दास वंश के हाथों घायल हमारी स्वतंत्रता

दिल्ली ने भारत के उत्थान- पतन के कई पृष्ठों को खुलते बंद होते देखा है ! कई राजवंशों ने यहाँ लम्बे समय तक शासन किया, पर समय यह भी आया कि जब उनका इतिहास सिमट गया और उनके सिमटते इतिहास के काल में ही किसी दूसरे राजवंश ने दिल्ली की धरती पर आकर अपने वैभवपूर्ण उत्थान का मधुर गीत गाना आरम्भ कर दिया !

विदेशी और विधर्मी शासक

पर अब परिस्थितियां कुछ दूसरी थी ! अब दिल्ली पर एक विदेशी आक्रान्ता शासक बन बैठा था ! वह ऐसा शासक था जिसका धर्म विदेशी था, सोच विधर्मी थी, भावों में हिंसा थी, विचारों में घृणा थी और कार्यों में निर्दयता का पूर्ण समावेश था ! जिस समय यह विदेशी-विधर्मी शासक कुतुबुद्दीन भारत में अपने पैर जमा रहा था उस समय के दिल्ली के तत्कालीन वैभव, इतिहास और सांस्कृतिक विकास को उसी प्रकार इतिहासकारों ने उपेक्षित और दृष्टी से ओझल किया है जैसे मध्यकालीन इतिहास के विध्वंसित मंदिरों के ध्वंसावशेषों से निर्मित किसी मस्जिद, मीनार या मकबरे आदि की अब जांच-पड़ताल करने की बात को दृष्टी से ओझल किया जाता है !

स्वतंत्रता के दीप बुझाकर जलाए 'गुलामी के दीये'

यदि हम तत्कालीन दिल्ली के विषय में उपलब्ध साक्ष्य, प्रमाण एवं ऐतिहासिक महत्त्व के पुरातात्विक अवशेषों की भी उपेक्षा कर दें, तो भी दिल्ली जैसे प्राचीन और ऐतिहासिक महत्त्व के नगर के विषय में यह नहीं माना जा सकता कि यहाँ इतनी सदियों के इतिहास काल में ऐसा कुछ भी नहीं किया गया होगा या कुछ भी नहीं बनाया गया होगा जिसका ऐतिहासिक महत्त्व हो और जो एक भव्य स्मारक के रूप में एक दिव्य देश के सांस्कृतिक गौरव के इतिहास को ऊंचा मस्तक़ करके वर्णित करने की योग्यता रखता हो ! निसंदेह ऐसे कितने ही प्रमाण रहे होंगे जिन्हें मिटाकर और स्वतंत्रता की ज्योति को बुझाकर 'गुलामी का दिया' जलाने का प्रयास किया गया होगा ! यह सर्वमान्य और सार्वभौम सत्य है कि 'गुलामी का दिया' सदा ही स्वतंत्रता की कब्र पर ही जलाया जाया करता है !

मिहिरावली की वेधशाला कुतुबमीनार 

भारत के तत्कालीन इतिहास की समीक्षा करने पर हमें ऐसे बहुत से प्रमाण और अवशेष या ऐतिहासिक महत्त्व के भव्य भवन, मीनारें इत्यादि मिलते है, जिन्हें देखकर कहा जा सकता है कि कभी यहाँ उजालों ने आत्महत्या की है अवश्य ! इन प्रमाणों में सबसे मुख्य स्थान कुतुबमीनार का है ! यह मीनार हमारी स्वतंत्रता के वैभवपूर्ण कालखंड का ऐसा प्रमाण है जिस पर किसी भी देश को गर्व और गौरव की अनुभूति हो सकती है, क्यूंकि यह मीनार केवल एक मीनार ही नहीं, अपितु यह भारत की स्थापत्य कला का एक ऐसा बेजोड़ नमूना भी है जिसके अवलोकन से भारत के ज्ञान-विज्ञान के गांभीर्य का भी हमें पता चलता है कि जिस समय इस मीनार का निर्माण हुआ था, उस समय हमारे पूर्वजों का नक्षत्रादि के विषय में भी गहरा ज्ञान था !

वराहमिहीर की वेधशाला

यह मीनार दिल्ली के मिहिरावली (महरौली) क्षेत्र में स्थित है ! इस क्षेत्र में भी कभी मिहिरावली के नाम से ही दिल्ली ख्यात रही है, अर्थात कभी मिहिरावली दिल्ली का ही नाम रहा है ! चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के शासन काल में भारत के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक वराहमिहिर (गणितज्ञ) ने अपने नक्षत्रीय ज्ञान विज्ञान के परिक्षण के लिए यहाँ एक वेधशाला बनाई थी ! उसी वेधशाला को अरबी में कुतुबमीनार कहा गया ! कुतुबुद्दीन नाम के मुस्लिम सुलतान के बारे में पी.एन.ओक कहते है कि उसने इस मीनार को देखकर कहा था कि - 'यह क्या है ?' तब उसे बताया गया था कि यह कुतुबमीनार है ! सुलतान ने इस मीनार के पास कुछ निर्माण कार्य कराया जो वहीँ बने मंदिरों को तोड़कर उन्ही के अवशेषों से बनाने का प्रयास था !

कुतुबुद्दीन ने कुतुबमीनार बनाने का नहीं किया दावा 

कुतुबमीनार भारत के वैभव की कहानी का प्रतीक है ! कुतुबुद्दीन के विषय में एक सर्वमान्य सत्य यह है कि उसने स्वयं या उसके किसी लेखक ने कहीं भी यह दावा नहीं किया है कि कुतुबमीनार कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनवाई है ! वैसे भी उस सुलतान को भारत में स्वतंत्र शासन करने के लिए मात्र साढ़े तीन-चार साल का ही समय मिला था ! इस अवधि में भी वह भारत में होने वाले विद्रोहों की चुनौती से जूझता रहा ! मोहम्मद गौरी के समय में तो उसने भारत में अपना विजय-यात्रा अभियान जारी रखा था, परन्तु जब वह भारत के कुछ भू-भाग का स्वतंत्र शासक बना तो एक भी विजय-यात्रा अभियान नहीं चला पाया क्यूंकि अब उसे पता चल गया था कि किसी बाहरी देश में जाकर उस देश की स्वतंत्रता प्रेमी जनता पर अपना शासन थोपना कितना चुनौतीपूर्ण होता है ! ऐसी परिस्थितियों में उससे किसी नए भवन या मीनार के बनाने की अपेक्षा नहीं की जा सकती !

सर सैय्यद अहमद खान की टिपण्णी 

पी.एन. ओक लिखते है कि सर सैय्यद अहमद खान एक कट्टर मुस्लिम विद्वान थे, जिन्होंने स्वीकार किया था कि यह स्तम्भ एक हिन्दू भवन है !

हमारी उपेक्षापूर्ण नीतियाँ 

यह स्तम्भ सदियों से भारत को नक्षत्र विद्या का ज्ञान कराता आ रहा था, परन्तु कुतुबुद्दीन जैसे लोगों ने इसका महत्त्व नहीं समझा और इसे भारी क्षति पहुंचाई ! आज स्वतंत्र भारत में यह मीनार अपने गौरवपूर्ण अतीत पर खड़े-खड़े आंसू बहा रही है, और हमें इसके आंसू पोछने तक का समय नहीं है ! हमारा अपना इतिहास और उसका गौरव हमारे सामने एक स्वर्णिम पृष्ठ के रूप में खड़ा है और हम उसकी और पूर्णतः उदासीनता का भाव प्रकट कर रहे है ! हमने कुतुबमीनार, महरौली, वराहमिहीर आदि के अतीत को समीक्षित और निरीक्षित करने का प्रयास नहीं किया !

दिल्ली का लालकोट

'दिल्ली : प्राचीन - इतिहास' के लेखक उपिन्दर सिंह ने प्रमाणों के आधार पर लिखा है कि (गुर्जर) तोमर राजा अनंग पाल द्वितीय, जिसको प्रायः १०५२ से १०६० के बीच दिल्ली की स्थापना (पुराने अवशेषों पर नया शहर बसाने के अभिप्राय से है) का श्रेय दिया जाता है, इसके काफी पहले इन्द्रप्रस्थ अपनी पहचान खो चुका था (कनिंघम) तब पहली बार इस शहर का अस्तित्व महरौली के निकट लालकोट के इर्द-गिर्द प्रकट होता है !

अनंगपुर का राजा अनंगपाल 

इस गुर्जर राजा अनंगपाल तोमर ने ही दिल्ली का लालकोट नामक किला बनबाया था ! इसका निर्माण काल ११ वीं शताब्दी माना गया है ! इस किले का कुल क्षेत्रफल लगभग सात लाख चौसठ हजार वर्गमीटर माना जाता है ! गढ़वाल कुमायूं क्षेत्र में मिली पांडुलिपियों के अनुसार मार्गशीर्ष महीने के दसवे दिन १११७ संवत या १०६० ई. में अनंगपाल ने दिल्ली का किला बनवाया और उसका नाम उसने लालकोट दिया ! अनंगपुर गाँव इसी राजा अनंगपाल के नाम से है ! वस्तुतः यह अनंगपुर भी कभी दिल्ली का ही पुराना नाम है ! इस क्षेत्र में स्थित लालकोट को तोमर राजाओं ने अपनी राजधानी बनाया था ! यह भी माना जाता है कि तोमर शासक गुर्जर प्रतिहारों के सामंती शासक थे, परन्तु ११वीं शदाब्दी में यह स्वतंत्र शासक थे ! इनकी नगरी के और इनकी राजकीय वैभव के अवशेष क़ुतुब पुरातात्विक क्षेत्र में आज भी मिलते है परन्तु दुःख की बात यह है कि इन क्षेत्रो को केवल पुरातात्विक होने का ही महत्त्व दिया गया है, इससे अधिक कुछ नहीं किया गया ! होना यह चाहिए था कि इन क्षेत्रों का इतिहास खोजा जाता और इनके शासकों के लिए देश के राष्ट्रीय इतिहास में स्थान सुरक्षित किया जाता !

यह सचमुच दुर्भाग्य का विषय है कि जिस व्यक्ति ने देश के दैदीप्यमान इतिहास दिवाकरों का गौरवपूर्ण इतिहास मिटाने का घृणित कार्य किया, उस कुतुबुद्दीन के साढ़े तीन-चार वर्षों को भी देश के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में महिमामंडित किया जाता है और जिन राजाओं ने देश के लिए और देश की महान परम्पराओं की सुरक्षा के लिए अपना जीवन होम कर दिया था, जिन्होंने अपने महान कृतित्व के कीर्तिमान स्थापित किये उनका कहीं कोई अता-पता नहीं है ! अतः कुतुबुद्दीन ऐबक के समय के लालकोट और उसके निर्माता का उल्लेख कहीं नही किया जाता !

महरौली लौह स्तंभ व रायपिथौरा 

सदियों से आंधी, तूफ़ान और तेज धुप को सहन करता महरौली लौह स्तंभ इस बात के लिए जगविख्यात है कि इसमें आज तक जंग नहीं लगा ! आज का वैज्ञानिक युग भी इसे कौतुहल और आश्चर्य की दृष्टी से देखता है !
कुतुबमीनार के पास आज भी एक किले के अवशेष हमें मिलते है जिसे रायपिथौरा के नाम से जाना जाता है ! लालकोट की भांति इस किले को भी मुस्लिम आक्रमणों से देश की सुरक्षार्थ बनाया गया था ! इसके निर्माण की अवधि 12वीं शताब्दी में मध्य मानी जाती है ! स्पष्ट यह है कि जिस समय कुतुबुद्दीन ने दास वंश की स्थापना की थी, उस समय यह किला निश्चित रूप से अस्तित्व में रहा होगा परन्तु जब कुतुबुद्दीन का शासन दिल्ली पर स्थापित हो गया तो लालकोट की भांति रायपिथौरा को भी 'हिन्दू अवशेष मिटाओ' अभियान के अंतर्गत समाप्त करने या इतिहास से ओझल करने का प्रयास किया गया होगा !

कर दिया 'रायपिथौरा' का बलिदान 

फलस्वरूप हिन्दू गौरव के वे अवशेष जो हिंदुत्व को गौरवान्वित कर सकते थे या किसी भी प्रकार से हिन्दू समाज में अपने अतीत के प्रति स्वाभिमान का भाव भर सकते थे, एक सुनियोजित अभियान के अंतर्गत मिटाए जाने लगे ! आज लौह स्तम्भ तो यहाँ खड़ा है, परन्तु रायपिथौरा का बलिदान भुला दिया गया है ! कुतुबुद्दीन के विषय में अनेक मुस्लिम इतिहासकारों ने यह भी तथ्य स्पष्ट किया है कि उसने कुतुबमीनार के निकटवर्ती क्षेत्र में स्थित २७ हिन्दू मंदिरों को तोड़कर अपनी मस्जिद बनायी !

तनिक कल्पना करें कि जब आज की महरौली के पास दो किले होते होंगे, उनमे से एक के भीतर २७ भव्य मंदिरों की जगमगाहट होती होगी, वेद मन्त्रों से जहाँ यज्ञादि होते होंगे ! कुतुबमीनार का प्रयोग नक्षत्रादी का ज्ञान कराने के लिए देश की युवा शक्ति को उसके माध्यम से ज्ञान-विज्ञान से जोड़ा जाता होगा, तो दृश्य कितना मनोरम, वैज्ञानिक और आध्यात्मिक बनता होगा !

कहाँ गए वे लोग, कहाँ गयी उनकी भव्य राजधानियां और कहाँ गया उनका राजकीय वैभव ? ये सभी जिस साम्प्रदायिक दावानल की भेंट चढ़ गए, उसे आज धर्मनिरपेक्षता कहा जाता है और हम इसी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर ही अपने ह्रदय में इस सुप्त दाबानल को आज भी इन ऐतिहासिक भव्य भवनों, स्तंभों व मंदिरों पर अत्याचार करने दे रहे है ! जबकि इनकी पूजा हमारी स्वतंत्रता के महान स्मारकों के रूप में होनी चाहिए थी !

लौह स्तंभ के जंगरोधी होने का रहस्य 

जहाँ तक लौहस्तंभ के जंगरोधी होने की बात है तो इसके लिए यह स्पष्ट करना उचित होगा कि प्राचीनकाल में भारत में लोहे को जंगरोधी बनाने के लिए विभिन्न तकनीकों का प्रयोग किया जाता था ! जिनमे से एक थी केले के क्षार को दही के साथ अच्छी प्रकार गूंथना फिर तैयार की गयी इस सामग्री को कुछ दिनों तक संरक्षित रखा जाना ! उसके बाद उसे लोहे पर लगा देना ! इस लेप को लगाने से लोहे को आवश्यकतानुसार कड़ापण प्रदान करना चाहिए ! वराहमिहीर का कहना है कि इस प्रकार तैयार किये गए लोहे को नातो पत्थर पर तोड़ा जा सकता है और न ही लोहे के हथोड़े से पीटकर तोड़ा जा सकता है !

सन्दर्भ- 'दिल्ली : प्राचीन इतिहास' ( सचमुच हमें गर्व है अपने मेधा संपन्न पूर्वजों पर, जिनके कारण हमारी संस्कृति आज तक विश्व में अनुपम और अद्वितीय मानी जाती है !)

लेख स्त्रोत- 'भारत के १२३५ वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास (भाग - 2) - लेखक राकेश कुमार आर्य

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