व में गोविन्द नारायण सिंह की पहली गैर
कांग्रेसी संविद सरकार बनी | किन्तु यह बेमेल गठबंधन अधिक समय तक नहीं चल सका | कांग्रेस छोड़कर आये कांग्रेसी जल्द ही अपने मूल
संगठन में जाने को छटपटाने लगे | संविद सरकार का पतन हो गया | प्रदेश पर एक बार फिर कांग्रेस शासन लद गया |
1971 में भारत बांगलादेश युद्ध की संजीवनी ने मृतप्राय कांग्रेस को जीवन
दान दे दिया | 1972 के विधान सभा चुनाव में एक बार फिर कांग्रेस को
ही सफलता मिली | किन्तु शिवपुरी जिले की पांच में से चार सीटों
पर राजमाता समर्थित भारतीय जनसंघ के प्रत्यासी ही विजई हुए | इस चुनाव में सभी प्रत्यासी जनसंघ के चुनाव
चिन्ह पर ही लडे थे |
धीरे धीरे राजमाता का
सम्पूर्ण व्यक्तित्व जनसंघमय होता चला गया | राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, वनवासी कल्याण परिषद्, विश्व हिन्दू परिषद्, सरस्वती शिशु मंदिर इत्यादि सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों व संघ प्रचारकों को नजदीक से
देखतीं परखतीं धर्मप्राण राजमाता शनेः शनेः उस मूल विचार को आत्मसात कर गईं, जिसके धरातल पर ये सभी संगठन स्थित हैं | और एक बार वैचारिक अधिष्ठान को अपनाते ही
उन्होंने अपने प्राणपण से सभी संगठनों को अपनी आत्मा से सींचा | देखते ही देखते वे राजमाता से लोकमाता बन
अनिर्वचनीय ऊंचाई पर पहुँच गईं |
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