6 नवम्बर 1966 का वह दिन जब गौभक्तों को मारने, केवल अहिंदू फ़ोर्स की तैनाती हुई दिल्ली में !



कल 6 नवम्बर 2016 है ! पचास वर्ष पूर्व हुए एक नरसंहार को लोग भूल चुके है, वह प्रसंग इतिहास के कूड़ेदान में फेंका जा चुका है ! अगर इन दिनों भाजपा के स्थान पर कांग्रेस या किसी अन्य सेक्यूलर दल का शासन होता तो शायद हम लोग भी आस्तीनें चढ़ाकर मैदान में उतरते, उस ह्रदयद्रावक बर्बरता की याद में अर्द्धशती मनाते, पर आज किंकर्तव्यविमूढ़ हैं ! 

पाठक गण भी सोच रहे होंगे कि मैं भूमिका कुछ ज्यादा ही लम्बी कर रहा हूँ ! पर मेरा सनातनी हिन्दू मन व्यथित है और उस नृशंसता की कल्पना मात्र से सिहर उठता है ! क्या राजनीति इतनी पाषाण ह्रदय होती है ? 6 नवम्बर, 1966 को गो-प्रेमियों ने देशभर में गो-हत्या पर प्रतिबंध लगाने के लिए संसद भवन पर प्रदर्शन करने का निर्णय किया था। प्रदर्शनकारी पूर्णतः शांतिपूर्ण थे और उनके साथ भारी संख्या में महिलायें और बच्चे भी मौजूद थे। अचानक कुछ शरारती तत्वों ने ट्रांसपोर्ट भवन के पास कुछ वाहनों को आग लगा दी। यह घटना देखते ही तुरन्त संसद के दरवाजे बंद कर दिए गए और धमाकों की आवाज आने लगी। इसके बाद तो चारों तरफ धुंआ उठने लगा। 

इतने में एक सुरक्षा कर्मचारी चिल्लाते हुए प्रेस-रूम में दाखिल हुआ। भैया जबर्दस्त गोली चल रही है निहत्थे साधुओं की हत्या हो रही है। यह सुनते ही हिन्दुस्थान समाचार न्यूज एजेंसी के एक पत्रकार संसद के प्रेस-रूम से बाहर की ओर लपके। उन्हें संसद के बरामदे में तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारी लाल नन्दा खड़े हुए दिखाई दिए। दोनों पूर्व परिचित थे, अतः पत्रकार महोदय नंदा जी पर लगभग बरस ही पडे – ‘तुम तो गो-प्रेमी होने का दावा करते हो और साधू-संतो के बड़े भक्त भी बनते हो, तुम्हें शर्म नहीं आती कि तुम्हारे आदेश पर निहत्थे साधुओं पर अंधाधुंध गोली चल रही है। 

नन्दा जी ने उनकी ओर देखा और रुंआसे शब्दों में कहा – ‘भाई! मुझे समझ नहीं आ रहा कि गोली क्यों चल रही है। मैंने तो कोई ऐसा आदेश नहीं दिया। मैं खुद परेशान हूं। साधुओं की इस निर्मम हत्या का प्रायश्चित कैसे करूंगा?’ 

बाद में उक्त पत्रकार महोदय ने आँखों देखा हाल कुछ इस प्रकार लिखा - संसद से लेकर पटेल चौक तक शव ही शव बिछे हुए थे। गोली अंधाधुंध चल रही थी, मैं गोल डाकखाने की ओर बढ़ा तो रास्ते में शव ही शव थे। मेरे जूते ऊपर तक खून से लथपथ हो चुके थे। आकाशवाणी भवन और कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष कामराज के बंगले के बाहर भी चारों ओर शवों के ढेर लगे हुए थे। मैं वापस संसद भवन की ओर मुड़ा। संसद भवन के बंद दरवाजों को कोई खोलने को तैयार नहीं था, बड़ी मुश्किल से एक सुरक्षाकर्मी ने एक खिड़की खोली और मैं पुनः प्रेस-रूम में समाचार देने में जुट गया। 

किसकी थी यह साजिश? 

बाद में विभिन्न सूत्रों से इस बात की पुष्टि हुई कि कांग्रेसियों का एक गुट गुलजारी लाल नन्दा को इस विवाद में फंसाकर उनसे त्यागपत्र दिलवाना चाहता था और इस साजिश में इंदिरा गांधी भी शामिल थीं। यह भी पता चला कि तत्कालीन गृह राज्यमंत्री विद्याचरण शुक्ल, सुभद्रा जोशी और शशिभूषण वाजपेयी ने एक साजिश के तहत दिल्ली और उत्तर प्रदेश एवं हरियाण से गुंड़ों को बुलावाया था और उन्होंने गौ-रक्षा आंदोलन को बदनाम करने के लिए एक सुनियोजित साजिश के तहत विभिन्न सरकारी दफ्तरों के बाहर खड़े वाहनों में आग लगाई थी। नन्दा जी ने दुखी होकर तुरन्त अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। 

किसने चलाई थी गोली? 

गृहमंत्रालय को गुप्तचर सूत्रों ने इस बात की रिपोर्ट दी थी कि दिल्ली पुलिस और केन्द्रीय सुरक्षा बल के नौजवान सम्भवतः साधुओं पर गोली चलाने से हिचकिचायें। इसलिए उस दिन विशेष रूप से जम्मू-कश्मीर, मलेशिया को दिल्ली बुलाया गया था। इस मलेशिया के बहुसंख्यक कर्मचारी गैर-हिन्दू थे। इसलिए इन्होंने चुन-चुनकर साधू-संतों और निहत्थे पुरूषों, महिलाओं और बच्चों को अपना निशाना बनाया। इस नरसंहार में कुल कितने लोग मारे गए थे, यह सच कभी सामने नहीं आया । साधू संत, महिला, बच्चे कितने मरे, इसके विषय में सरकारी आंकड़ों पर उस समय भी किसी ने यकीन नहीं किया ! करते भी कैसे ! सरकारी प्रेस-नोट में मरने वालों की संख्या मात्र 11 बताई गई थी। 

कुल शवों को दिल्ली के चार अस्पतालों में रखा गया था इनमें विलिंगटन अस्पताल, ईरविन अस्पताल, सफदरजंग अस्पताल व हिन्दूराव अस्पताल प्रमुख थे। इन अस्पतालों के बाहर सेना के जवानों का कड़ा पहरा था और उनमें किसी को प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी। इस घटना के तुरन्त बाद पूरी दिल्ली में कर्फ्यू लगा दिया गया। सारा नगर सेना के हवाले कर दिया गया। सरकार को यह खतरा था कि इस हत्याकांड का हिन्दू समाज प्रबल विरोध करेगा। पुलिस और सेना ने मिलकर प्रदर्शनकारियों को चुन-चुनकर पकड़ना शुरू किया। दस हजार प्रदर्शनकारी तिहाड़, दिल्ली गेट स्टेडियम, तालकटोरा स्टेडियम में कैद किए गए। इसके बाद पांच हजार बसों को लगाकर प्रदर्शनकारियों को पकड़-पकड़कर दिल्ली से बाहर भेज दिया गया। 

प्रशासन ने सभी संवाद समितियों और समाचारपत्रों को यह निर्देश दिया था कि इस घटना के बारे में सिर्फ सरकार द्वारा जारी प्रेस-नोट को ही प्रकाशित किया जाए। उन्हें यह भी कहा गया था कि वह अपने संवाददाता द्वारा लिखित समाचार को प्रकाशित न करें। वरना उनके खिलाफ भारत रक्षा अधिनियम के तहत कड़ी कार्रवाई की जाएगी। इस तरह से जलियांवाला बाग कांड से भी भीषण हत्याकांड को इंदिरा गांधी की सरकार ने सख्ती से दबा दिया। बाद में सरकारी क्षेत्रों में इस बात की भी चर्चा जनता सरकार के शासनकाल में गर्म थी कि इंदिरा गांधी के आदेश पर इस हत्याकांड से संबंधित सभी रिकार्ड नष्ट करवा दिया गया है। आज कोई भी व्यक्ति इस निर्मम हत्याकांड के पूरे तथ्यों को नहीं जानता। 

दुर्भाग्य यह है कि गो-वध को रोकने के लिए पुरानी पीढ़ी ने जो कुर्बानी दी, उसकी जानकारी भी आज की पीढी को नहीं है । दुःख की बात यह भी है कि जो सरकार आज सत्ता में है उसे भी न तो गो-वध पर प्रतिबंध लगाने के बारे में रूचि है और ना ही गौ संरक्षण की चिंता । गो-रक्षा का मुद्दा यदाकदा उठता भी है तो महज राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए । अन्यथा क्या कारण है कि न तो पशुवधशालाओं की संख्या घट रही और ना ही गौशालाओं की संख्या बढाने की ओर किसी का ध्यान ! मांस की गुलाबी क्रान्ति के स्थान पर दूध की धवल क्रान्ति का सपना क्या केवल सपना ही रहेगा ? 

इसीलिए आज के समय का आव्हान -

राज सत्ता पर धर्म दंड हमेशा भारी रहे

व्यवस्था परिवर्तन तक लड़ाई जारी रहे

भरोसा किसी पर नहीं अनास्था के दौर में

सजग हो हटायें कंकर, दाल के हर कौर में

समाज जागे फिर कौन क्या कर सकता है

चूहा केवल सोते शेर की ही पूंछ कुतर सकता है !!

वन्दे मातरम !!

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