महान राष्ट्रभक्त क्रांतिकारी "शचीन्द्रनाथ सान्याल"



प्रेरक जीवन गाथा 

शचीन दा का त्याग-बलिदानमय जीवन एक बड़ी रोमांचकारी और प्रेरक जीवन-कथा है ! उन्होंने देश और समाज से कभी (बदले में) कोई प्रतिदान नहीं चाहा, केवल अपनी और से सब कुछ समाज-हित में, राष्ट्र की वेदी पर अर्पित ही करते गए ! 

1905 में लार्ड कर्जन द्वारा कुत्सित इरादे से किये गए बंगाल के विभाजन के बाद उभरी ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी लहर ने उस समय के किशोरों एवं नवयुवकों को राष्ट्रवाद की शिक्षा व प्रेरणा देने का महान कार्य किया। शचीन्द्र नाथ सान्याल और उनके पूरे परिवार पर इसका प्रभाव पडा और इसके फलस्वरूप ही चापेकर और सावरकर बन्धुओं की तरह सान्याल बन्धु भी साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवादी धारा के साथ दृढ़ता के साथ खड़े हुए। 

ग़दर पार्टी और अनुशीलन समिति जैसे संगठनों से जुड़े रहे महान क्रांतिकारी, बेमिसाल संगठनकर्ता, क्रांतिकारियों की एक पूरी पीढ़ी के पथप्रदर्शक, हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन जैसे क्रांतिकारी संगठन के संस्थापक शचीन्द्र नाथ सान्याल का जन्म वाराणसी में हरिनाथ सान्याल एवं वासिनी देवी के यहाँ 1893 में हुआ था। बचपन से ही देश की परतंत्रता की बात सुनकर अपार कष्ट अनुभव करने वाले शचीन्द्र घंटों एकांत में बैठ देश को आज़ादी दिलाने के ताने बाने बुना करते थे, पर तब कौन जानता था कि ये बच्चा आगे चलकर देश के लिए अपना सर्वस्व होम कर देगा। 

1908 में, जब शचीन्द्र मात्र 15 वर्ष के थे, उनके पिता की मृत्यु हो गयी और सबसे बड़े होने के नाते परिवार की जिम्मेवारी उन पर ही आ पड़ी। परन्तु कठिनाइयों के वावजूद शचीन्द्र न केवल देश की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध होकर स्वंय आगे बढ़ते रहे अपितु अपने तीनो भाइयो को इसी मार्ग पर ले चलने में सफल रहे। इनके अन्य तीन भाई क्रमश: रविन्द्र, जितेन्द्र व भूपेन्द्र थे और ये सभी सान्याल बंधु क्रांतिपथ के राही बने और कारागार में रहे ! भूपेन्द्र सान्याल यदि काकोरी काण्ड के समय बंदी रहे तो जीतेन्द्र सान्याल सरदार भगत सिंह आदि के लाहोर षड़यंत्र केस के समय कारावास काटते रहे ! 

किशोरावस्था में ही शचीन्द्र ने काशी में एक व्यायाम शाला प्रारम्भ की। बंगाल के क्रान्तिकारियों की अनुशीलन समिति से प्रेरित होकर इस व्यायामशाला का नाम भी अनुशीलन समिति रखा । किन्तु बाद में जब बंगाल क़ी अनुशीलन समिति अवैध घोषित कर दी गयी तो उन्होंने अपनी संस्था का नाम यंग मैन्स एसोसिएशन रख दिया जो धीरे धीरे अपने प्रारम्भिक स्वरुप व्यायामशाला से आगे बढकर ब्रिटिश विरोधी क्रांतिकारी संगठन बनने लगा। 

इस समय तक देश के पूरब से लेकर पश्चिम और उत्तर से लेकर दक्षिण तक स्वाधीनता और स्वराज की अभूतपूर्व लहर उठ खड़ी हुई थी और तिलक का उदघोष, स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे, भारत का मंत्र बन चुका था। ऐसे में शचीन्द्र भी इस संघर्ष में पूरी तरह डूब चुके थे | उल्लेखनीय बात यह है कि वे विवाहित थे, बच्चा भी था पत्नी की गोद में और उसी अवस्था में शचीन्द्र 1911 में पांडिचेरी में महर्षि अरविन्द से मिलने गये, पर ये मुलाक़ात नही हो पायी | 

इसके बाद उन्होंने बंगाल के क्रान्तिकारियो के साथ सम्पर्क बनाने का प्रयास में 1912 में बंगाल की यात्रा की पर बात नहीं बनी| दोबारा 1913 में वे बंगाल के अनुशीलन समिति के नेताओं से मिलने गये, जिनमें शशांक मोहन , शिरीष और प्रतुल गांगुली प्रमुख थे। इन्ही के जरिये शचीन्द्र का परिचय चन्द्रनगर में रह रहे प्रसिद्ध क्रांतिकारी रास बिहारी बोस के साथ हुआ, जो शचीन्द्र की असाधारण कर्म शक्ति , सरलता, तत्परता और निष्ठा से अत्यंत प्रभावित हुए। आगे के क्रांतिकारी जीवन में शचीन्द्र नाथ, रास बिहारी बोस के अनन्य सहयोगी के रूप में ही आगे बढे | 

नवम्बर 1914 में दोनों ही बम-परीक्षण के दौरान घायल हो गये पर जल्दी ही ठीक होकर वे पुन: इस काम में जोर-शोर से जुट गये | दोनों ने मिलकर संगठन का विस्तार राजस्थान तक किया | राजस्थान में पहले से ही एक राष्ट्रवादी संगठन काम कर रहा था जिसे खड़ा करने में प्रमुख भूमिका महान राष्ट्रवादी श्याम जी कृष्ण वर्मा की थी | इसी संगठन के सदस्यों को साथ लेकर शचीन्द्र नाथ राजस्थान में संगठन के विस्तार के साथ-साथ दिल्ली में भी संगठन को बढाने का काम किया| 

पूरे देश में घूम घूम कर संगठन खडा करने और अलग- अलग कार्य कर रहे संगठनों को एक साथ लाने के पीछे उद्देश्य 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की तर्ज पर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध देशव्यापी सैन्य बगावत के रूप में दूसरे स्वतंत्रता संग्राम को खड़ा करना था, जिसकी तैयारी देश एवं देश के बाहर वर्षों से चल रही थी। इसका पूरा संयोजन रासबिहारी बोस कर रहे थे और उनके दाहिने हाथ थे, शचीन्द्र नाथ सान्याल। गदर पार्टी और क्रांतिकारी संगठनों ने 1914 से शुरू हुए प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजो के फंसे होने के चलते कमजोर पड रहे अंग्रेजी शासन के विरुद्ध हिन्दुस्तानी सैनिको के विद्रोह के जरिये देश को पूरी तरह से स्वतंत्र करा लेने का निर्णय लिया हुआ था | 

21 फरवरी 1915 को इस सैन्य विद्रोह और स्वतंत्रता संग्राम को आरम्भ करने की तैयारी पक्की कर ली गयी थी, पर गद्दारों और सरकार के भेदियो के चलते इस योजना का पता ब्रिटिश हुकूमत को लग गया | भारी धरपकड गिरफ्तारी और दमन का चक्र चला | शचीन्द्र को भी 26 जून 1915 को गिरफ्तार कर लिया गया और फरवरी 1916 में उन्हें आजन्म कारावास एवं सारी सम्पत्ति की जब्ती की सजा देते हुए काले पानी भेज दिया गया। वाराणसी का पैतृक घर भी दमनकारी ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया ! 

उनके छोटे भाई रवीन्द्र नाथ और जितेन्द्र नाथ की भी गिरफ्तारी हुई | रवीन्द्र नाथ को दो वर्ष की सजा हुई परन्तु दो वर्ष बाद भी उन्हें अपने घर में नजरबंद रखा गया | जितेन्द्र नाथ पर आरोप सिद्ध नही हो सका और बाद में उन्होंने चन्द्रशेखर आजाद व भगत सिंह के साथ काम किया| 

अंडमान निकोबार में सजा के दौरान लिखी पुस्तक '' बंदी जीवन '' में शचीन्द्र लिखते हैं कि थोड़े समय ( लगभग 6 माह ) तक उन्होंने सत्य व ईश्वर की खोज में साधुओ , सन्यासियों का भी साथ पकड़ा, प्राचीन भारतीय दर्शन व साहित्य का भी अध्ययन किया और अंत इस नतीजे पर पहुंचे कि आध्यत्मिक गुरुओं ने सत्य की खोज या ईश्वर चिन्तन के नाम पर कर्म हीन जीवन अपना लिया है जिनका कोई उद्देश्य नहीं है, समाज के लिए कोई योगदान नहीं है और कोई दिशा नहीं है। 

5 वर्ष बाद जब फिर सन १९२० में ब्रिटिश सरकार ने शाही (रॉयल) आम माफ़ी (सर्वक्षमा) की घोषणा की तो शचीन दा भी अंडमान द्वीप समूह के कारावास से मुक्त होकर काशी लौटे ! यह वह दौर था जब पूर्व-परिचित स्नेही मित्रों ने भी उस आश्रयहीन विप्लवी परिवार की और से मुख मोड़ लिया था ! गोद में बच्चे के लिए छटांक भर दूध के लिए भी तरस रही थी एक माँ- शचीन दा की सहधर्मिणी प्रतिमा देवी ! 

शचीन्द्र नाथ ने अंडमान में कैदियों के प्रति किए जाते रहे अमानवीय व्यवहार की चर्चा उस समय के दिग्गज कांग्रेसी लीडरो से करते हुए महान क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर व अन्य कैदियों को छुडाने के लिए वीर सावरकर के भाइयों से मिलकर अत्यंत प्रयास किए, परन्तु कांग्रेसी नेताओ की उदासीनता के चलते उनके प्रयास व्यर्थ हो गये। 

पुनः मिला काला पानी 

एक बार काले पानी के त्रासद कारावास में रह आने पर भी शचीन दा निष्क्रिय होकर घर नहीं बैठे वरन पुनः बिखरे हुए क्रांतिकारी संगठनों को एक जुट करने के प्रयास में जुट गये परन्तु बाद में घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ने के फलस्वरूप उन्हें कई तरह के काम और व्यवसाय करने पड़े लेकिन क्रांतिकारी तेवर व संगठन के अभ्यस्त शचीन्द्र कहीं भी टिक नही सके | एक बार फिर से वो उत्तर भारत में क्रांतिकारी संगठनों बनाने के लिए निकल पड़े और 1923 तक उन्होंने पंजाब व संयुक्त प्रांत में पच्चीस क्रान्ति केन्द्रों की स्थापना कर दी| दिल्ली के अधिवेशन में उन्होंने अपने संगठन का नाम रखा--हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशंन । बाद में चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह तथा उनके साथियो ने इसी संगठन का नाम एवं रूपांतरण हिन्दुस्तान प्रजातांत्रिक समाजवादी संगठन के रूप में किया था | 

दिल्ली के इसी अधिवेशन में शचीन्द्र नाथ ने देश के बन्धुओं के नाम एक अपील जारी करते हुए सम्पूर्ण भारत के लिए पूर्ण स्वतंत्रता का लक्ष्य सामने रखा| उनके द्वारा '' रिवोल्यूशनरी '' लिखा गया पर्चा एक ही दिन में रंगून से पेशावर तक बांटा गया, जिसमें यह सपष्ट किया गया था कि देश की स्वतंत्रता के लिए क्रांतिकारी संघर्ष अनिवार्य है और उसके लिए देश में एक बृहद संगठन आवश्यक है | इस पर्चे को लिखने और वितरित करने के आरोप में उन्हें 25 फरवरी 1925 को दो वर्ष की सजा हुई | 

अभी शचीन दा यह कारावास भुगत ही रहे थे कि उनपर काकोरी षड़यंत्र में सक्रीय रूप से सम्मिलित रहने का मुक़दमा थोप दिया गया, जिसमे अदालत ने उन्हें दुबारा आजीवन काले पानी का दंड सुनाया ! फलतः शचीन दा दुबारा अंडमान द्वीप-समूह भेज दिए गए ! वीर सावरकर के अतिरिक्त दुबारा काले पानी का दंड शचीन्द्रनाथ सान्याल को ही दिया गया था और सावरकर बंधुओं की ही भांति ये सब सान्याल-बंधू भी कारागारों में लम्बी सजाएं काटते रहे थे ! 

राजद्रोह का आरोप 

1937-38 में कांग्रेस मंत्री मंडल ने जब राजनैतिक कैदियों को रिहा किया तो उसमे शचीन्द्र नाथ भी रिहा किये गए, लेकिन उन्हें घर पर नजरबंद कर दिया गया | 

अनंतर जब सन १९४१ में विश्व-युद्ध चल रहा था और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में आजाद हिन्द फौज के द्वारा ब्रिटिश सेना से संघर्ष कर रहे थे, उस समय शचीन दा को तीसरी बार यह आरोप लगा कर बंदी बना लिया गया कि वे विदेशी शक्ति (जापान देश) से सांठ-गाँठ कर भारत में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध राजद्रोह कर ब्रिटिश शासन को उखाड़ फैंकने के लिए गुप्त रूप से षड़यंत्र रच रहे है ! इसी अभियोग में शचीन दा तीसरी बार बंदी के रूप में राजस्थान में अजमेर के पास देवली कैंप में भेज दिए गए, जहाँ उन्हें क्षय (तपेदिक) रोग ने बुरी तरह ग्रस लिया ! जब उनकी दशा क्षय (टीबी) से बहुत जर्जर हो गयी तो ब्रिटिश सरकार ने उन्हें देवली कैंप जेल से तो छोड़ दिया, परन्तु तत्काल गोरखपुर में नजरबंदी की स्थिति में ला रखा- घर नहीं जाने दिया, न नजरबंदी से मुक्त ही किया | 7 फरवरी 1942 को गोरखपुर जेल में भारत का यह महान क्रांतिकारी जर्जर शरीर के साथ आँखों में माँ को मुक्त कराने का स्वप्न लिए चिर निद्रा में सो गया| 

कितना कष्ट, दुःख, निर्धनता, विपदाएं, यातनाएं यहाँ तक कि अकाल मृत्यु भी अपने गले लगाई उस क्रांति-धर्मी ने, यह आज सत्ता-राजनीति में लिप्त राजनीतिक नेता और शासन न सोच सकते है, न अनुभव कर सकते है ! दो-दो बार काले पानी की सजा काटने वाला, अपनी आयु का प्रत्येक क्षण स्वतंत्रता संघर्ष के लिए समर्पित करने वाला यह अनमोल क्रांतिकारी हम सभी के लिए स्मरणीय और पथ प्रदर्शक है| शत शत नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि । 

शचीन दा बड़े ही सिद्धहस्त लेखक भी थे, ब्रिटिशकाल में उनका लिखा 'बंदी जीवन', जो अंग्रेजों द्वारा जब्त कर लिया गया था, शायद ही कोई विप्लवी होगा जिसने नहीं पढ़ा हो ! बहुत कुछ पढने-लिखने-मनन करने वाले होते हुए भी वे कभी कम्युनिष्ट नहीं बने ! उनका कहना था - "जो कम्युनिज्म हमें परमहंस रामकृष्ण तथा स्वामी विवेकानंद नहीं दे सकता, वह हमें नहीं चाहिए !" वे पक्के राष्ट्रवादी क्रांतिकारी थे ! उनका चिंतन आज भी प्रासंगिक है ! 

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