अवध की क्रान्ति

सन १८५७ की क्रांति की धूनी जल रही थी ! लखनऊ के "दौलतखाना" नामक महल में गोरों की चौथी इर्रेगुलर (अनियमित) पलटन पड़ाव डाले थी, उसका अंग्रेज कमांडर था कैप्टेन ह्यू रोज ! उसने पता लगाया कि लखनऊ जिले में ही कुछ विद्रोही लोग सैनिकों को 'ग़दर' के लिए उकसा-भड़का रहे है ! पता चला कि वे चार लोग है - एक तो काकोरी कस्बे का एक मुसलमान वकील रसूलबख्श और दूसरा उन्ही का एक लड़का ! रसूलबख्श कचहरी में वकालत करते थे और काकोरी (जिला लखनऊ) के ही रहने वाले थे ! दो अन्य लोग हिन्दू थे जो लखनऊ के ही निवासी थे ! कैप्टेन ह्यूरोज १९ जून को अपने साथ लखनऊ नगर के दंडाधिकारी (सिटी मजिस्ट्रेट) कैप्टेन कारनेगी को लेकर उन चारों लोगों को बंदी बनाने गया ! जांच-पड़ताल का नाटक रचा और फिर यह घोषित किया कि यह चारों ग़दर भड़काने के अपराधी है ! उन्हें बंदी बना करा लखनऊ स्थित 'मच्छी भवन' ले जाया गया ! उस समय अंग्रेजों ने 'मच्छी भवन' में ही क्रांतिकारियों को फांसी चढ़ा कर मार डालने का केंद्र बनाया हुआ था ! वहीँ वकील रसूलबख्श, उनके एक लड़के एवम दो अन्य लखनऊ निवासी हिन्दू क्रांतिकारियों को फांसी दे दी गयी ! किन्तु इन चरों लोगों के फांसी चढ़ने पर जनता के बीच से अनेक लोग क्रुद्ध होकर इकट्ठे हुए और उन्होंने 'मच्छी भवन' का जो पुलिस थाना था, उस पर धावा बोल दिया, जिसमे सरकारी पुलिस के दो सिपाही मारे गए ! परन्तु समय की अत्यंत संवेदनशील परिस्तिथि का अनुभव करते हुए अंग्रेजों ने न उन क्रुद्ध जनों को पकड़ा, न उनमे से किसी को अपराधी बनाकर दंड देने का विचार किया ! यह प्रभाव या आतंक था १८५७ की क्रांति का अंग्रेजों पर !

खजाना लूटा अंग्रेजों ने 

लखनऊ के कैसरबाघ में जो बेगमों के महल थे, उनमे हीरे जवाहरात, सोने के जडाऊ ताज, हीरों से जड़े सोने के सिंहासन, तोड़े, असंख्य अशर्फियाँ, रत्नों से जड़े शस्त्रास्त्र सुरक्षित रखे थे ! उनमे २२ संदूक ऐसे थे जिनमे केवल हीरे ही हीरे भरे थे ! तीन रत्न-जडित स्वर्ण सिंहासन थे ! इस अमूल्य खजाने की भेदियागिरी लखनऊ नगर के ही एक गद्दार कोतवाल अली रजा ने अंग्रेज चीफ कमिश्नर से की ! उसने दो तोपे और गोर अंग्रेजों की एक कंपनी साथ करके कैप्टेन कारनेगी और मेजर बैंक्स को वह खजाना कब्जे में करके रेजीडेंसी में उठा लाने के लिए रवाना कर दिया ! आज उस कोष का मूल्य अरबों रुपये में आँका जाता ! वह २८ जून (१८५७) का दिन था, जब इन दोनों अंग्रेज अफसरों ने गोरों की एक कंपनी लेकर कैसरबाग के नवाबी महलों पर छापा मारा और वह सब खजाना, स्वर्ण-सिंहासन, हीरों के ताज तथा २२ संदूक हीरों से भरे रेजीडेंसी में उठा लाये ! यह वर्णन तत्कालीन एक अंग्रेज अफसर मि. गुबिंस ने स्वयं आत्म-साक्षी के रूप में लिखा है ! वह सब कोष जब रेजीडेंसी में लूटकर रखा गया, तो उसमे से बहुत सा माल अंग्रेजों ने चोरी करके गायब भी कर दिया ! अनंतर २९ जून (सन १८५७) को अंग्रेज फिर कैसरबाग के महलों में मूल्यवान वस्तुओं को खोज में घुसे लेकिन तब वहां उनके पल्ले पीतल की ढली एक विशाल तोप और अनेक अन्य शस्त्रास्त्र ही पड़े !

लालच देने का प्रयत्न 

इस बीच २७ जून को अफवाह उडी कि दिल्ली को अंग्रेजों ने फिर से अधिकार में कर लिया है ! फिर क्या था, इस प्रसन्नता में अंग्रेजों ने छावनी, मच्छी भवन और रेजीडेंसी में भरपूर तोपे दागी ! वस्तुतः यह समाचार निराधार ही था ! हाँ, इतना अवश्य हुआ कि गोरों की फौज दिल्ली के पास पहुँच गयी थी ! इसी महीने में अंग्रेजों ने लालच देते हुए उन जागीरदारों-रियासतदारों को पत्र लिखे जिनके बारे में उन्हें सूचित किया गया था कि वे क्रांतिकारियों से मिल जायेंगे या उनसे सम्बन्ध रखते है ! वे थे - राजा मानसिंह, महमूदाबाद के राजा नवाब अली तथा रामनगर-धमेड़ी के राजा गुरुबख्श सिंह ! इनमे से नवाब अली तथा राजा गुरुबख्श सिंह को 5 हजार पौंड वार्षिक आय वाली जागीर देने का वचन दिया ! तीसरे राजा मानसिंह को अंग्रेजों ने लिखा कि आपको २५ हजार पौंड वार्षिक आय वाली जागीर प्रदान की जायेगी, पर शर्त यह थी कि वे लोग स्वातंत्र्य-सेना के विरुद्ध अंग्रेजों की सहायता करें ! ऐसे ही और अनेक पत्र नवाबों-राजाओं को लिखे गए पर स्वयं अंग्रेज लेखक गुबिंस लिखता है कि "उनमे से किसी ने भी छाती ठोककर सहायता देने के लिए हाँ नहीं भरी, न उस प्रकार का आश्वासनात्मक उत्तर दिया !" राव रामबख्शसिंह ने तो अंग्रेजों से युद्ध किया और आत्माहुति दी क्रांति-यज्ञ में !

अंग्रेज भाग खड़े हुए 

अवध का दरियाबाद जिला सन १८५७ में लखनऊ कमिश्नरी के अंतर्गत था ! वह जिला कहलाता था ! उसके सरकारी कोषागार में नगद 3 लाख रुपये थे ! सत्तावानी क्रान्तिकाल में, जिसमे अधिकाश रुपये खरी चांदी के ही ढले थे, अवध इर्रेगुलर पैदल सेना की 5वी पलटन खजाने पर विद्यमान थी, जिसका कमांडर था कैप्टेन डब्लू.एस.हावेस ! उसने निश्चय किया की यह कोष दरियाबाद से हटाकर लखनऊ की रेजीडेंसी को भेज दिया जाए ! जब यह बात उसी देशी पलटन को पता चली तो उसके अनेक सैनिकों ने विरोध प्रकट किया ! तब कैप्टेन हावेस सक्रीय होते-होते रुक गया ! परन्तु आगे 9 जून (सन १८५७) को उसने फिर प्रबंध किया कि कोष वहां से हटाकर लखनऊ ही ले जाया जाए ! इसके लिए उसने बैलगाड़ियां गावों से जबरदस्ती मंगाई और उनपर वह खजाने के तीन लाख रुपये लदवा लिए बोरियों में भरवाकर ! वे बैलगाड़ियाँ दरियाबाद से लखनऊ चली ! लगभग ४ हो फर्लांग मात्र गाड़ियों ने पार किया होगा कि उन बैलगाड़ियों क़ साथ चल रहे कैप्टेन से देशी पलटन के आधे सैनिकों ने कहा - "हम यह खजाना लखनऊ नहीं पहुचाएंगे", फिर भी आधे सैनिकों को स्वीकार था कि खजाना पहुंचा देंगे लखनऊ ! तब सैनिकों के उन दो दलों में लडाई ठन गयी ! बंदूकें चलने लगी ! उस लड़ाई में उस देशभक्त पक्ष की विजय हुई जो खजाना लखनऊ ले जाने के विरुद्ध था ! फिर क्या था, तीन लाख रुपयों से लदी गाड़ियाँ देसी सैनिक दरियाबाद छावनी वापस ले आये ! यह दृश्य देखकर छावनी के अंग्रेज अफसर डरकर दरियाबाद से भाग निकले ! कैप्टेन हावेस को सैनिक गोली मार देते, पर वह भाग कर बच निकला ! सूहा का एक जमींदार था, रामसिंह ! सब गोरे अफसर उसी की शरणागत हुए ! इसी रामसिंह के आश्रय में आकर में आकर लेफ्टिनेंट ग्रांट तथा फुलर्टन ने भी अपने प्राण बचाए थे ! ११ जून को सूहा में छिपे अंग्रेज लखनऊ आ गए ! डब्लू. बेन्सन लखनऊ कमिश्नरी का डिप्टी कमिश्नर था, उसने सपरिवार हड़हा के रियासतदार के यहाँ आश्रय लिया था ! वह भी हड़हा से चलकर लखनऊ आ गया !

अंग्रेज मारे गए 

9 जून (१८५७) को ही सुल्तानपुर में क्रांतिकारी सैनिकों ने अंग्रेज कर्नल फिशर को गोली मारकर ढेर कर दिया ! कैप्टेन गिबिन्स भी क्रांतिकारियों द्वारा मारा गया ! लेफ्टिनेंट टकर, सैनिक पुलिस का कैप्टेन बनबरी, 8वीं रेजिमेंट का कैप्टेन स्मिथ, लेफ्टिनेंट डॉ.लेविस ओ डोनेल घोड़ों पर चढ़कर भागे और दियारा के रुस्तमशाह की गढ़ी में जाकर आश्रय लिया ! अनंतर समाचार पाने पर कमिश्नर ने सैनिक भेजकर रुश्तमशाह की गढ़ी से सबको बनारस बुला लिया ! कर्नल फिशर और कैप्टेन गिबिन्स तो मारे ही गए सुलतानपुर में, इनके साथ दो अन्य गोरे अफसर ए. ब्लाक तथा एस. स्ट्रोयन भी क्रांतिकारियों ने मार दिए ! वहां देसी पलटन क्रांति में शामिल हो गयी थी ! उक्त दोनों अंग्रेज ने नदी पार जाकर सुल्तानपुर के जमींदार यासीन खान के यहाँ शरण ली, पर यासीन खान ने केवल इन अंग्रेजों को अपने यहाँ से निकाल बाहर किया वरन दोनों को गोली मरवा दी !

बाराबंकी क्रान्ति-केंद्र बना 

इसी प्रकार असिस्टेंट कमिश्नर ग्रांट और चुंगी विभाग के अधिकारी डब्लू. ग्लीन, डॉ. गार्विन, लेफ्टिनेंट जेकिंस, मिसेज गोल्डेन, मिसेज लाक, मिसेज स्ट्रोयन आदि जब भागकर तरोल पहुंचे और वहां जागीरदार गुलाबसिंह से आश्रय माँगा तो गुलाब सिंह ने न तो उन्हें तरोल में ठहरने दिया और न ही कोई सहायता प्रदान की ! क्रांतिकारी सैनिकों ने अंग्रेज अफसरों के बंगले लूट-फूंक दिए ! गोरों की तीसरी रेजिमेंट बुरी तरह हारी ! शेष दो रेजिमेंटें दरियाबाद छोड़ कर बाराबंकी आ गयी ! अनंतर बाराबंकी ही २७ जून से क्रांतिकारियों का केंद्र बन गया !

फैजाबाद कमिश्नरी का तीसरा जिला था, सलोन ! यहाँ फर्स्ट अवध इर्रेगुलर पैदल सेना की 6 कंपनियां पढाव डाले थी ! इन सभी कंपनियों ने क्रांति का शंखनाद गुंजाया ! इनका कमांडर था कैप्टेन आर.एल. थामसन ! डिप्टी कमिश्नर था कैप्टेन एल. बैरो ! 10 जून को सभी देसी सैनिकों ने क्रांति में सम्मिलित होकर गोर अफसरों से भाग जाने को कहा और कह दिया कि "अब हम तुम्हारे अधीन नहीं, न तुम्हारा आदेश मानेंगे ! हम स्वतंत्र है !" फलतः भय से दोनों अंग्रेज अधिकारी दम दबाकर वहां से भाग निकले ! इलाहाबाद पहुंचे ! जो पांचवी पलटन क्रांति में सम्मिलित होकर दरियाबाद की छावनी में रुक रही थी वह भी वहां से क्रांतिकारी केंद्र बाराबंकी आ गयी ! इस प्रकार केवल 10 दिनों के अन्दर ही अवध (तत्कालीन सयुंक्त प्रांत) के सभी जिलों से अंग्रेजों की अमलदारी उखाड़ फैंकी गयी ! वे सभी जिले स्वतंत्र हो गए ! 10 जून बीतने के बाद सभी जिलों से डाक और चिट्ठी-पत्री का आना जाना सर्वथा बंद हो गया !

भटियारिन बनाम फिरंगी 

अभी हेनरी लारेंस मारा नहीं जा सका था - हाँ, उसकी दशा बुरी थी ! भागते-भागते वह क्षीण हो गया था ! क्रांति के दवाब से 9 जून (१८५७) से ही वह कहीं आता-जाता न था, कमरे में ही पड़ा रहता था बंदी की भांति ! उसकी इस दशा से विवश हो क्रांति के दमन और प्रांत के कथित "प्रबंध" या कि संघर्ष के लिए एक कौंसिल गठित हुई जिसमे गुबिंस मेजर बैंक्स, मेजर एंडरसन, कर्नल इंग्लिश और औमेन सम्मिलित किये गए ! गुबिंस को कौंसिल का अध्यक्ष बनाया गया ! कौंसिल ने निर्णय लिया कि आज सेना की जो स्थिति है उसमे देसी पलटनों को तोड़ देना ठीक होगा, क्यूंकि वे अब विश्वशनीय नहीं रही ! फलतः १2 जून १८५७ से देसी पलटनें तोड़ी जाने लगी ! देसी अफसरों के अलावा सातवीं रेजिमेंट के सब अश्वारोही सेना छोड़ गए ! दूसरी अवध इर्रेगुलर अश्वारोही रेजिमेंट का कमांडर था गॉल साहब ! हेनरी लोरेन्स न अब इसे अपना सचिव बना लिया ! उसे लखनऊ से पत्रादि लेकर इलाहाबाद पहुचाने का दायित्व सौपा गया ! एक दिन इसी काम के लिए उसने अपना अंग्रेजी वेश बदला, भारतीय वेश धारण किया, सुरक्षा के कुछ सवार साथ लिए और लखनऊ से रायबरेली पहुंचा ! वहां वे सब एक सराय में ठहरे ! तभी सराय में जो वहां की हिन्दू भटियारिन थी उसने जान लिया कि यह अंग्रेज है, फिरंगी - देश का शत्रु ! उसने बाहर आकर देखा, कुछ क्रांतिकारी सैनिक सड़क से जा रहे है ! भटियारिन ने तुरंत उन्हें सूचना दी कि सराय में फिरंगी विद्यमान है ! फिर तो जनता की भीड़ और क्रांतिकारी सैनिकों ने जाकर सराय घेर ली ! बचना असंभव देखकर गॉल साहब ने अपने को गोली मार ली !

गद्दार मुहम्मद असगरी और हैदर 

यह ज्ञातव्य है कि उस क्रांति-काल में बाराबंकी का जो तहसीलदार था, मुहम्मद असगरी, वह अंग्रेजों से मिलकर उनका भेदिया बन गया था और क्रांतिकारियों की पीठ में छुरा भौंक कर भीतरघात कर रहा था ! यह देशद्रोही तहसीलदार क्रांतिकारियों की गतिविधियों की सूचनाएं गुप्त रूप से गोरों को भेजता रहता था ! अंग्रेजों ने उस समय अपने इस प्रकार के अनेक क्रीत (जरखरीद) एजेंट बना रखे थे स्थान-स्थान पर ! ऐसा ही अग्रेजों का एक एजेंट फैजाबाद नगर में भी था, उसका नाम था - मिर्जा हैदर ! वह अवध की बहु बेगम का खानदानी ही था, फिर भी गद्दारी कर रहा था अंग्रेजों की खैरख्वाही में ! अंग्रेजों को इस मिर्जा हैदर से क्रांतिकारी सैनिकों के बारे में महत्वपूर्ण सूचनाएं प्राप्त होती रहती थी ! सीतापुर का एक तहसीलदार और मौरावां का एक व्यक्ति झब्बासिंह भी इस दुष्कर्म में संलग्न था !

जब अंग्रेज शिवालय में जा छिपे 

उधर नाना साहब, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मी बाई, बहादुर शाह, कुंवर सिंह, राणा वेणीमाधव, राव रामबख्शसिंह, बलभद्र सिंह आदि देशभक्त तुमुल युद्ध कर रहे थे ! बक्सर के समीप गंगा के किनारे एक शिवालय बना था ! कानपुर से अंग्रेजों से भरी हुई जो नावें गंगा नदी के मार्ग से चलीं थी, उनमे से एक नाव २८ जून (१८५७) को डौंडीया खेडा के समीप बालू में फंस गयी ! क्रांतिकारी तो सभी नावों का पीछा करते आ रहे थे ! वे उस नाव के गोरों पर गोली चलाने लगे ! तब उस नाव से १४ अंग्रेज भागकर बक्सर वाले उक्त शिवालय में जा घुसे ! वहां से वे क्रांतिकारियों पर गोली चलाने लगे ! तब क्रांतिकारियों ने लकड़ी इकट्ठी की शिवालय के चारों और लकड़ियों में आग लगा दी ! विवशतः १४ गोरे बंदूकों सहित शिवालय से बाहर आकर नदी की और भागे, जिनमे से दो गोरे गोली खाकर धराशायी हो गए ! उनके साथ 5 गोरे और मारे गए शिवालय के बाहर आते ही ! 5 अंग्रेज नदी तक दौड़ गए ! उनमे से एक नदी में कूदते समय गोली का शिकार हुआ, ४ गोरे फिर भी बच निकले, जिनके नाम थे - लेफ्टिनेंट मोब्रे टामसन, लेफ्टिनेंट डेलाफोसी, प्राइवेट मर्फी तथा सुलिवान (गनर) ! ऐसी धधकी उस क्रांति की धूनी जिसमे नाना साहब, दिल्ली के बहादुरशाह, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, बिहार के बाबू कुंवर सिंह, देसी पलटन के मंगल पांडे आदि के नाम आज भी जन-जन के कण्ठहार बने हुए है !

अत्याचारी लपटें 

"गोरे सिपाही इलाहाबाद नगर की और बढे ! हमारी नाव ऊपर को चलती जाती थी और हम अपनी तोप से दायें-बायें गोले फैंकते जाते थे ! यहाँ तक कि हम गाँवों में जा पहुंचे ! "किनारे पर जाकर हमने अपनी बंदूकों से गोलियां-बरसानी प्रारम्भ की ! मेरी पुरानी दोनाली बन्दूक ने कई काले मनुष्यों को गिरा दिया ! फिर हमारे दायें-बायें गाँवों में आग ही आग फ़ैल गयी ! तेज हवा ने उसे फैलने में और सहायता की !"इस प्रकार प्रतिदिन हम लोग विद्रोही गावों को जलाने और नेस्तानाबूद करने के लिए निकलते थे और यधपि उस समय हर व्यक्ति के प्राण हमारे हाथों में होते थे परन्तु में आपको विश्वास दिलाता हूँ कि हमने किसी को जीवित न छोड़ा ! हम विद्रोही को एक गाडी में बैठाकर किसी पेड़ के नीचे ले जाते थे ! पश्चात उसकी गर्दन में फांसी का फंदा डालकर नीचे से गाडी हटा लेते थे और तब वह अधर में लटका हुआ हवा में झूलता रहता था !"एक दिन हमने एक बड़े गाँव में आग लगा दी जो की लोगों से खचाखच भरा हुआ था और पास ही खेतों में पकी हुई फसल सोने को मात कर रही थी ! हमने खेतों को भी आग लगा दी ! आग की और से स्त्रियाँ, बच्चे और बूढ़े जंगल की और भागे तो हमने उन्हें गोलियों से भून दिया !"-हेवलाक (१८५७ में एक ब्रिटिश सैनिक अधिकारी द्वारा अपने कमांडर को लिखा गया पत्र )   


साभार - धरती है बलिदान की - लेखक वचनेश त्रिपाठी
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